कश्मीर में अजात शत्रु का भाजपा प्रवेश – इतिहास की परिक्रमा!!

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कहावत है कि इतिहास स्वयं को दोहराता है! यह भी कहते हैं कि इतिहास करवट लेता है!! ऐसा भी कहा जाता है कि इतिहास की आँखें कभी बंद नहीं होती!!! और ऐसी भी लोकोक्ति है कि व्यक्ति स्वयं को दो आँखों से देखता है किन्तु उसका इतिहास स्वयं को लाखों आंखों से देखता रहता है!!!! और सबसे बढ़कर यह भी कि इतिहास कभी किसी को क्षमा नहीं करता!!! ये मुहावरे और इतिहास को लेकर जो और भी मुहावरे हैं वे सभी संभवतः आज जम्मू कश्मीर के “संवेदन शील” महाराजा हरिसिंग और उनकें “राजनीतिज्ञ” पुत्र कर्ण सिंग के परिप्रेक्ष्य में चरितार्थ होते दिखाई पड़ रहें हैं. हुआ कुछ इस प्रकार कि प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के हनुमान अमित शाह नें राजा कर्ण सिंग के सुपुत्र अजातशत्रु का भाजपा में प्रवेश करा कर जम्मू कश्मीर के अपनें “मिशन 44+” के अभियान में अजेय बढ़त बना ली और इतिहास के रूख को मोड़ने का भी सार्थक प्रयास कर लिया. कश्मीर के महाराजा रणवीर सिंग के पड़पोते, महाराजा हरिसिंग के पोते और इतिहास के दोषी राजा कर्ण सिंग के पुत्र अजातशत्रु के भाजपा में प्रवेश के निहातार्थ मात्र राजनैतिक ही नहीं है अपितु यह तो प्रकृति का न्याय और इतिहास का हिसाब किताब है जो अपनें धन, ऋण, गुणा, भाग और समायोजन को सूक्ष्मता यानि बारीकी से करनें पर उतारू हो गया है.

अजातशत्रु के भाजपा में प्रवेश को यदि कोई व्यक्ति केवल नेशनल कांफ्रेंस नाम के एक राजनैतिक दल से दूसरे भाजपा नामक राजनैतिक दल में प्रवेश मात्र की सामान्य घटना मानें तो यह उसकी भूल होगी. भारतीय जनता पार्टी के सतत सफल होते अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी इस चाल से समूची कश्मीर घाटी में बर्फ तले दबे इतिहास को जैसे शोलों और अंगारों की आंच दिखा दी है! यदि हम कहानी को प्रारम्भ करें तो भूमिका में यह कहना पर्याप्त होगा कि भारत में अपनी रियासतों के विलय में सहमति देनें वाले शासकों और राजाओं में सर्वाधिक दुर्भाग्यशाली और हतभाग्य राजा रहे महाराजा हरिसिंग. महाराजा हरिसिंग के साथ जवाहर लाल नेहरू, अंतिम अंग्रेज शासक लार्ड माउंट बैटन और बाद में कश्मीर के मुख्यमंत्री बनें शेख अब्दुल्ला की तिकड़ी ने जो किया वह राजशाही के जमानें की एक क्रूर, संवेदन हीन और स्याह षड्यंत्रों से भरी एक दुखद कहानी ही है. इन तीनों की तिकड़ी ने कभी भी इतिहास में कश्मीर विलय के सन्दर्भ में महाराजा हरिसिंग की वास्तविक भूमिका सामनें नहीं आनें दी और इतिहास का लेखन इस प्रकार कराया कि बाद की पीढ़ियों के सामनें उनका सही रूप आ ही नहीं पाया. शेख अब्दुल्ला के घनघोर स्वार्थों और नेहरू की महाराजा कश्मीर के प्रति कटुता ने कश्मीर विलय में जो गलतियां कराई; इतिहास का उदर भरनें हेतु उस सब का दोष कहीं न कहीं तो मढ़ा ही जाना था सो दोष मढ़ा गया महाराजा कश्मीर हरिसिंग के सर पर. नेहरू और शेख ने जो डरावना और भयभीत कर देनें वाला तिलिस्म रचा उसमें महाराजा हरिसिंग तो फंसे ही साथ साथ उनकें चिरंजीव कर्ण सिंग -जो उस समय किशोर वय में ही थे- ने भी नेहरू और शेख से घबराकर अपनें पिता का साथ छोड़ नेहरू का दामन थाम लिया. यह विडंबना ही थी कि महाराजा हरिसिंग के जीवन के सबसे बड़े संघर्ष के समय में उनके उस पुत्र ने उनका साथ छोड़ दिया जिसे वे गर्व से टाइगर नाम से बुलाया करते थे. उस समय भारत, कश्मीर और स्वयं अपनें पिता के साथ एतिहासिक गलती करते हुए कर्ण सिंग ने कहा था कि उन्होंने नेहरु की दो किताबें पढ़ी हैं और इन किताबों को पढ़कर उनकें –कर्ण सिंग के- ज्ञान चक्षु खुल गएँ हैं. इस प्रकार महाराजा कश्मीर जहां बम्बई में दर्द भरा निर्वासित जीवन जीनें को मजबूर हुए वहीं उनकें चिराग-ऐ –खानदान कर्ण सिंग कश्मीर के रीजेंट मात्र बनकर नेहरु और शेख अब्दुल्ला के षड्यंत्रों में एक मोहरा मात्र बनकर सत्ता के गलियारों में यहाँ वहां होते रहे.

कश्मीर के इतिहास हन्ता शेख अब्दुल्ला ने अपनी आत्मकथा आतिश-ऐ-चिनार में महाराजा कश्मीर हरिसिंग के सम्बन्ध में जो तथ्य बोये वो झूठ की एक कामयाब फसल बनकर पिछले छः दशकों से हमारें राष्ट्र की आँखों में धूल झोंक रही है. शेख अब्दुल्ला, जवाहरलाल नेहरू और माउंट बैटन द्वारा लगातार देश को यही बताया जाते रहा कि हरिसिंग कश्मीर के भारत विलय से सहमत थे ही नहीं जबकि स्थितियां ठीक इसके विपरीत थी और नेहरु के मिथ्याभिमान और शेख अब्दुल्ला के कश्मीर के प्रधानमन्त्री बननें के स्वप्न के लिए कश्मीर विलय की सच्ची गाथा को कभी देश के सामनें नहीं आनें दिया गया. नेहरु, शेख अब्दुल्ला और बैटन की तिकड़ी के इस षड्यंत्र नें केवल महाराजा कश्मीर हरिसिंग के साथ ही अन्याय नहीं किया बल्कि शेख की महत्वकांक्षाओं के चलते जम्मू को और विशेषतः समूची कश्मीर घाटी को आनें वालें दशकों के लिए विवादों के झंझावात में झौंक दिया! कश्मीर में बहुलता से निवास करनें वाले डोगरो को कश्मीर से भगानें हेतु शेख अब्दुल्ला मुस्लिम कांफ्रेंस के माध्यम से तरह तरह के षड्यंत्र रचते जा रहे थे. कश्मीर के भारत में विलय के लिए नेहरु ने तब बहुत ही छोटे से सुन्नी मुसलमानों के समूह का प्रतिनिधित्व करनें वाले शेख अब्दुल्ला को कश्मीर की सत्ता सौंप देनें की जिद हरिसिंग से की थी. इतिहास के झरोखों से आज भी बहुधा नेहरु की इस जिद के कारण ढूंढें जातें हैं और जवाब में बड़ी अजीब, अनसुलझी और अटपटी सी कहानियाँ सामनें आती है जिन्हें शालीनता वश यहाँ नहीं कहा सुना जा सकता है. महाराजा हरिसिंग को इस बात के लिए नेहरु का मजबूर करना बड़ा ही रहस्यमय था कि कश्मीर विलय का निर्णय महाराजा नहीं बल्कि शेख अब्दुल्ला करेंगे और वह भी तब जबकि कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की न तो कोई लोकतांत्रिक हैसियत थी और न ही उनकी कोई राजशाही थी. नेहरु अपनी इस कुचेष्टा में इस हद तक चले गए थे कि समूचे कश्मीर के ही भारत के हाथों से चले जानें के खतरे उत्पन्न हो गए थे. नेहरू कश्मीर को खो देनें तक की हद पर जाकर भी शेख अब्दुल्ला को कश्मीर की सत्ता सौंप देनें के अपनें कैकेयी हठ के लिए देश भर में आलोचना के भी शिकार हुए किन्तु उन्होंने अपना रूख नहीं बदला था. शेख अब्दुल्ला कश्मीर के शासक नहीं बल्कि राजा बननें के लिए तमाम प्रकार के षड्यंत्र करवा रहे थे. नेहरू को तो वे बड़ी ही शातिरी से उपयोग कर रहे थे क्योंकि वे जानते थे कि यदि वे आजाद कश्मीर के राजा बन भी गए तो भारत की सैन्य शक्ति के सहारे के बिना वे पाकिस्तानी हमलों से कश्मीर को नहीं बचा पायेंगे. शेख अब्दुल्ला की यही महत्वकांक्षा बाद में कश्मीर के मुख्यमत्री नहीं बल्कि प्रधानमन्त्री बननें के षड्यंत्र और धरा 370 के कुचक्र के रूप में प्रकट हुई. यदि नेहरु उस समय अब्दुल्ला के लिए इतनें और अनावश्यक दुराग्रही नहीं होते तो आज कश्मीर घाटी का परिदृश्य कुछ और ही होता. देर अबेर कर्ण सिंग को भी इस बात को स्वीकारना ही होगा कि यदि वे उस कठिनतम समय में अपनें पिता के साथ खड़े रहते और नेहरू की मृग मरीचिका में नहीं फंसते तो कश्मीर में डोगरो और पंडितों का वैसा हश्र नहीं होता जैसा इन अब्दुल्लाओं के कुचक्रों के कारण हो गया है. अब्दुल्लाओं के शासन काल में ही कश्मीर में अलगाववादी आन्दोलन आतंकवाद की अति तक जा पहुंचा और वे केवल कश्मीर को अपनी रियासत बना लेनें के मंसूबों को पालते हुए सब कुछ देखते रहे. नेहरु की गलतियों के लम्हें कश्मीर को दशकों तक रोते रहनें की सजा दे चुकें हैं और कर्ण सिंग भी नेहरु के चक्रव्यूह में ऐसे फंसे कि उससे कभी न निकल पाए और न ही कश्मीर के अपनें हो पाए.

इस कहानी का दुखांत यह हुआ था कि जब महाराजा कश्मीर अपनी प्रिय कश्मीरी जनता के हितों की लड़ाई लड़ रहे थे उधर नेहरु कश्मीर के भारत विलय को तब तक अनुमति नहीं दे रहे थे जब तक कि महाराजा हरिसिंग शेख अब्दुल्ला को कश्मीर की सत्ता नहीं सौंप देते. इस बीच महाराजा के अपनें पुत्र कर्ण सिंग ने भी अपनें पिता को “सामंतवादी खुरचन” जैसी क्रूर और अपमानजनक संज्ञा देते हुए नेहरु का दामन थाम लिया था. बाद में महाराजा हरिसिंग मुम्बई में निर्वासित और उपेक्षित जीवन किन्तु जीते हुए भी कश्मीर की जनता के लिए सतत चिंतित रहे दुखद मृत्यु को प्राप्त हुए थे.

कश्मीर पीड़ा की यह गाथा विलय की भी है और उसके बाद अब्दुल्लाओं के राज में कश्मीरी पंडितों को क्रूरता पूर्वक घाटी से खदेड़ देनें की भी है. इन गाथाओं का इतिहास भी बड़ा दर्दनाक और लंबा है अतः यहाँ इसका उल्लेख मात्र ही पर्याप्त है किन्तु अब संभवतः इतिहास कश्मीर के प्रत्येक इतिहास का हिसाब करनें को उत्सुक और उद्दृत है. इतिहास को वह इबारत भी स्मरण है जिसमें समृद्ध कश्मीरी पंडितों के घरों पर यह लिख दिया गया था कि वे जीवित रहना चाहतें हों तो अपनी बेटियों और सम्पतियों को छोड़ कर यहाँ से चले जाएँ. अब अजातशत्रु के भाजपा प्रवेश से इतिहास की एक परिक्रमा पूर्ण होगी यह आशा तो स्वाभाविक ही है.

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