अंततः चर्चा में भूख

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डॉ राजू पाण्डेय
यह अत्यंत दुःखद है कि आजादी के 70 वर्ष बाद भी भूख और कुपोषण से मुकाबला करने में हम असफल रहे हैं, किंतु इससे भी अधिक खेदजनक यह है कि भूख को चर्चा के योग्य मानने के लिए हम सब देश की राजधानी  दिल्ली में तीन मासूम बच्चियों की भूख से हुई मौत जैसी घटना की प्रतीक्षा करते रहते हैं। देश की राजधानी में घटित होने के कारण संभवतः इन मौतों की न्यूज़ वैल्यू अधिक थी अन्यथा पूरे देश में हजारों बच्चे रोज भूख और कुपोषण से गुमनाम ही काल के ग्रास बन जाते हैं। यह देखना अत्यंत पीड़ाजनक है कि इस घटना पर हो रही बहसों में संवेदना कम और राजनीतिक अश्लीलता अधिक दिखाई देती है।
भूख और कुपोषण से हुई मृत्यु की यह घटना कोई अपवाद नहीं है। यह विकराल रूप धारण करती इन समस्याओं की एक अभिव्यक्ति भर है। भूख और कुपोषण से सम्बंधित आंकड़े चौंकाने वाले हैं। फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन की द स्टेट ऑफ फ़ूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड रिपोर्ट 2017 के अनुसार हमारी 14.5 प्रतिशत आबादी कुपोषित है।  देश में प्रतिदिन 19.7 करोड़ लोग भूखे सोते हैं। हमारे 5 वर्ष से कम आयु के 21 प्रतिशत बच्चे कम भार के हैं जबकि इसी आयु वर्ग के 38.4 प्रतिशत बच्चे स्टन्टेड हैं। देश में प्रत्येक 4 बच्चों में से एक कुपोषित है। हमारे देश में प्रतिदिन 3000 बच्चे पोषक आहार के अभाव में उत्पन्न होने वाली बीमारियों के कारण अपनी जान गंवा देते हैं। (भूख से होने वाली मौतों का अंतिम कारण कोई कुपोषणजन्य बीमारी ही होती है जो कमज़ोरी और प्रतिरोध क्षमता की कमी के कारण लाइलाज बन जाती है और निर्लज्ज प्रशासन तंत्र को यह बेतुकी सफाई देने का अवसर प्रदान करती है कि मौत का कारण भूख नहीं बल्कि बीमारी है।)  पूरे विश्व में 5 वर्ष से कम आयु के बालकों की होने वाली मौतों की 24 प्रतिशत मौतें भारत में होती हैं जबकि पूरी दुनिया में होने वाली नवजात बच्चों की मौतों में हमारी 30 प्रतिशत हिस्सेदारी है।
इंटरनेशनल फ़ूड पालिसी रिसर्च सेंटर द्वारा तैयार ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट 2017 में 119 विकासशील देशों में हमारा स्थान 100 वां रहा है। इस रिपोर्ट में चीन(29),नेपाल(72), म्यांमार(77)श्रीलंका(84) और बंगलादेश(88) जैसे हमारे पड़ोसियों का प्रदर्शन हमसे बेहतर रहा है। पूरी दुनिया भुखमरी में 27 प्रतिशत कमी लाने में सफल रही है किंतु हमारे देश में कमी की यह दर केवल 18 प्रतिशत है।
भूख और कुपोषण के बढ़ते मामलों और इनसे निपटने में सरकारों की अक्षमता ने सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों को न्यायालय की शरण में जाने के लिए बाध्य किया है। 1996 में चमेली सिंह विरुद्ध उत्तर प्रदेश राज्य प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने फैसला दिया कि किसी भी सभ्य समाज में प्रदान किया जाने वाला जीवन का अधिकार स्वयं में भोजन, पानी, आवास और स्वास्थ्य सुविधा के अधिकारों को समाहित करता है। पीयूसीएल विरुद्ध भारत सरकार मामले में 23 जुलाई 2001 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वृद्धों, शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर तथा विकलांग जनों, निराश्रित महिलाओं, पुरुषों एवं बच्चों को भुखमरी का खतरा सर्वाधिक होता है। हमारी दृष्टि में यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि इन्हें भोजन मिले। इसी प्रकार गर्भवती और स्तनपान कराने वाली वाली माताएं तथा उनके बच्चे( विशेषकर उन परिस्थितियों में जब उनका परिवार इतना निर्धन होता है कि भोजन का प्रबंध नहीं कर सकता) भूख और कुपोषण के शिकार होते हैं। इन्हें भोजन देना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। हमारे देश में पर्याप्त अन्न उपलब्ध है किंतु इसका वितरण अत्यंत निर्धन और निराश्रित लोगों के मध्य नहीं हो पाता जिसका परिणाम भुखमरी, कुपोषण एवं अन्य समस्याओं के रूप में सामने आता है। विगत डेढ़ दशक में आसानी से स्मरण किए जा सकने वाले कम से कम ऐसे दर्जन भर मामले हैं जिनमें न्यायालय ने सरकारों को भूख से निपटने में लापरवाही बरतने के लिए फटकार लगाई है और निर्धनतम व्यक्ति को केंद्र में रखकर खाद्यान्न उपलब्ध कराने की योजनाएं बनाने और उनका क्रियान्वयन करने हेतु आदेशित किया है। कई बार सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसलों के क्रियान्वयन पर निगरानी रखने हेतु कमिश्नर भी नियुक्त किए हैं। किंतु इस ज्यूडिशियल एक्टिविज्म से स्थिति में कोई बदलाव आया हो ऐसा नहीं लगता। बहुचर्चित खाद्य सुरक्षा कानून 2013 के विषय में यह कहा गया था कि यह देश की दो तिहाई आबादी को खाद्य एवं पोषण सुरक्षा प्रदान करेगा किन्तु ऐसा हो नहीं पाया अपितु ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हम 2016 की 97 वीं रैंकिंग से फिसलकर 2017 में 100 वें स्थान पर आ गए। भारत के प्रदर्शन में गिरावट के लिए चाइल्ड वेस्टिंग(ऊंचाई के अनुसार वजन में कमी) तथा चाइल्ड स्टंटिंग(आयु के अनुसार ऊंचाई में कमी)को उत्तरदायी माना गया। इससे यह सिद्ध होता है कि हम पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों और गर्भवती तथा स्तनपान कराने वाली माताओं को पोषक आहार देने में असफल रहे हैं। 2016 में ही स्वराज अभियान विरुद्ध भारत सरकार मामले में यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया कि भारत की 40 प्रतिशत आबादी अर्थात 54 करोड़ लोग सूखे की चपेट में हैं और हम उन्हें खाद्य सुरक्षा देने में असफल रहे हैं। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि सरकार भुखमरी और कुपोषण दोनों से निपटने में नाकाम रही है। केंद्र सरकार के उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने हाल ही में बताया कि 2013-14 से 2017-18 की अवधि में एफसीआई के गोदामों में रखा 57676 टन अनाज रखरखाव की खामियों के कारण खराब हो गया। यूएनडीपी के आंकड़ों के अनुसार हमारे द्वारा उपजाए गए खाद्य पदार्थों का 40 प्रतिशत व्यर्थ नष्ट हो जाता है।
( जिसका मूल्य हमारे ही कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 50000 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष होता है।)
सुप्रीम कोर्ट ने स्वराज अभियान मामले में कहा कि भोजन का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है किंतु यदि यह कानूनी अधिकार भी है तब भी सरकारों का यह उत्तरदायित्व बनता है कि सब को पर्याप्त मात्रा में अनाज उपलब्ध कराया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि तत्काल राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के क्रियान्वयन में लगे तंत्र को सर्वसम्बंधितों द्वारा सुधारा नहीं गया तो सामाजिक न्याय लाने के ध्येय से निर्मित कानून ही व्यर्थ और अर्थहीन हो जाएंगे।
भुखमरी और गरीबी से मुकाबला करने के नाम पर चलाई जा रही योजनाओं की सूची बहुत लंबी है। केंद्र सरकार में राज्य मंत्री(योजना) राव इंद्रजीत सिंह ने नवंबर 2016 में राज्य सभा को एक प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया कि  महात्मा गाँधी रोजगार गारंटी योजना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम, मध्यान्ह भोजन योजना, समन्वित बाल विकास कार्यक्रम तथा अन्नपूर्णा योजना आदि योजनाएं गरीबी और भुखमरी उन्मूलन हेतु चलाई जा रही हैं।
अनामिका सिंह(निदेशक, पोषण तथा महिला एवं बालविकास, नीति आयोग) ने भारत के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद उठाए गए कदमों की जानकारी देते हुए अक्टूबर 2017 में बताया कि राष्ट्रीय पोषण अभियान प्रारंभ किया जा रहा है। पोषण के पैमाने पर अत्यंत पिछड़े 113 जिलों की पहचान कर इनकी स्थिति सुधारने हेतु युद्ध स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं। समन्वित बाल विकास कार्यक्रम के क्रियान्वयन हेतु 1.1 लाख आंगनबाड़ी केंद्रों का निर्माण किया गया है। पूरक पोषण नियम 2017 को अधिसूचित किया गया है। समन्वित बाल विकास कार्यक्रम तथा मध्यान्ह भोजन योजना के भोजन को सूक्ष्म पोषक तत्व तथा विटामिन के योग द्वारा अधिक पौष्टिक बनाया जा रहा है। सरकार ने कुपोषण से मुकाबला करने हेतु अगले 3 वर्ष के लिए 12000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त फण्ड दिया है।
किन्तु दिल्ली में हुई घटना यह दर्शाती है कि इन योजनाओं का क्रियान्वयन और प्रचार प्रसार अभी भी अपेक्षित गंभीरता से नहीं किया जा रहा है। मृतक बच्चियों में आठ वर्षीय मानसी पूर्वी दिल्ली नगरनिगम बालिका विद्यालय मंडावली में तीसरी कक्षा में पढ़ती थी जबकि शिखा और पारो की आयु क्रमशः चार और दो वर्ष की थी। पढ़ने में मेधावी मानसी की स्कूल में उपस्थिति अनियमित और क्षीण थी। चाइल्ड वेलफेयर कमेटी के पूर्व चेयरपर्सन राजमंगल प्रसाद के अनुसार स्कूल के शिक्षकों का मानसी की अनियमित उपस्थिति को गंभीरता से न लेना और इसका कारण जानने का प्रयास न करना गंभीर अनियमितता की श्रेणी में आता है। उनके अनुसार यह बालिकाएं और उनका परिवार इंटीग्रेटेड चाइल्ड प्रोटेक्शन स्कीम(स्पांसरशिप स्कीम और फॉस्टर केअर प्रोग्राम) तथा इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज एवं टार्गेटेड पीडीएस स्कीम के तहत लाभ पाने का अधिकारी था। किंतु इस परिवार के घर के कुछ ही फीट दूर स्थित आंगनबाड़ी केन्द्र के कार्यकर्ता अपना दायित्व निभाने में असफल रहे। इस परिवार का राशनकार्ड भी नहीं बन पाया था। इन बच्चियों की माता मानसिक रूप से अस्थिर है और इनका पिता भी परिवार से दूर रहा करता था और कुछ मीडिया रिपोर्टों के अनुसार उसे शराब की लत भी थी। इस प्रकार यदि सरकारी तंत्र का कोई नुमाइंदा या किसी गैर सरकारी संगठन का कोई कार्यकर्ता इन तक पहुंचता तो इन बच्चियों और इनके अभिभावकों को इलाज और काउंसलिंग की सुविधा मुहैया कराए जा सकते थे। इंडियन एक्सप्रेस की 27 जुलाई 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार मानसी के बैंक एकाउंट में 1800 रुपए भी जमा थे जो संभवतः यूनिफार्म और पुस्तकें खरीदने हेतु सहायता राशि के रूप में स्कूल द्वारा जमा कराए गए थे। मानसी के परिवार को एटीएम कार्ड भी उपलब्ध कराया गया था। किन्तु असहायता की जिस चरम स्थिति में यह परिवार था वहां उसे बैंक बैलेंस से अधिक भौतिक सहायता की आवश्यकता थी।
यह पूरा घटनाक्रम एक आत्ममुग्ध और असंवेदनशील तंत्र का चित्र खींचता है। यहां वेतन और अन्य सेवा लाभों के लिए बारंबार आंदोलित होते कर्मचारी हैं जो अपने कर्तव्यपालन को निर्धन जनता पर किए उपकार के रूप में देखते हैं। जिन असहाय, गरीब और वंचित लोगों की सेवा हेतु इन्हें रखा गया है वे इन्हें अनावश्यक भार स्वरूप लगते हैं। इस तंत्र में इन लापरवाह और बेपरवाह धृष्ट छोटे कर्मचारियों पर निगरानी रखने वाले उच्चाधिकारी भी हैं जो अपने राजनीतिक आकाओं को प्रसन्न करने और प्रत्येक संभव रास्ते से धन कमाने में अपनी पूरी योग्यता लगा रहे हैं। इस तंत्र के शिखर पर राजनेता गण हैं जो भूख से हुई मौतों को वोटों में परिवर्तित करने की कोशिश में घटिया आरोप- प्रत्यारोपों का खेल खेल रहे हैं। ये सब परग्रही प्राणी नहीं हैं। यह हमारे और आपके बीच के ही लोग हैं -ये हम में से ही हैं- ये हम ही हैं। ये हम लोग ही हैं जिन्हें अपने पड़ोस में, अपने आस पास किसी भूख से मरते व्यक्ति को देख कर कोई पीड़ा नहीं होती। न ही हम शर्मिंदा होते हैं कि हम उस सरकार और समाज का हिस्सा हैं जो अपने नागरिकों को दो वक्त का भोजन तक उपलब्ध कराने में असमर्थ है। समय समय पर देश पर शासन करने वाले राजनीतिक दल अपने अपने प्रिय आदर्श नेताओं को उद्धृत कर यह दावा करते रहते हैं कि अंत्योदय की संकल्पना पर सिर्फ और सिर्फ उनका ही विशेषाधिकार है किंतु स्थिति यह है कि पिछले साल भारत में उत्पन्न कुल सम्पदा का 73 प्रतिशत भाग केवल 1 प्रतिशत लोगों की तिजोरी में चला गया और देश के 67 करोड़ लोगों की संपत्ति में केवल एक प्रतिशत की वृद्धि हुई। जब तक निर्धनता उन्मूलन और आर्थिक-सामाजिक समानता के आदर्श भाषणों और चुनावी वादों तक सीमित रहेंगे तब तक भूख से लड़ाई महज एक औपचारिकता बनी रहेगी।

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