पास से दूर, दूर के पास…!

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तारकेश कुमार ओझा
अंकल सीरियस … कम शून…। भैया बीमार – चले आओ…। टेलीफोन, मोबाइल व इंटरनेट से वंचित उस दौर में तब अपनों को याद करने का एक ही जरिया होता था टेलीग्राम । जिसका पाने वालों पर बड़ा मारक असर होता था। इसके आते ही प्राप्तकर्ता के घर में सनसनी फैल जाती थी कि पता नहीं कैसा संदेशा आया है। लोग अपनों की चिंता में परेशान हो उठते थे। उस दौर में किसी बात पर नाराज होने पर बड़े – बूढ़े किसी से कहलवा कर अपनों को टेलीग्राम करवा देते थे कि फलां बहुत बीमार हैं। चले आओ। तब न तो अग्रिम आरक्षण की ऐसी सुविधा थी और न तो मोबाइल ही कि आपस में बातें करके सच्चाई से अवगत हो जाए। लेकिन क्या कमाल कि टेलीग्राम पाते ही अपने जैसे – तैसे बस अपनों के बीच पहुंच ही जाते थे। औपचारिकता के बाद होने वाली बैठकों में गिले – शिकवे दूर कर लिए जाते । अतीत की ये घटनाएं वर्तमान में काफी प्रासंगिक हो गई हैं। इसलिए कि लोग भीड़ में अकेले होते जा रहे हैं। या यूं कहें कि अपनों में बेगाने।
इस संदर्भ में पश्चिम बंगाल की एक दुखद घटना का जिक्र जरूरी है। जिसमें कॉलेज में पढ़ने वाले एक छात्र ने  इसलिए जहर खा लिया क्योंकि उसके पास पंजीयन के लिए पैसे नहीं थे। टयूशन पढ़ा कर जैसे – तैसे गुजर – बसर कर रहे इस छात्र ने ऊंची शिक्षा हासिल करने के लिए किसी तरह कॉलेज में दाखिला तो ले लिया। लेकिन पंजीयन के लिए जब फीस जमा करने की बारी आई तो वह परेशान हो उठा। आखिरकार एक दिन कालेज परिसर में ही उसने जहर खा लिया। आश्चर्य. कि इस घटना के बाद तोड़- फोड़ करने वाले उसके साथियों को पहले इस बात की भनक तक नहीं लग पाई कि उसका एक सहपाठी गहरी  मुसीबत में है। यह संयोग ही है कि जिस पूर्व मेदिनीपुर जिले में यह घटना हुई , उसी के एक दूसरे प्रखंड में तीन मासूम बेटियों के साथ एक मां ने इसलिए जहर खाकर जान दे दी, क्योंकि उसका पति करीब एक साल से फरार था। पति के लौटने की संभावना क्षीण होने तक यह परिवार रिश्तेदारों के रहमोकरम पर दिन गुजार रहा था। हालांकि जिंदगी की गाड़ी को फिर से पटरी पर लाना मुश्किल होने के बावजूद कठिन नहीं था। लेकिन मां – बेटियों के दिल पर जाने क्या बीती कि चारों ने सामूहिक आत्महत्या करने जैसा आत्मघाती कदम उठा लिया।
समाज में एेसी हृदयविदारक घटनाओं का लगातार होना साबित करता है कि आधुनिक सुख – सुविधाओं के बीच लोग मुसीबत पड़ने पर खुद को अकेला और असहाय महसूस करने लगते हैं। जिसकी भयंकर परिणति अक्सर आत्महत्या के रूप में सामने आती रहती है। फेसबुक और इंटरनेट के दूसरे माध्यमों से आज जब हम दुनिया से जुड़ने की कोशिश करते हैं वहीं अपने आस – पास रहने वालों की पीड़ा को समझ नहीं पाते। यानी हम दूर के पास और पास से दूर होते जा रहे हैं। पिछले दो दशकों के कालखंड का आकलन करने पर हम पाते हैं कि उपलब्ध तमाम सुख – सुविधाओं के बीच लोगों में संवेदना की कमी आई है। सहानुभूति के नाम पर सिर्फ औपचारिकता निभाने की रस्मअदायगी है। यह जानते हुए भी उनका कोई अपना गहरी  मुसीबत में है या बुरे दौर से गुजर रहा है, दूसरों की कौन कहे अपने भी उसकी चिंता करने की जहमत नहीं उठाते। यह सोचते रहते हैं कि एक न एक दिन वह इस दौर से निकल ही जाएगा। या फिर मुझे क्या पड़ी है…। पता नहीं दूर के  पास और पास से दूरी बनाने की यह आपाधापी एक दिन हमें कहां पहुंचा कर दम लेगी।
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तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

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