भारत भवन का हर ईंट कह रहा- स्वागत है भूरी बाई

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मनोज कुमार

40वीं वर्षगांठ मना रहे भारत भवन की देहरी में खुशियों ने एक फिर दस्तक दी है. ये खुशी कुछ-कुछ अनायस है और कुछ सायस. साल-दर-साल अपना वैभव खोते भारत भवन एक बार फिर चर्चा में है तो इसलिए कि उसने अपने उस कलाकार को पाहुना बनाया है जिसने कभी इसी भारत भवन में ईंट-गारा उठाने का काम किया था. इस पाहुना का नाम है भूरी बाई. भूरी बाई को आज पूरा भारत जानने लगा है. यह स्वाभाविक भी है कि फर्श से अर्श तक पहुंचने वाली भूरी बाई के हिस्से उसके भीतर बसे कलाकार ने उसे ऊंचाई दी. कभी ईंट-गारा ढोने वाली भूरी बाई के नाम के साथ पद्मश्री जुड़ गया है.


भूरी बाई को पद्म सम्मान मिलना मध्यप्रदेश के लिए गौरव की बात है. मध्यप्रदेश की छाप एक उत्सवी राज्य के रूप में रही है. इसी राज्य की पहचान भारत भवन भी है. दुनिया में भोपाल की एक पहचान कला गृह भारत से है.एक संस्था के लिए, खासतौर पर जिसकी तूती दुनिया भर में बोलती थी, उसके लिए 40 साल का सफर बहुत मायने रखती है. भूरीबाई को मिले पद्म सम्मान और उसे घर का पाहुना बनाकर बुलाने की यह रस्मअदायगी खूबसूरत है. दिल को छू लेने वाली है. हालांकि यह नहीं भूलना चाहिए कि एक समय था जब राजनीति में चमकने के लिए भारत भवन में हस्तक्षेप करना भी जरूरी माना जाता था. भारत भवन में जमने और जमाने की राजनीति पुरानी हो गई और आहिस्ता-आहिस्ता भारत भवन किनारे कर दिया गया. कभी विवादों से भारत भवन का चोली-दामन का रिश्ता था. अखबार और पत्रिका की सुर्खियों में भारत भवन हुआ करता था. अब वह महज एक आयोजक संस्था के रूप में अपनी पहचान रखता है.
यह संजोग है कि भारत भवन का 40वां वर्षगांठ और उस भवन के हर ईंट पर भूरी बाई की समायी यादें. दोनों के लिए यह वक्त बेमिसाल है. भारत भवन की एक-एक ईंट अपनी उस कलाकार का बेसब्री से इंतजार कर रही है जिसने कभी खाली समय में ईंट के टुकड़ों से मन में डूबती-उतरती रेखाओं को आकार दिया करती थी. तब किसी को इस बात का इल्म भी नहीं था कि ईंट के टुकडों से चित्र को आकार देने वाली भूरीबाई कला आसमां का सितारा बनकर चमकने लगेगी. लेकिन ऐसा होना था क्योंकि जौहरी ही हीरे की पहचान रखता है. कला गुरु जगदीश स्वीमनाथन केवल भारत भवन को आकार देने वाले लोगों में नहीं थे बल्कि वे हर उस हुनरमंद को स्पेस देने लिए तलाश कर रहे थे जो उनकी कसौटी पर खरा उतरे. इन्हीं में एक भूरीबाई थी. स्वामीनाथन एक दूरदर्शी कला पारखी थे और उन्होंने भूरी बाई की कला समझ को देखा और जो भूरी बाई चित्र बनाती थी उसे स्वामीनाथन ने कलाकार बना दिया. कलाकार और कला गुरु के इस अनाम ने रिश्ते ने भारत भवन को अलहदा बनाया.
यह सारा वाकया 80 के दशक का है. आज से कोई 40 साल पहले जब घनघोर आदिवासी इलाके से रोजी-रोटी की तलाश में भोपाल आया था. तब भारत भवन उनके लिए एक बिल्डिंग से ज्यादा कुछ न था. उन्हें तब इस बात की तसल्ली थी कि चलो, यहां काम तो मिला लेकिन तकदीर का लेखा था कि खरामा-खरामा भूरी बाई की कला परवान चढ़ती गई और इसी कला ने उसे आम से खास बना दिया. पद्म सम्मान से सम्मानित भूरीबाई. भूरी बाई के अतीत में थोड़ा सा झांकना होगा. जब ऐसा करेंगे तो पाएंगे कि भूरी बाई का जीवन इतना सहज नहीं था. भारत भवन मजदूरी करने गई तो उसे 6 रुपये मजदूरी मिलती थी. तब स्वामीनाथन जी ने उन्हें दस रुपये दिए। भूरी बाई को यकीन ही नहीं हो रहा था कि कोई 6 के बदले दस रुपये दे सकता है और वह भी चित्र बनाने के. भारत के अलावा राष्ट्रीय मानव संग्रहालय और वन विहार भी निर्माण की स्थिति में था तो कभी वहां भी मजदूरी करने भूरी बाई चली जाती थी. इन दोनों जगहों में मजदूरी तो मिली लेकिन पारखी गुरु भारत भवन में ही मिला. चित्र बनाने के एवज में दस दिन की मजदूरी 150 रुपये लेकर पहली बार घर पहुंची तो महाभारत हो गया. पति को लगा कि इतने पैसे कैसे मिल सकते हैं? घर के दूसरे लोगों ने भी ऐतराज जताया. यहां फिर गुरु स्वामीनाथन खड़े थे. पति को भारत भवन में चौकीदार बना दिया, इस हिदायत के साथ कि वह पत्नी भूरी बाई की भी चौकीदारी करे.
खैर, वह समय गुजर गया. भूरी बाई अपनी पेंटिग के बारे में बताती हैं कि गोंड पेंटिंग में रेखाओं का इस्तेमाल बहुतायत में होता है। गेरू, नील जैसे रंगों से मैं बचपन से घर की दीवारों को रंगती थी। आस-पास का जीवन मेरी पेंटिंग में उतर आता है। यही चटख रंग मेरी पेंटिंग में उतर आता है। भूरीबाई की चित्रों में जो चटख रंग है, आज उसकी जिंदगी को रंगीन बना रहे हैं. मध्यप्रदेश शासन का शिखर, सम्मान, देवी अहिल्या सम्मान सम्मानित सात समुंदर पार भी भीली चित्रकार के रूप में भूरी बाई जानी जाती हैं. मुझे याद आता है कि तब दूरदर्शन भोपाल के पाहुना प्रोग्राम में इंटरव्यूय के लिए भूरी बाई को साथ ले गया था. उसके चेहरे पर इतनी चमक थी कि लाईट रिफलेक्ट कर रही थी. तब पावडर से चेहरे की चमक को कुछ कम कर प्रोग्राम रिकार्ड किया गया. बाद के दिनों में उन्हें स्कीन की समस्या हो गई थी. तब कला अध्येता और भूरी बाई के साथ ही पद्म सम्मान से नवाजे जाने वाले कपिल तिवारी ने मदद कर उन्हें नयी जिंदगी दी.
भूरी बाई जिस परिवेश से आती है, वहां और उसके लिए कोई सम्मान मायने नहीं रखता है. यह जनपदीय समाज है जो सम्मान से कला को तौलता है. यकिनन मध्यप्रदेश शासन के शिखर सम्मान से नवाजे जाने के बाद अपनी कला में मगन लोगों ने भूरी बाई को बिसरा दिया था. 40 साल के इस पूरे दौर में कोई दो दशक से भूरी बाई हाशिये में भले ही ना हो लेकिन पद्मश्री से सम्मानित होने के बाद जिस तरह उन्हें हाथों-हाथ लिया जा रहा है, वह मौका तो शायद मध्यप्रदेश शासन के सर्वोच्च कला सम्मान मिले जाने के बाद ही आया हो. अब चर्चा इसलिए भी स्वाभाविक है कि जिस पद्म सम्मान को पाने के लिए लोग तरस जाते हैं, वह पद्म सम्मान उन्हें लेने आया था. भूरी बाई की सादगी लोगों का मन मोह लेती है. इनकी जिंदगी कितनी सहज और सरल है, यह जानना है तो शम्पा शाह की लिखी उस पंक्तियों को भी स्मरण में रखें जब वे लिखती हैं कि-जब भूरीबाई को लोगों ने बताया कि उन्हें शिखर सम्मान मिला है तो वह अपने पति जोहरसिंह से कहती हैं-घर पर तो सब सामान है, फिर ये क्या दे रहे हैं? बमुश्किल उन्हें समझाया गया कि यह समान नहीं, सम्मान है. ये सादगी हर उस कलाकार की होती है जो जमीन से जुड़ा होता है. यह सादगी उनकी कला में बसती है और आज इसी सादगी की प्रतिमूर्ति भूरी बाई को पाहुना बनाकर भारत भवन स्वयं को धन्य समझ रहा होगा. होना भी चाहिए.

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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