अधिकार की दुविधा में इच्छामृत्यु

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-प्रमोद भार्गव-
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मजबूरी और मानवता की दुविधा में उलझी इच्छामृत्यु की मांग एक बार फिर चर्चा में है। वैसे दुनिया के प्राचीनतम ग्रंथों में केवल महाभारत में इच्छामृत्यु का उल्लेख है। घायल अवस्था में पड़े पितामह भीष्म तभी प्राणों का त्याग करते हैं, जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाते हैं। लेकिन उन्हें अपने प्राण छोड़ने के लिए किसी संसद या न्यायालय से अनुमति की जरूरत नहीं थीं, उनका प्राण वायु पर नियंत्रण था, गोया भीष्म स्ंवय सूर्य की अनुकूल स्थिति होने पर प्राण निकल जाने देंते हैं। उन्हें इस दिन का ज्यादा लंबे समय तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी थी, क्योंकि सूर्य अपनी प्रकृति के अनुसार हरेक 15 दिन में स्थिति बदलते हैं। लेकिन विधि की विडंबना देखिए कि अप्राकृतिक दुष्कर्म की शिकार एक महिला पिछले 41 साल से मूर्च्छित हालत में रहकर एक ऐसे दंड की सजा भोग रही है, जो उसने किया ही नहीं।

कर्नाटक के हल्दीपुर की 25 साल की युवती अरूणा रामचंद्र शानबाग मुंबई के केईएम अस्पताल में नर्स थी। 27 नबंवर 1973 की रात जब वह अस्पताल में अकेली ड्यूटी पर थी, तब अस्पताल के ही सोहनलाल बर्था नाम के सफाईकर्मी ने मौके का फायदा उठाकर उसे अपने शैतानी बाहुपाश में ले लिया। उसकी गर्दन कुत्ता बांधने की जंजीर के फंदे में कस दी। नतीजतन उसके मस्तिष्क की शिराओं में रक्त और प्राणवायु का प्रवाह थम गया। हवस का भेडि़या तो वासना की आग बुझाकर चलता बना, लेकिन अरूणा आज भी जीवन रक्षा प्रणाली के सहारे निष्क्रिय अवस्था में इसी अस्पताल के एक कमरे में पड़ी मौत का इंतजार कर रही है। उसकी निष्काम सेवा में पिंकी विरानी नाम की सहेली लगी है। वह एक ऐसी सखी की भूमिका पिछले चार दशक से निभा रही है, जिसकी सहेली स्वयं अपनी बात कहने व इशारों से समझाने में लाचार है। साथ ही पिंकी ने सर्वोच्च न्यायालय में इस आशय की अर्जी भी लगाई कि अरूणा का इलाज संभव नहीं है। लिहाजा उसे जीवन रक्षक प्रणाली से मुक्त करने की इजाजत दी जाएं, जिससे उसको कष्टों से छुटकारा मिले। लेकिन इच्छामृत्यु वैध है, या अवैध इसके अंतिम निष्कर्ष पर अदालत नहीं पहुंच पा रही। लिहाजा अदालत ने निष्क्रिय अवस्था में पड़े व्यक्ति की जीवन रक्षा प्रणाली हटाकर उसे मृत्यु का वरण करने की प्रक्रिया को कानूनी मन्यता देने का सवाल उठाते हुए सभी राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों को नोटिस जारी करके उनकी सलाह मांगी है। प्रधान न्यायाधीश आरएस लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय खंडपीठ ने इच्छामृत्यु पर विचार आमंत्रित करने के पक्ष में तर्क दिया है कि ‘यह मसला संविधान हीं नहीं, बल्कि नैतिकता, धर्म और चिकित्सा विज्ञान से भी जुड़ा है। इसलिए इस मुद्दे पर व्यापक विचार विमर्श के बाद ही अंतिम निर्णय लेना चाहिए।‘ इसके उलट केंद्र सरकार कहती है कि ‘यह एक तरह की आत्महत्या है, जिसकी अनुमति भारत में नहीं दी जा सकती। क्योंकि इच्छामृत्यु को कानूनी मान्यता दे दी गई तो इसका दुरूपयोग हो सकता है।‘ यह आशंका चिकित्सकों के पक्षपात एवं लेनदेन की प्रवृत्ति के कारण उपजी है। मानव अंगों के व्यापार के लिए भी लोग मूर्च्छित अवस्था में पहुंचे रोगियों की इच्छामृत्यु का बहाना करके इजाजत लेने लग जाएंगे। इस दृष्टि से दवा परीक्षण में भी हमारे चिकित्सक और अस्पताल लगे हैं।

इसके जबाब में संवीधान पीठ का तर्क है कि इसका दुरूपयोग रोकने के लिए सुरक्षा के उपाय होने चाहिए। लिहाजा अदालत ने याचिकाकर्ता से जानना चाहा है कि ‘जीवन का अंत करने के लिए सबसे कम पीड़ादायी कौन सा तरीका हो सकता है, क्योंकि दुनिया भर में इस पर बहस हो रही हैं, किंतु इस परिप्रेक्ष्य में किसी अंतिम निष्कर्ष पर आमराय नहीं बन रही है। गोया, अदालत ने कहा कि कानून का दुरूपयोग, इच्छामृत्यु को कानूनी दर्जा नहीं देने का आधार नहीं हो सकता। हालांकि विधी आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में इच्छामृत्यु को कानूनी मान्यता देने के विचार का विरोध किया है।

हालांकि अरूणा से जुड़ी याचिका पर ही सुनवाई करते हुए तब के न्यायाधीश मार्कंण्डेय काटजू की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने इच्छामृत्यु को गैरकानूनी करार देते हुए निरस्त कर दिया था। अदालत ने फैसले में दलील दी थी कि असामान्य परिस्थितयों में निष्क्रिय दयामृत्यु या इच्छामृत्यु की अनुमति दी जा सकती है, लेकिन जब तक संसद इस बारे में कोई कानून नहीं बनाती, तब तक निष्क्रिय और सक्रिय दोनों प्रकार की इच्छामृत्यों को अवैधानिक ही माना जाएगा। गैर स्वयंसेवी संगठन कॉमन कॉज की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने मार्कंण्डेय काटजू के फैसले को और स्पष्ट रूप से परिभाषित 25 फरवरी 2014 को दिए फैसले में कर दिया था। कहा गया कि ‘गरिमा के साथ जीने के अधिकार में, गरिमा के साथ मरने का अधिकार भी शामिल होगा।‘ लेकिन यह फैसला भी इच्छामृत्यु की वैधानिकता पर अंतिम निष्कर्ष तक नहीं पहुंचा था। जबकि कॉमन कॉज ने दलील दी थी कि ‘चिकित्सकों की राय में यदि कोई व्यक्ति ऐसी आसघ्य बीमारी से ग्रस्त है तो उसे जीवन रक्षक उपकरणों की मदद लेने से इंकार करने का अधिकार मिलना चाहिए। अन्यथा यह उसकी पीड़ा को ही लंबा खींचेगा।

जाहिर है, अरूणा का मामला नितांत संवेदनशील होने के बावजूद हमारी विधायिका और न्यायपालिका चार दशक में भी किसी अंतिम निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाए हैं। किसी मुद्दे के इतना लंबा खींचने के बावजूद अंतिम निष्कर्ष पर न पहुंचना हमारे लोकतंत्र की आधारभूत सरंचना में ऐसे विरोधाभासों का प्रगटीकरण हैं, जो यथास्थिति तोड़ने में सक्षम दिखाई नहीं देते। क्योंकि अरूणा की न्याय के लिए एक ऐसी मर्मस्पर्शी पुकार है, जो कानूनी अधिकार से कहीं ज्यादा भावना से जुड़ी है। इच्छामृत्यु का हक मांग करने की दुविधा की दहलीज पर पड़ी अरूणा दोहरी मार झेल रही है। पहले तो वह जघन्य दुष्कर्म की शिकार हुई, जिसके चलते जीने और मरने की विभाजक रेखा उसके लिए खत्म हो चुकी है। जबकि दुष्कर्मी सात साल की सजा भोगने के बाद स्वंतत्र है। यह हमारी तत्कालीन विधि-व्यवस्था और कमजोर दांडिक प्रावधानों का परिणाम था कि आरोपी तो रिहा हो गया, लेकिन फरियादी दंड भोग रहा है।

धर्म, संस्कृति, परंपरा, दर्शन और नैतिकता से जुड़ा यह मुद्दा निस्संदेह जटिल है। इसलिए इस पर एक राय बनना मुश्किल है। संविधान का अनुच्छेद-21 जीवन को गरिमापूर्ण जीने का अधिकार तो देता है, लेकिन उसमें गरिमापूर्ण मौत के वरण का अधिकार शामिल नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने 1996 में इसी संदर्भ में ज्ञानी कौर बनाम पंजाब सरकार के मामले में इसे पारिभाषित भी कर दिया है। तय है, स्वाभाविक मृत्यु के विपरीत मौत के अन्य तरीके दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 306 और 309 के दायरे में आते हैं, जिसे आत्मघाती अपराध माना जाता है। हमारे यहां असाध्य बीमारी, बेरोजगारी, गरीबी, कर्ज पारिवारिक समस्याओं और व्यवस्थाजन्य परेशानियों से निजात के लिए हर साल हजारों लोग आत्महत्या करते हैं। कई लोग तो इनमें ऐसे भी होते हैं, जो इन परेशानियों से मुक्ति के लिए जिलाधीश, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक को इच्छामृत्यु की अनुमति की मांग करने वाली अर्जी लगा देते हैं। जबकि इच्छामृत्यु और आत्महत्या दो जुदा विषय हैं। आईपीसी में इच्छामृत्यु को 302 और 304 के अंतर्गत माना है। इसे आत्महत्या की धारा 306 के साथ सहभागी अपराध भी माना है। लेकिन यह तालमेल केवल उस अवस्था में उचित है, जब एक स्वस्थ्य व्यक्ति निराशा के चरम को प्राप्त होकर इच्छामृत्यु की मांग कर रहा हो ? आत्महत्या की सहयोगात्मक धाराओं के साथ अरूणा जैसी लाचार की मांग को जोड़ कर नहीं देखा जा सकता है। क्योंकि उसके इलाज की सभी उम्मीदें खत्म हो गई हैं। पिछले बीते 41 साल से वह मृत्यु-सैय्या पर है। जबकि आत्महत्या एक ऐसी आत्मघाती प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति स्वयं को स्वयं के द्वारा मृत्यु की अवस्था में पहुंचता है।

इच्छामृत्यु के विवाद को अंतिम निराकरण तक पहुंचाना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में जीवन रक्षा की ऐसी प्रणालियां विकसित हो चुकी हैं, जो जीवन और मृत्यु की कड़ी को लंबे समय तक उलझाए रख सकती हैं। चिकित्सा क्षेत्र में निजीकरण ऐसे उपायों को और बढ़ावा दे रहा हैं। देश में यातायात से जुड़ी दुर्घटनाओं में ऐसे घायलों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो दशकों से मूर्छा में हैं। जीवन रक्षा प्रणाली के जरिए एक हद तक उनमें इतना प्राणवायु का संचार बना हुआ है कि वे न मरने में हैं और न ही जीने में। मूर्च्छित अवस्था वाले ऐसे रोगियों के उपचार से परिजन या तो कंगाल हो रहे हैं, या फिर मरीजों को ही अस्पताल में छोड़ इस लाइलाज पिंड से पीछा छुड़ा लिया है। परिजन ऐसा ही बर्ताव अवसाद में पगलाए व्यक्ति के साथ करते हैं। देश भर के बड़े अस्पताल और मानसिक रोग चिकित्सलायों में ऐसे मरीज आसानी से देखने को मिल जाते हैं। इसी विषय का विडंबनापूर्ण पहलू यह भी है कि इस तरह के उपचारों से जुड़े निजी अस्पताल बिना कोई चिकीत्सकीय इलाज के मालामाल हो रहे हैं। लिहाजा विधायिका और न्यायपालिका का संयुक्त दायित्व बनता है कि अधिकार की दुविधा में उलझी इच्छामृत्यु को वे कोई संवैधानिक समाधान निकालें। अन्यथा इस अवस्था को प्राप्त लोग देश के अस्पताल और परिजनों के लिए समस्या और बर्बादी का सबब बनते हीं रहेंगे।

3 COMMENTS

  1. इच्छामृत्यु पर,
    क़ानून बने या न बने,
    जीवन दायक सँयंत्र,
    निकाल कर,
    उसे मुक्ति दो…
    जो जीवित ही नहीं है
    उसे मरने तो दो!
    निर्भया तो चली गई,
    उसे भी जाने दो।
    दुरुपयोग तो,
    हर क़ानून का होता है,
    तो क्या हम,
    क़ानून बनाना ही छोड़ दे?

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