हादसों में बदलती आस्था

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प्रमोद भार्गव

धार्मिक आयोजनों में जतार्इ जाने वाली श्रद्धा और भक्ति से यह आशय कतर्इ नहीं निकाला जा सकता कि वाकर्इ इनमें भागीदारी से इहलोक या परलोक सुधरने वाले हैं। बलिक जिस तरह से धार्मिक स्थालों पर हादसे घटने का सिलसिला शुरू हुआ है उससे तो यह साफ हो रहा है कि इनमें भागीदारी कर हम अपने सुरक्षित जीवन को ही खतरे में डाल रहे हैं। हाल ही में मथुरा के बरसाना और देवघर के श्री ठाकुर आश्रम में मची भगदड़ में लगभग एक दर्जन श्रद्धालू काल के गाल में समा गये और करीब आधा सेंकड़ा घायल अवस्था में है। अब से करीब एक साल पहले विश्व में सदभावना और शांति कायमी के लिए हरिद्धार में गायत्री परिवार द्धारा आयोजित विशाल यज्ञ में दम घुटने से करीब 20 लोग प्राण गंवा बैठे थे। पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जन्म शताब्दी महोत्सव के अवसर पर 1551 यज्ञ बेदियों में अपनी आहुती देने देश के कोने – कोने से ही नहीं दुनिया के 80 देशों से श्रद्धालू आए थे। हादसे के दिन ही इनकी संख्या करीब साढ़े चार पांच लाख थी। यज्ञ कुण्डों में आहुति देने की जल्दबाजी के चलते व्यवस्था भंग होने मे क्षणमात्र ही नहीं लगा और 20 लोगों का जीवन की आहुति लग गर्इ थी।

यज्ञ में आहुति की पहली ज्ञात कथा भगवान शिव की अर्धांगनी सती की है। उनके पिता दक्ष प्रजापति ने देव शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए महायज्ञ कराया था। किंतु इस यज्ञ में अपने दामाद शिव को आमंत्रित नहीं किया। इससे उनका सार्वजनिक आपमान हुआ। पति की इस उपेक्षा से सती बेहद दुखी हुर्इ और उन्होंने अपने पिता का दंभ तोड़ने की दृष्टि से यज्ञ स्थल पर पहुंच यज्ञ कुण्ड में छलांग लगाकर अपने प्रणों की आहुति दे दी। तत्ववेत्ता महाबोधि और परमसत्य के ज्ञाता माने जाने वाले भगवान शिव भी यह नहीं जान पाए थे कि अगले कुछ धण्टों में क्या कुछ अनहोनी घटने वाली है। और न ही वे कर्मकाण्डी पंडित यज्ञ में घटित होने वाले अशुभ का भान कर पाए जो प्रजापति दक्ष का भविष्य संवारने के लिए यज्ञ में संलग्न थे। दरअसल जब जब पर्याप्त व पुख्ता इंताजम कमजोर हुए हैं, तब – तब पुण्य कमाने के अलौलिक उपायों का मृत्यु के सत्य से ही साक्षात्कार हुआ है। सती के बलिदान से लेकर बरसाना और देवघर के हादसों तक यह सनातन सत्य अपने को बार – बार दोहरता चला आ रहा है। इस बानगी से यह भी सत्य उभरता है कि सर्वज्ञानी भी स्वयं की भाग्य लिपि नहीं बांच पाते। भाग्य ही सब कुछ हो और पुण्य के उपायों से भाग्य रेखा बदली जा सकती होती तो कर्म का तो कोर्इ अर्थ व महत्व ही नहीं रह जाता ?

देवघर के ठाकुर अनुकूलचंद की प्रज्ञा तो ज्यादा देखने – सुनने में नहीं आर्इ, लेकिन पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जरुर युगद्रष्टा थे। उन्होंने अपने आत्मबल, इच्छाशक्ति व कठोर परिश्रम से कर्मकाण्ड के पाखण्ड की उस जड़ता पर कुठाराधात किया, जिसके संपादन के अधिकारी केवल ब्राह्मण थे। आज दुनिया भर में स्थापित गायत्री विधापीठ मंदिरों में किसी भी जाति के पुजारी पूजा अर्चना, यज्ञ – हवन और पाणिग्रहण व मुंडन संस्कार कराते देखे जा सकते हैं। आचार्य क्षी राम ने इस परपंरा को तोड़ने के साथ – साथ वैदिक साहित्य के पुनर्लेखन में भी उल्लेखनीय व अविस्मणीय योगदान दिया। उन्होंने चारों वेद, उपनिषद और पुराणों के संस्कृत भाषायों की हिंदी में सरल व्यखाया की। यही नहीं शाति कुंज हरिद्धार में गीताप्रेस गोरखपुर की तरह एक छापाखाना स्थापित कर इस साहित्य को सस्ते मूल्य में देश – विदेश में विक्रय का सफल प्रबंधन भी किया। उन्होंने आध्यातिमक ज्ञान को विज्ञान से जोड़कर उसे मनुश्य जीवन के लिए उपयोगी बनाया। इसलिए उनकी बौद्धिक दिव्यता किसी भी सिथति में नजरअंदाज करने लायक नहीं है। यह भीड़ तंत्र ही है जो हरेक धार्मिक अयोजन को परलोक सुधारने का मघ्ययम बनाने की भूल करती है।

भारत में पिछले 10-12 सालों में मंदिरों और अन्य धार्मिक अयोजानों में जल्दबाजी व कुप्रंधन से उपजी भगदड़ से डेढ़ हजार से भी ज्यादा लोग काल के गाल में समा चुके हैं। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक आधिकारियों को नहीं रहती। इसलिए उनकी जो सजागता घटना से पूर्व सामने आनी चाहिए वह अकसर देखने में नहीं आती। इसी का नतीजा है कि देश के हर प्रमुख धार्मिक आयोजन छोटे – बड़े हादसों का शिकार हो रहे है। 1954 में इलाहबाद में संपन्न कुंभ मेले में तो एकाएक गुस्से में आए हाथियों ने इतनी भगदड़ मचार्इ की एक साथ 800 श्रद्धालु काल कवलित हो गए थे। धर्म स्थलों पर मची भगदड़ से हुर्इ यह सबसे बड़ी घटना है। महाराश्ट के सतारा के मांधर देवी मंदिर में मची भगदड़ में भी 300 लोग मारे गये थे। केरल के सबरी वाला मंदिर जोधपुर के चामुण्डा देवी मंदिर, गुना के करीला मंदिर और प्रतापगढ़ के कृपालू महाराज आश्रम में भी मची भगदड़ों से दर्जनों लोग बेमौत मरे हैं।

हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्रो का तो यह हाल है कि वह आजादी के बाद से ही उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने के इंतजाम करता तो हालात कमोवेश बेकाबू नहीं होते। देवघर हादसे में भी यही हुआ। पुलिस व प्रशासन ने प्रबंधन में दखल देने से इसलिए किनारा कर लिया था क्योंकि इसकी जबावदेही आश्रम ने उठा ली थी। चूंकि आश्रम समय – समय पर इस तरह के आयोजन करता रहता था, इसलिए उनकी कौशल दक्षता पर एकाएक सवाल भी नहीं उठाए जा सकते। इसके बावजूद कोर्इ भी प्रबंधन निरापद नहीं हो सकता। आतंकी आशकाओ के मददेनजर भी प्रशासन को ऐसे आयोजन की व्यवस्था पर नजर रखने की जरूरत महसूस करनी चाहिए।

प्रशासन के साथ हमारे राजनेता, उधोगपति, फिल्मी सितारे और आला अधिकारी भी धार्मिक लाभ लेने की होड़ में व्यवस्था को भ्ंग करने का काम करते है। इनकी वीआर्इपी व्यवस्था और यज्ञ कुण्ड अथवा मंदिरों के मूर्तिस्थल तक ही हर हाल में पहुंचने की जरूरत मौजूदा प्रबंध को लाचार बनाने का काम करते हैं। नतीजतन भीड़ ठसाठस के हालात में आ जाती है। ऐसे में कोर्इ महिला या बच्चा गिरकर अनजाने में भीड़ के पैरों तले रौंद दिया जाता है और भगदड़ मच जाती है। कभी – कभी गहने हथियाने के लिये भी बदमाश ऐसे हादसों को अंजाम देने का षडयंत्र रच देते है। हादसे के उपरांत मजिस्ट्र्रेटियल जांच के बहाने हादसों के कारणों की खोज का कोर्इ कारण नहीं रह जाता, क्योंकि इन कारणों की पड़ताल की जरूरत तो हादसे की संभावना के परिप्रेक्ष्य में पहले ही जरूरत रहती है। हैरानी इस बात पर भी है कि आश्रम के द्वार पर लोग दम तोड़ रहे थे और उधर आश्रम के गर्भ गृह में आयोजक व श्रद्धालू जश्न में डूबे थे। यहीं नही इन मर्मांतक चीखों के बीच भी आश्रम के उपर हेलिकाप्टर, चार्टर वायुयान और पैराशूटों से पुष्प वर्षा की जाती रही। हादसे की जानकारी मिलने के बाद भी आश्रम के भीतर मंत्रोच्चार के बीच पुर्णाहुतियां दी जाती रहीं। इससे पता चलता है कि हम परलोक सुधारने के फेर में कितने संवेदना शून्य हो चुके हैं।

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  1. अपना परलोक सुधारने या किसी भी आध्यात्मिक अनुभूति के लियें इन आयोजनो मे भाग लेना बिलकुल ज़रूरी नहीं है,अनावश्क है क्योंकि भगवान प्रकृति के कण कण मे हैं,उसे महसूस करने की ज़रूरत है।इस तरह के आयोजनो के प्रबंधन पर इतनी धनराशि ख़र्च होने के बाद भी इतनी जाने हादसों मे चली जाती हैं।

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