फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जिनके अंदर अपने देश का बोध सदा बना रहा

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अनिल अनूप

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, महमूद दरवेश और नाज़िम हिक़मत साहित्यिक और राजनीतिक व्यक्तित्वों की उस कड़ी का निर्माण करते हैं जो अपने देश से बाहर रहे या रहने को बाध्य किए गए. एक व्यापक अर्थ में वे विश्व नागरिक थे लेकिन उनके अंदर अपने देश का बोध सदा बना रहा.वे जो कहना चाह रहे थे, उसे कहने के लिए उन्हें ‘देश की संरचना के भीतर’ वे जगहें या अवसर नहीं उपलब्ध हो पा रहे थे जिसकी उन्हें दरकार थी. वे अपना देश छोड़कर दूसरे देश गए.
वास्तव में फ्रांस की क्रांति के बाद पूरी दुनिया में आज़ादी की चाहतों में जो सबसे बड़ी चाहत उपजी, वह कहने की आज़ादी की चाहत रही है. फ़ैज़ की शायरी उनकी पत्रिका ‘लोटस’ के द्वारा फिलिस्तीन, बेरुत और अफ्रीका के नामालूम लोगों तक पहुंची. वास्तव में फ़ैज़ लोकतंत्र और आज़ादी के कवि थे. वे भला एक देश में बंधकर कैसे रह सकते थे!

किसे जरूरत है फैज अहमद की

जो इश्क़ करते हैं, बेड़ियों को तोड़ना चाहते हैं, दुनिया को बदलना चाहते हैं, उन्हें आज भी फ़ैज़ की ज़रूरत है.

मुक़ाम ‘फ़ैज़’ कोई राह में जंचा ही नहीं

जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

उनकी मृत्यु के तीस साल बाद 2014 में विशाल भारद्वाज ने राजनीतिक स्वर लिए हुए एक मनोरंजन प्रधान फिल्म बनाई- हैदर. इसमें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (1911-1984) की ऊपर दी हुई ग़ज़ल को शामिल किया गया था.भारत की एक बड़ी युवा जनसंख्या ने उनका पहली बार नाम सुना, ये वह पीढ़ी थी जिसने मेहदी हसन की आवाज़ में फ़ैज़ को नहीं सुना था, जिसे पाकिस्तान सहित भारतीय उपमहाद्वीप में लोकतंत्र पर आए हुए संकटों से अभी साबका नहीं पड़ा था और जो अभी बीस से तीस साल की उमर में है.उसके लिए फ़ैज़ फिर एक बार आ खड़े हुए. वह फ़ैज़ जिसे पढ़ा जा सकता था, गाया जा सकता था और अपने दोस्तों से साझा किया जा सकता था.

लोकतंत्र का कवि

29 जनवरी, 1954 को मांटगोमरी जेल में रहते हुए फ़ैज़ ने यह सब लिखा था. यह उनकी आदत थी कि वे लिखें और जैसा हर दौर में सत्ता अपने भीतर तानाशाही विकसित करती है, फ़ैज़ के दौर में भी उसने किया. उन्हें जेल में डाला गया. जेल में उन्होंने फिर लिखा. उन्हें फिर जेल में डाला गया.

पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में, तुर्की, श्रीलंका, म्यांमार में जब आज़ादी आई तो उसका चेहरा वहां के लोग पहचान नहीं पा रहे थे. जब भारत में आज़ादी आई तब गांधी जी बेलियाघाट की तरफ थे, उधर लोग अपने हिंदू और मुसलमान भाइयों को आपस में मार-काट रहे थे. सभी को लगा कि यह तो वह है ही नहीं, जिसकी हमने ख़्वाहिश की थी. फ़ैज़ को भी यही लगा था-

ये दाग़ दाग़-उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर

वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नही

जिन लोगों ने राजनीति विज्ञान पढ़ा होगा वे जानते हैं कि लोकतंत्र के द्वारा चुनी गई सरकारें भी अपने अंदर ऐसी संरचनाएं विकसित कर लेती हैं कि वे अपने ही नागरिकों का दमन करने लगती हैं. जब राजनीति विज्ञानी ज्यार्जियो अगम्बेन ने यह बात कही तो भारत के कई और विद्वान इस ओर उन्मुख हुए कि देखा जाय कि 1975 में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी क्यों लगा दी थी?1974 के आसपास की रेलवे की हड़तालों और विद्यार्थियों ने आख़िर मांगा ही क्या था? वे अपने काम का दाम मांग रहे थे, वे अपने नियोक्ता से समतामूलक व्यवहार चाहते थे और चाहते थे कि उन्हें सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की उपलब्धता हो. विद्यार्थियों को रोज़गार और शिक्षा चाहिए थी, वे विश्वविद्यालयों में आ रही सड़ांध से भी व्यग्र थे.इंदिरा गाधी ने इमरजेंसी लगा दी! जो बोलता था, उसे चुप करा दिया गया, चाहे अख़बार हो या आदमी. शायर तो बोलेगा ही. इस दौर के भारत में फ़ैज़ को ख़ूब गाया गया, पढ़ा गया.पाकिस्तानी हुक़ूमत की निगाह में तो वे 1950 के दशक से ही चढ़ गए थे. लग रहा था कि उन्हें फांसी की सज़ा दी जाएगी. लेकिन उन्होंने जनता से हुक़ूमत की शिकायत की. उन्हें जनता से ही आशा थी-

निसार मैं तेरी गलियों के ए वतन, कि जहां

चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले

जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले

नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जां बचा के चले

आख़िर वह क्या है जो फ़ैज़ को हमारे बीच में बार-बार ले आता है. पिछले दस सालों में भारत और पाकिस्तान ने काफ़ी प्रगति की है. पूरी दुनिया की तरह दोनों देशों में सूचना तकनीक का विकास हुआ है. भारत तो जापान और चीन की तरह इस क्षेत्र में नेतृत्वकारी हैसियत में आ चुका है. तकनीक ने पूरी दुनिया में सामान्य नागरिकों को मज़बूत बनाया है. उन्हें लामबंद होने में मदद की है.दूसरी तरफ यह बात सरकारों को भी पता है. वे अपनी जनता को पहले पुचकारते हैं. उसके लिए योजनाएं लाते हैं, अगर मान गई तो मान गई, नहीं तो दमन का पुराना तरीक़ा नये क़ानूनों के मार्फ़त ले आया जाता है. इसमें सबसे पहले अभिव्यक्ति की आज़ादी को पाबंद किया जाता है.वर्तमान भाजपा सरकार के समय अभिव्यक्ति की आज़ादी के बारे में काफ़ी बात हुई है. कहा जाता है कि भाजपा को इस मुद्दे पर बिहार का विधानसभा चुनाव गंवाना पड़ा, लेकिन अभिव्यक्ति की आज़ादी को थोड़ा व्यापक संदर्भ में देखें तो यह लोकतंत्र की परीक्षा लेने वाला विचार है.अभिव्यक्ति की आज़ादी लोकतंत्र में जीवन भरती है और स्वतंत्रचेत्ता नागरिकों का निर्माण करती है दूसरी तरफ राज्य क़ानून बनाकर अपने नागरिकों पर बंदिश लगाता है. कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी का मामला इसका उदाहरण है, उस समय कांग्रेस की सरकार थी. इसलिए किसी पार्टी विशेष की निंदा या आलोचना से बेहतर यह होगा कि सरकारों के जन-हितैषी होने पर ज़ोर दिया जाए.यहीं पर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जरूरी कवि हो जाते हैं जिनकी कविता पूरी दुनिया की लोकतांत्रिक सरकारों से जन-हितैषी होने की अपेक्षा करती है. इसी के साथ वे जनता को उद्बोधित भी करते हैं. फ़ैज़ के लिए बोलना ज़िंदा होना है. थोड़े से समय में बात भी कह देनी है-

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल ज़बां अब तक तेरी है

तेरा सुतवां जिस्म है तेरा

बोल कि जां अब तक तेरी है

किसे ज़रूरत है फ़ैज़ की?

उन्हें जो इश्क़ करते हैं, उन्हें ज़रूरत है फ़ैज़ की. जिन्हें दूसरों के सहारे की जरूरत है या जो दूसरों को सहारा देना चाहते हैं

जब कोई बात बनाए न बने

जब न कोई बात चले

जिस घड़ी रात चले

जिस घड़ी मातमी सुनसान, सियाह रात चले

पास रहो

मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो

फ़ैज़ की जरूरत उन्हें भी है जो सोचते हैं कि एक दिन दुनिया बदल जाएगी और जनता का राज होगा. तमाम तरह की बेड़ियां टूट जाएंगी-

हम देखेंगे

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन

कि जिसका वादा है

जो लौहे-अज़ल में लिखा है

जब ज़ुल्मो-सितम के कोहे गरां

रुई की तरह उड़ जाएंगे.

कहते हैं कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की इस लिखावट से पाकिस्तान के हुक्मरान बड़े नाराज थे. वे उन लोगों से भी नाराज़ थे जो इसे गाते थे लेकिन 1985 में इक़बाल बानो ने लाहौर के हज़ारों लोगों के सामने इसे गाया था. इसमें इक़बाल बानो की हिम्मत तो शामिल थी ही, फैज़ की शायरी भी हिम्मत बंधाने वाली शायरी थी.

और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा.

यह निजी बातचीत एक शायर के रूप में फ़ैज़ के क़द का अंदाज़ा लगाने के लिए काफ़ी है. जीवन के तमाम राजनीतिक, सामाजिक और वैचारिक संघर्षों के बीच प्रेम और इंसानियत को कैसे ज़िंदा रखा जाए, इसका सबसे अच्छा बर्क़ा फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने रचा.हमने अपनी पीढ़ी में कोई ऐसा युवा नहीं देखा जिसकी कविताओं में दिलचस्पी हो और वह फ़ैज़ का दीवाना न हो.मज़े की बात यह है कि तमाम भारतीय कवि, जो हमारे यहां कोर्स की किताबों में पढ़ाए जाते हैं, उनसे अलग फ़ैज़ सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले कवियों में हैं.वे सरकारी संस्थानों और परियोजनाओं से इतर पूरी दुनिया के जनमानस के कवि हैं. फ़ैज़ शायरी और विश्व कविता के ऐसे फ़नकार हैं जो प्रेमियों को प्रेम, क्रांतिकारियों को क्रांति और आशान्वितों को आशा के चरम तक ले जाने की कूवत रखते हैं.

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल ज़बां अब तक तेरी है

बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है

जिस्म-ओ-ज़बां की मौत से पहले

बोल कि सच ज़िंदा है अब तक

बोल जो कुछ कहना है कह ले

कवि आलोचक अशोक वाजपेयी के शब्दों में, ‘दो पाकिस्तानी बड़े कवि इक़बाल और फ़ैज़ ऐसे हैं जिनके बिना आधुनिक भारतीय कविता की बात अधूरी रहती है.यह भारतीय साहित्य-परंपरा और उसकी आधुनिकता की एक विशेषता है कि उसने भौगोलिक और राष्ट्रीय हदबंदी को हमेशा अपनी बहुलता और खुलेपन के पक्ष में अतिक्रमित किया है.’पिछली सदी प्रतिरोध की कविताओं की सदी रही है और इसके झंडाबरदारों में सबसे उल्लेखनीय नामों में से एक नाम फ़ैज़ का है. उनका नाम एशिया के महानतम कवियों में शुमार है. साम्यवादी विचारधारा में यक़ीन रखने वाले फ़ैज़ पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे और प्रगतिशील आंदोलन के महारथियों में थे.उन्होंने 1936 में पंजाब प्रांत में प्रगतिशील लेखक संगठन की शाखा की स्थापना की. सूफी परंपरा से प्रभावित फ़ैज़ ने कुछ समय तक अध्यापन किया और बाद में सेना में भर्ती हो गए. हालांकि, सेना में उनका मन नहीं रमा और 1947 में उन्होंने लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से इस्तीफा दे दिया.
बंटवारे के बाद फ़ैज़ पाकिस्तान चले गए. नाइंसाफी, शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ मुखरता से लिखने वाले शायर के रूप में मक़बूल हुए फ़ैज़ को अपने लेखन के लिए जेल जाना पड़ा. उन पर चौधरी लियाक़त अली ख़ान का तख़्ता पलटने की साज़िश करने के आरोप लगे.उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और वे करीब पांच साल जेल में रहे. जेल में रहने के दौरान तमाम नायाब रचनाओं को शक्ल दी जो उनके दो संग्रहों ‘ज़िंदानामा’ और ‘दस्ते-सबा में दर्ज हैं. 1977 में तख़्तापलट हुआ तो उन्हें कई बरसों के लिए मुल्क़ से बेदख़ल कर दिया गया.1978 से लेकर 1982 तक का दौर उन्होंने निर्वासन में गुज़ारा. हालांकि, फ़ैज़ ने अपने तेवर और विचारों से कभी समझौता न करते हुए कविता के इतिहास को बदल कर रख दिया.

निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहां

चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले

जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले

नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जां बचा के चले

…बने हैं अहले-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी

किसे वकील करें, किससे मुंसिफ़ी चाहें

यूं ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़

न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई

यूं ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल

न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई

युवा आलोचक एवं शोधकर्ता आशीष मिश्र कहते हैं, ‘जब हमारे देश का बंटवारा हुआ तो नदियां, पहाड़, रेगिस्तान, कुर्सी-मेज और और कलमदान तक बांट दिए गए लेकिन एक चीज़ जो नहीं बांटी जा सकी वह थीं कलाएं. कलाएं इस विभाजन और उन्माद के ख़िलाफ़ लगातार लड़ती रहीं. इस विभाजन के पीछे काम करने वाली ताक़तों को पहचानती रहीं. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कला के इसी धारा के संग-ए-मील हैं और जीवन को वहां से देखते हैं जहां प्रेम और क्रांति में कोई अंतर्विरोध नहीं है.’फ़ैज़ ‘रक़ीब से’ शीर्षक की नज़्म रक़ीब को संबोधन से शुरू होती है जो अंतत: अन्याय और अत्याचार से पीड़ित एक संघर्षरत योद्धा की आह के रूप में ख़त्म होती है जो ज़ुल्मतों से भरी दुनिया से बेज़ार हो चुका है.

आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझसे

जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रक्खा था

जिसकी उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हमने

दह्‍र को दह्‍र का अफ़साना बना रक्खा था…

वे अवाम की भावनाओं को हवा देने वाले और सियासत के लिए असुविधा पैदा करने वाले शायर हैं. क्रांतिकारी विचारधारा के लोग उनकी कविताओं के पोस्टर लगाते हैं, प्रेमी युगल उनका संग्रह सिरहाने रखते हैं तो काव्य प्रेमी उन्हें कविता में संघर्ष, प्रेम और सौंदर्य के अदभुत सम्मिलन के लिए पढ़ते हैं.उनकी कविताओं में तमाम मुल्कों के बेसहारा लोगों और यतीमों की आवाज़ें दर्ज़ हैं जो उन्हें लगातार एक जद्दोजहद करते हुए शायर के रूप में स्थापित करती हैं.
फ़ैज़ को गुज़रे हुए क़रीब 30 साल गुज़र चुके हैं. लेकिन वे अपने दौर के शायर लगते हैं जिनके पास दुनियावी संघर्ष का हौसला भी मिलता है तो ज़ाती भावनाओं के लिए बेहद कारगर मरहम भी मौजूद है.

ज़ुल्मतों के दौर से मुक्ति की आशा लिए ऐसी कविता फ़ैज़ ही लिख सकते हैं:

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन कि जिसका वादा है

जो लौहे-अज़ल में लिक्खा है

जब ज़ुल्मों-सितम के कोहे-गरां

रूई की तरह उड़ जाएंगे

सब ताज उछाले जाएंगे

सब तख़्त गिराए जाएंगे…

13 फरवरी, 1911 को सियालकोट, पंजाब में जन्मे ऐसे अनूठे शायर को याद करना अपने भीतर कविता का उत्सव मनाने से ज़रा भी कम नहीं है.
उनको पढ़ने और गुनने का एहसास कैसा है, इसे कहना चाहें तो उन्हीं के लफ़्ज़ों में- ‘जैसे सहराओं में हौले से चले बादे-नसीम, जैसे बीमार को बेवजह क़रार आ जाए…’

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