पोटली में रुपया

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Stacks of coins with the letters GST isolated on white background

-अमित राजपूत-

Stacks of coins with the letters GST isolated on white background

आज जहां पैसों को पानी की तरह बहाया जा रहा है, उसके पर्दे की वो प्रथा समाप्त हो गयी जिसके रहते लोग पैसों से कभी साध्य की तरह व्यवहार नहीं करते थे, आज भिखारी भी एक का सिक्का स्वाभिमान में वापस कर देता है। आज के समय में जहां किसी दुकान से कुछ सामान ख़रीदने के बाद बचे एक-दो रुपयों को वापस मांगना जैसे शर्म या हैरानी न हो कभी-कभी बलात् समझा जाने लगा है, जहां एक अभिनेत्री अपने एक विशेष नृत्य के लिए करोड़ों की मांग करती है और किसी के मुक्कों दर मुक्कों व हर चौके-छक्कों पर करोड़ों न्यौछावर कर दिये जाते हैं, इसके बरक्स यह भी है कि चलती राह में लगी ठेंस से टूटी चप्पलों को एक मोची मात्र रुपया भर दाम लेकर शौक से उस चप्पल में एक कील ठोंक कर उसे दुरुस्त कर देता है, जिससे राहगीर की न सिर्फ़ आबरू दुरुस्त होती है बल्कि उसे मार्ग पर चलने में सहूलियत भी महसूस होती है। अब फर्ज़ कीजिये की उस राहगीर केलिए उस दौरान उस रुपया की क्या कीमत रही होगी और वो उसे कितनी उपयोगिता से ख़र्च कर पायाहोगा। एक टॉक-शो धारावाहिक ‘सत्यमेव-जयते’ में सोना महापात्रा स्वानंद किरकिरे का एक गीत गाती हैं “मुझे क्या बेचेगा रुपइया….।” अर्थात् अगर उस एक रुपइया यानी रुपया में ताक़त न होती तो वो उसके बेचने की बात न कहतीं। माने कि वह रुपया किसी की हैसियत तक को बेचने का माद्दा रखता है।  इससे साफ़ होता है कि रुपया में बड़ी ताक़त है, यदि उसका सही तरह से संचय, सही समय पर उपयोग और सहीं चीज़ के लिए व्यय हो तो। इस तरह से एक रुपया हमारे लिए बहुत उपयोगी होता है और हम काफी कुछ इसकी सहायता से बदल सकते हैं, अग़र हमारे जेब में एक रुपया भी हो तो…।

बेपरवाह चिलचिलाती धूप की परवाह न करते हुए हल्की उड़ती धूल के बीच श्रम-स्वेद की कुछ चमकती हुयी बूंदों को अपने माथे पर उठाकर सुकून की पालती लगाकर एक बेनाम कामगार अपने काम में तल्लीन बैठा है। ये दिल्ली के आनन्द विहार अंतर्राज्यीयबस अड्डा के 83-84 नम्बर के स्टैण्ड का माजरा है। वो चुपचाप अपने काम में लगा हुआ शायद कोई गीत सा गुनगुना रहा था। उसके पास ख़ुद की अपनी एक चलती-फिरती छोटी सी दुकान थी, घड़ी की दुकान। इसमें वो हर तरह की घड़ियों को रखता है, यानी आज के बाज़ार को देखते हुए एक ख़रीददार को पर्याप्त च्वाईश मिल जाती है इसकी इस चलती-फिरती छोटी सी दुकान में। दुकान भी मानो ऐसी कि पूरी की पूरी दुकान उसकी हथेली में ही आ जाती है। लम्बे समय से वो एक किनारे बैठा अपनी रूमाल में अपनी सारी घड़ियां डाल कर उन्हें एक-एक करके अपनी उंगलियों में कायदे से संजो रहा था। पहले कई घड़ियों की वो एक चेन बनाता फिर उसे एक उंगली में डालता और इसके बाद उसके ऊपर चेन के ऊपर चेन डालता चला जाता। यही क्रम वो अपनी सभी उंगलियों के लिएदोहराता। ऐसे करते हुए उसने सैकड़ों घड़ियां अपनी उंगलियों में ही फंसा लीं। उसे अपनी इस छोटी सी दुकान के लिए किसी ज़मीन की ज़रूरत न थी और न ही किसी स्थाई औपचारिक प्रतिष्ठान की ही। वो मात्र एक फेरी वाला है।

मैं उसे तब से ही देख रहा था, जब से वो जाकर ज़मीन के उस कोने में बैठा था। अब तक मैं कई जिज्ञासाओं से भर चुका था। आवाज़ लगा दी मैने-“अरे, फेरी वाले भइया…! क्या हम आपस में कुछ देर बात कर सकते हैं क्या..?”

“का होई हो भाई अपस मा बात कइके। जेतनी देर हम तुमसे बतियाबे ओतनी देर हम कउनों ग्राहक से बात कई लेबे तो हमका रुपिया खांड़ कुछ मिल जाई, कुछ कमा लेबे हम।” उसका फौरन जवाब था।

उसके मुंह से निकले रुपिया शब्द ने मुझे और ज़्यादा उत्सुक कर दिया कि मैं उससे बात अवश्य करूं, क्योंकि देर से बैठा मैं यही सोच रहा था कि इस भागमभाग, महत्वाकांक्षी और प्रतियोगिता भरी ज़िन्दगी में भला इतने में कमा कर कोई कैसे रह सकता है, वरन् कोई अच्छे से जीवन यापन ही भला कहां कर सकता है। सो मैंने तपाक से उससे यही पूछा- “क्या तुम मात्र रुपया ही कमाना चाहते हो..?”

“जी नहीं, रुपया बचाना चाहता हूं बाबूजी।” उतना ही फौरी उसका जवाब था।

“रुपया में तो अब ताक़त रह नहीं गयी है मियां, फिर भला तुम रुपया भर से क्या बनाओगे!” मैने उससे और अधिक जानने के लिए उसे छेड़ा।

“बनाने की तो बात ना ही कीजिएगा बाबू जी, मैने तीन-तीन घर बना दिए हैं और दो घरों की नीव रख रहा हूं।” मुझे लगा वो मेरी बातों को नाजायज समझ रहा है। सो फिर मैने उसके निजी जीवन के बारे में जाना तो पता चला कि वो पटना के आसपास के गांव का रहने वाला है और उसने मात्र सातवीं तक की ही पढ़ाई की है और उसको पास करने के तुरंत बाद ही वो दिल्ली चला आया था। नाम पूछने पर वो कहता कि घर पे लोग ‘बोलबम’ कहते हैं और दिल्ली में तो हर कोई उसे फेरी वाला या लड़कियां फेरी वाले भइया कह देती हैं।

मैने उसे अब सहज पाकर दोबारा पूछा कि वो तीन-पांच घरों वाली बात कैसी है। उसने मुझे बताया कि“बाबूजी जब से मैं घर से बाहर कमाने केलिए निकला हूं आज छब्बीस बरस की उमर तक में तीन बहनों की शादी करके उनको उनके घर-द्वार का कर दिया हूं और दो छोटे भाई हैं, जिनमे एक का अबकी बीए में और दूसरे का नौवीं में दाखिला कराया हूं।और ये सब ऐसे ही हो पाया कि मैं रुपया-रुपया जोड़ता रहा और अंत में मुझे उस रुपया कि ताक़त का अंदाज़ा हो गया है। दूसरों के लिए रुपया हाथ की मैल हो, चाहे ऐश का सामान, पर मेरे लिए तो अगर मेरी पॉकिट में रुपया है तो मैं अपने को मज़बूत समझता हूं, और उम्मीद में रहता हूं कि इससे एक घर फिर बनेगा।”

चलते-चलते मैने उससे मज़े में पूछा कि अग़र आज तुम्हारे पास मात्र एक रुपया हो और वो सबसे ख़ास हो तो तुम उसे कैसे अधिकतम उपयोग में लाओगे?

मज़ेदार ही उसका जवाब आया कि “बाबूजी अग़र वो आख़िरी रुपया ही हो तो मैं उससे एक छोटा-गोला भांग ख़रीदुंगा, क्योंकि मंहगाई चाहे जहां चली जाए भांग का दाम अभी तक औकात में है, मैं भांग खाकर आराम फरमाउंगा और उड़ती खटिया से ही अनुभव करुंगा कि मैं अपने रुपया के दम पर ही आज आकाश में तैर रहा हूं। अब जिसे भी आकाश छूना हो तो बस, पोटली में रुपया काफ़ी है।

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अमित राजपूत
जन्म 04 फरवरी, 1994 को उत्तर प्रदेश के फ़तेहपुर ज़िले के खागा कस्बे में। कस्बे में प्रारम्भिक शिक्षा के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आधुनिक इतिहास और राजनीति विज्ञान विषय में स्नातक। अपने कस्बे के रंगमंचीय परिवेश से ही रंग-संस्कार ग्रहण किया और इलाहाबाद जाकर नाट्य संस्था ‘द थर्ड बेल’ के साथ औपचारिक तौर पर रंगकर्म की शुरूआत की। रंगकर्म से गहरे जुड़ाव के कारण नाट्य व कथा लेखन की ओर उन्मुख हुए। विगत तीन वर्षों से कथा लेखन व नाट्य लेखन तथा रंगकर्म के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों में सक्रिय भागीदारी, किशोरावस्था से ही गंगा के समग्र विकास पर काम शुरू किया। नुक्कड़ नाटकों व फ़िल्मों द्वारा जन-जागरूकता के प्रयास।

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