नमामि गंगे अभियान की असफलता

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 संदर्भः नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट का खुलासा-

प्रमोद भार्गव

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सर्वोच्च प्राथमिकता वाली ‘नमामि गंगे‘ परियोजना नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट के अनुसार जिस दुर्दशा को शिकार हुई है, वह आश्चर्य में डालने वाली स्थिति की बानगी है। कैग ने आॅडिट रिपोर्ट में खुलासा किया है कि केंद्र सरकार स्वच्छ गंगा मिशन के लिए आवंटित धनराशि के एक बड़े हिस्से का उपयोग ही नहीं कर पाई है। कैग का यही निष्कर्ष  निकलना था, क्योंकि सफाई अभियान चलाने के बावजूद गंगा की वही हालत है, जो पहले थी। मोदी कार्यकाल के साढ़े तीन साल बीत जाने के बाद भी गंगा सफाई मुहिम लक्ष्य की ओर बढ़ती नहीं दिखी तो साफ है आने वाले डेढ़ साल में भी कोई सार्थक परिणाम दिखने वाले नहीं हैं। इस अभियान के परिप्रेक्ष्य में अब तक किसी ठोस नीति का सामने नहीं आना इस बात को दर्शाता है कि केंद्र सरकार और नरेंद्र मोदी सफाई के प्रति मंचों से जितनी प्रतिबद्धता जता रहे हैं, उतने गंभीर नहीं हैं। कमोबेश यही मानसिकता राज्य सरकारों और स्वायत्त निकायों की है। यही कारण है कि अब तक गंगा सफाई के जितने भी अभियान चले हैं, जमीनी धरातल पर नाकाम रहे हैं।

लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी का वादा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का महत्वाकांक्षी स्वप्न गंगा को स्वच्छ कर उसकी जलधार को अविरल बनाना था। इस नाते 2016 में  एक व्यापक अभियान को उत्सवधर्मिता के साथ क्रियान्वित करने का श्रीगणेश भी हुआ था। तब उम्मीद बंधी थी कि ‘नमामि गंगे‘ परियोजना के भविष्य में सार्थक परिणाम निकलेंगे ? केंद्र के वित्त पोषण से शुरू हुई यह योजना भारतीय सभ्यता, संस्कृति और आजीविका की जीवन रेखा कहलाने वाली गंगा का कायाकल्प कर इसका सनातन स्वरूप बहाल करेगी ? लेकिन कैग की रिपोर्ट ने साफ कर दिया है कि ये बातें और वादे महज जनता को मुगालते में रखने का बड़बोलापन था। हालांकि इस योजना को निरापद और निर्बाध रूप से अमल में लाने के परिप्रेक्ष्य में कुछ आशंकाएं पहले भी थीं, जिन पर कैग ने तस्दीक की मोहर लगा दी है। दरअसल  गंगोत्री से गंगासागर का सफर तय करने के बीच में गंगा जल को औद्योगिक हितों के लिए निचोड़कर प्रदूषित करने में चमड़ा, चीनी, रसायन, शराब और जल विद्युत परियोजनाएं सहभागी बन रही हैं। उन पर गंगा सफाई की इस सबसे बड़ी मुहिम में न तो नियंत्रण के व्यापक उपाय दिख रहे थे और न ही बेदखली के ?

गंगा सफाई की पहली बड़ी पहल राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल में हुई थी। तब शुरू हुए गंगा स्वच्छता कार्यक्रम पर हजारों करोड़ रुपए पानी में बहा दिए गए, लेकिन गंगा नाममात्र भी शुद्ध नहीं हुई। इसके बाद गंगा को प्रदुषण के अभिशाप से मुक्ति के लिए संप्रग सरकार ने इसे राष्ट्रीय नदी घोषित करते हुए, गंगा बेसिन प्राधिकरण का गठन किया, लेकिन हालत जस के तस रहे। भ्रष्टाचार, अनियमितता, अमल में शिथिलता और जबावदेही की कमी ने इन योजनाओं को दीमक की तरह चट कर दिया। भाजपा ने गंगा को 2014 के आम चुनाव में चुनावी मुद्दा तो बनाया ही, वाराणसी घोषणा-पत्र में भी इसकी अहमियत को रेखांकित किया। सरकार बनने पर कद्दावर, तेजतर्रार और संकल्प की धनी उमा भारती को एक नया मंत्रालय बनाकर गंगा के जीर्णोद्वार का भगीरथी दायित्व सौंपा गया। जापान के नदी सरंक्षण से जुड़े विशेषज्ञों का भी सहयोग लिया गया। उन्होंने भारतीय अधिकारियों और विशेषज्ञों से कहीं ज्यादा उत्साह भी दिखाया। किंतु इसका निराशाजनक परिणाम यह निकला कि भारतीय नौकरशाही की सुस्त और निरंकुश कार्य-संस्कृति के चलते उन्होंने परियोजना से पल्ला झाड़ लिया। इन स्थितियों से अवगत होने के बाद सर्वोच्च न्यायालय को भी सरकार की मंशा संदिग्ध लगी। नतीजतन न्यायालय ने कड़ी फटकार लगाते हुए पूछा कि वह अपने कार्यकाल में गंगा की सफाई कर भी पाएगी या नहीं ? न्यायालय के संदेह की पुष्टि कैग ने कर दी है।

‘नमामि गंगे‘ की शुरूआत गंगा किनारे वाले पांच राज्यों में 231 परियोजनाओं की आधारशिला, सरकार ने 1500 करोड़ के बजट प्रावधान के साथ 104 स्थानों पर 2016 में रखी थी। इतनी बड़ी परियोजना इससे पहले देश या दुनिया में कहीं शुरू हुई हो, इसकी जानकारी मिलना असंभव है। इनमें उत्तराखंड में 47, उत्तर-प्रदेश में 112, बिहार में 26, झारखंड में 19 और पश्चिम बंगाल में 20 परियोजनाएं क्रियान्वित होनी थीं। हरियाणा व दिल्ली में भी 7 योजनाएं गंगा की सहायक नदियों पर लागू होनी थीं। अभियान में शामिल परियोजनाओं को सरसरी निगाह से दो भागों में बांट सकते हैं। पहली, गंगा को प्रदुषण मुक्त करने व बचाने की। दूसरी गंगा से जुड़े विकास कार्यों की। गंगा को प्रदूषित करने के कारणों में मुख्य रूप से जल-मल और औद्योगिक ठोस व तरल अपशिश्टों को गिराया जाना है। जल-मल से छुटकारे के लिए अधिकतम क्षमता वाले जगह-जगह सीवेज संयंत्र लगाए जाने थे। गंगा के किनारे आबाद 400 ग्रामों में ‘गंगा-ग्राम‘ नाम से उत्तम प्रबंधन योजनाएं शुरू होनी थीं। इन सभी गांवों में गड्ढे युक्त शौचालय बनाए जाने थे। सभी ग्रामों के शमशान घाटों पर ऐसी व्यवस्था होनी थी, जिससे जले या अधजले शवों को गंगा में बहाने से छुटकारा मिले। शमशान घाटों की मरम्मत के साथ उनका अधुनीकिकरण भी होना था। विद्युत शवदाह गृह बनने थे। साफ है, ये उपाय संभव हो गए होते तो कैग की रिपोर्ट नकारात्मक न आई होती।

विकास कार्यों की दृष्टि से इन ग्रामों में 30,000 हेक्टेयर भूमि पर पेड़-पौधे लगाए जाने थे। जिससे उद्योगों से उत्सर्जित होने वाले काॅर्बन का शोषण कर वायु शुद्ध होती। ये पेड़ गंगा किनारे की भूमि की नमी बनाए रखने का काम भी करते। गंगा-ग्राम की महत्वपूर्ण परियोजना को अमल में लाने की दृष्टि से 13 आईआईटी को 5-5 ग्राम गोद लेने थे। किंतु इन ग्रामों का हश्र वही हुआ, जो सांसदों द्वारा गोद लिए गए आदर्श ग्रामों का हुआ है। गंगा किनारे आठ जैव विविधता सरंक्षण केंद्र भी विकसित किए जाने थे। वाराणसी से हल्दिया के बीच 1620 किमी के गंगा जल मार्ग में बड़े-छोटे सवारी व मालवाहक जहाज चलाए जाना भी योजना में शामिल था। इस हेतु गंगा के तटों पर बंदरगाह बनाए जाने थे। इस नजर से देखें तो नमामि गंगे परियोजना केवल प्रदुषण मुक्ति का अभियान मात्र न होकर विकास व रोजगार का भी एक बड़ा पर्याय था। लेकिन जब इन विकास कार्यों पर धनराशि ही खर्च नहीं हुई तो रोजागार कैसे मिलता ?

नमामि गंगे परियोजना में उन तमाम मुद्दों को छुआ गया था, जिन पर यदि अमल होने की वास्तव में शुरूआत हो गई होती तो गंगा एक हद तक शुद्व दिखने लगी होती। हकीकत तो यह है कि जब तक गंगा के तटों पर स्थापित कल-कारखानों को गंगा से कहीं बहुत दूर विस्थापित नहीं किया जाता, गंगा गंदगी से मुक्त होनी वाली नहीं है ? जबकि इस योजना में कानपुर की चमड़ा टेनरियों और गंगा किनारे लगे सैकड़ों चीनी व शराब कारखानों को अन्यत्र विस्थापित करने के कोई प्रावधान ही नहीं थे। इनका समूचा विषाक्त कचरा गंगा को जहरीला तो बना ही रहा है, उसकी धारा को अवरुद्ध भी कर रहा है। कुछ कारखानों में प्रदुषण रोधी संयंत्र लगे तो हैं, लेकिन वे कितने चालू रहते हैं, इसकी जवाबदेही सुनिश्चित नहीं है। इन्हें चलाने की बाध्यकारी शर्त की परियोजना में अनदेखी की गई है। हालांकि नमामि गंगे में प्रावधान है कि जगह-जगह 113 ‘वास्तविक समय जल गुणवत्ता मापक मूल्यांकन केंद्र‘ बनाए जाएंगे, जो जल की शुद्धता को मापने का काम करेंगे। लेकिन जब गंदगी व प्रदुषण फैलाने वाले उद्योगों को ही नहीं हटाया जाएगा तो भला केंद्र क्या कर लेंगे ?

उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर एक लाख तीस हजार करोड़ की जलविद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। इन परियोजनाओं की स्थापना के लिए पहाड़ों को जिस तरह से छलनी किया जा रहा है, उसी का परिणाम देव-भूमि में मची तबाही थी। गंगा की धारा को उद्गम स्थलों पर ही ये परियोजनाएं अवरुद्ध कर रही हैं। यदि प्रस्तावित सभी परियोजनाएं वजूद में आ जाती हैं तो गंगा और हिमालय से निकलने वाली गंगा की सहायक नदियों का जल पहाड़ से नीचे उतरने से पहले ही निचोड़ लिया जाएगा। तब गंगा अविरल कैसे बहेगी ?

पर्यावरणविद् भी मानते हैं कि गंगा की प्रदुषण मुक्ति को गंगा की अविरलता के तकाजे से अलग करके नहीं देखा जा सकता है ? लिहाजा टिहरी जैसे सैंकड़ों छोटे-बड़े बांधों से धारा का प्रवाह जिस तरह से बाधित हुआ है, उस पर मोदी सरकार खामोश है। जबकि मोदी के वादे के अनुसार नमामि गंगे योजना, महज गंगा की सफाई की ही नहीं सरंक्षण की भी योजना है। शायद इसीलिए उमा भारती ने ‘गंगा सरंक्षण कानून‘ बनाने की घोषणा की थी, लेकिन अब तक इस कानून का प्रारूप भी तैयार नहीं किया गया है। साफ है, सरकार की मंशा और मोदी के वादे में खोट है।

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