किसान आंदोलन: अंततः विमर्श में रक्त और रोटी

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डॉ राजू पाण्डेय

किसान आंदोलन का हिंसक हो जाना उसे सुर्खियां दे गया। इसलिए नहीं कि हम इस हिंसा से आहत हैं या पुलिस कार्रवाई में हुई किसानों की मौत को लेकर हममें गुस्सा है। बल्कि इसलिए कि हिंसा की आंच अब राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए सम्यक तापमान पर पहुँच गई है। दोषारोपण का दौर जारी है। कहा जा रहा है कि हमारे (इस हद तक) शांतिप्रिय किसानों को जिन्हें विरोध के बजाए आत्महत्या वरेण्य लगती है, जरूर राजनीतिक दलों ने बहकाया होगा। दमन-शोषण और शरणागति के अभ्यस्त किसानों की भीड़ में जरूर जाग्रत और सम्पन्न तथा राजनीतिक प्रतिबद्धता रखने वाले लोगों द्वारा प्रायोजित अपराधी तत्व शामिल हो गए होंगे अन्यथा हमारे किसानों की क्या मजाल कि वे हथियार उठा लें। किसानों के इस आक्रोश ने मुद्दों की तलाश में भटकते विरोधी राजनीतिक दलों को बैठे- बिठाये एक मुद्दा दे दिया है और शासक दल के सम्मुख यह चुनौती उत्पन्न हो गई है कि वह हारी हुई बाजी को कैसे विजय में तब्दील कर दे। आंदोलन को कमजोर करने के वर्षों पुराने घिसे पिटे किन्तु आजमाये हुए फॉर्मूले प्रयोग किए जा रहे हैं- लोकलुभावन घोषणाएं, मांगों की पूर्ति हेतु समिति और आयोग बनाने का आश्वासन, सत्तासीन दल के प्रति सहानुभूति रखने वाले किसान नेताओं की आंदोलन में एंट्री तथा इन्हें सरकार द्वारा अधिक तवज्जो देना ताकि भीड़ इनकी अधीनता स्वीकार करे और चुपचाप दमन चक्र चलाना,पुलिस केसों में आंदोलनकारियों को फंसाना आदि। आंदोलनों से निपटने के ये कांग्रेस युगीन फॉर्मूले आज भी उतने ही कारगर हैं जितने कुछ दशकों पहले थे बिलकुल बॉलीवुड की फार्मूला फिल्मों की तरह।
अख़बारों में निरंतर स्तंभ लिखने को मजबूर बुद्धिजीवी और सोशल मीडिया के नए नवेले विद्वान् कृषि की दशा पर काम करने वाले मुट्ठी भर विशेषज्ञों और एक्टिविस्ट्स के शोध कार्य को कभी उनके नाम सहित तो कभी बिना नाम के कोट कर अपना बौद्धिक उत्तरदायित्व निभा रहे हैं। दोषियों की तलाश हमेशा की तरह चल रही है। “सत्तर साल तक देश को खोखला करने वाला शासन” अथवा “फासीवादी सूट बूट की सरकार” कौन किसानों की दशा का जिम्मेदार है। जब दोषियों को तलाशने की परंपरा का निर्वाह हो ही रहा है तो इस बिंदु पर भी विचार किया जाना चाहिए कि किसान स्वयं को कभी भी किसान के रूप में नहीं देखते। उनमें वर्ग चेतना का अभाव है। लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में मतदाता के रूप में आपका व्यवहार आपके भविष्य का निर्धारक होता है। जब हमारा किसान मतदान करने जाता है तो वह धर्म,मजहब,जाति, परिवार,क्षेत्र और दल के आधार पर मत देता है, वर्ग हित उसके लिए गौण हो जाते हैं। स्वाधीनता प्राप्ति के लगभग सौ वर्ष पूर्व से देश में अनेक किसान आंदोलन हुए। बहुस्तरीय शोषण(देशी जमींदार और विदेशी शासक, जातीय विभेद) की उपस्थिति के बावजूद ये आंदोलन स्थानीय मुद्दों और छोटी छोटी मांगों तक सीमित रह गए और उपनिवेशवाद, जमींदारी प्रथा एवं जाति प्रथा के विरुद्ध एक सशक्त विरोध का संगठित स्वरूप न ले पाए।किसानों के प्रति सत्ता के दृष्टिकोण को समझने का आदर्श उदाहरण तेलंगाना किसान आंदोलन (1946-1951) था जो अंग्रेजों की शोषणकारी नीतियों से उपजा एवं स्वतंत्र भारत में इसका दमन हुआ। किसानों में वर्ग चेतना के विकास में असफलता का उत्तरदायित्व किसका है? स्वाभाविक रूप से ये परिस्थितियां वामपंथ के विकास के लिए अनुकूल थीं। किन्तु दुर्भाग्यवश वामपंथी इनका लाभ न उठा पाए। वामपंथियों की असफलता को व्याख्यायित करने के लिए उसी वामपंथी पारिभाषिक शब्दावली का सहारा लेना एक विवशता है जिसका उपयोग वामपंथी फतवों के रूप में करते और आनंदित होते रहे हैं। भारत का वामपंथी आंदोलन संशोधनवाद, दक्षिणपंथी भटकावों से उपजे बुर्जुआ सुधारवादी रुझान, अर्थवाद (समझौतावादी और संघर्षवादी), वाम संकीर्णतावाद तथा दुस्साहसवाद आदि अतिरेकों का शिकार रहा है। वामपंथियों की शक्ति आर्थिक शोषण को आधार बनाकर वर्ग संघर्ष को बढ़ावा देना है किंतु इससे भटकाने के लिए साम्प्रदायिकता और भगवाकरण जैसे मुद्दे विमर्श में डाले गए हैं और वामपंथी इनमें अपनी ऊर्जा जाया कर रहे हैं। कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों तथा भाजपा की अर्थनीति में कोई बुनियादी अंतर नहीं है इसलिए इनका विरोध प्रतीकात्मक अधिक है और साम्प्रदायिकता,जातिवाद तथा भगवाकरण आदि पर ध्यान केंद्रित करना इनके लिए अपने अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा हेतु एक विवशता है।
पिछले 25 वर्षों में विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार करीब 4 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। किसानों की समस्याएं मूलभूत रूप से इन वर्षों में अपरिवर्तित रही हैं और इन्हें समझने के लिए बहुत ज्यादा तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। कृषि भूमि में कमी आई है। ऐसा जनसंख्या वृद्धि के कारण भी है और औद्योगीकरण के कारण भी। कृषि की उत्पादन लागत में वृद्धि हुई है। रासायनिक खाद,कीट नाशक,बीज,सिंचाई के साधन,मानव श्रम महंगे हुए हैं। यद्यपि इनमें से कई पर सब्सिडी दी जाती है पर व्यवस्थागत खामियों से इसका लाभ समुचित रूप से मिल नहीं पाता। कृषि अभी भी मानसून पर निर्भर है क्योंकि सिंचाई की सुविधाओं का विस्तार नहीं हो पाया है। किसान को उसके उत्पाद का जो मूल्य मिलना चाहिए वह मिल नहीं पाता। स्वामीनाथन आयोग ने उत्पादन लागत में 50 प्रतिशत जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने का फार्मूला दिया जिसमें जमीन की कीमत को सम्मिलित नहीं किया गया है क्योंकि वह किसान को पैतृक रूप से मिलती है,अर्जित नहीं है। राजनीतिक दलों द्वारा इन सिफारिशों को लागू करने के अपने वादे पर अमल नहीं किया गया है। जो भी समर्थन मूल्य सरकार द्वारा निर्धारित है उस पर भी अपनी उपज को बेचना किसान के लिए टेढ़ी खीर है। भ्रष्टाचार रोकने के नाम पर उससे इतने दस्तावेज मांगे जाते हैं मानो वह खून पसीने से उपजाया अनाज नहीं बल्कि चोरी का माल बेचने आया है। कृषि उपज मंडियों और सहकारी समितियों की व्यवस्था ठीक नहीं होती,भ्रष्टाचार का बोलबाला होता है सो अलग। किसान को माल बेचने के लिए हफ़्तों का इंतजार करना होता है। अनाज को सुरक्षित रखने का प्रबंध न होने के कारण बारिश आदि से यह ख़राब हो जाता है। फसल बीमा के प्रावधान बीमा कंपनियों के हित का अधिक ध्यान रखते हैं। इन सब के बाद किसान अपना अनाज बेचने में सफल हो भी जाता है तो सहकारी समितियों की आर्थिक अनियमितताओं और अव्यवस्था के कारण भुगतान मिलने में उसे महीनों लग जाते हैं। यही कारण है कि वह बिचौलियों के पास जाने को मजबूर होता है। फल और सब्जियों को सुरक्षित रखने के लिए कोल्ड स्टोर उपलब्ध नहीं हैं। इनके प्रसंस्करण के संसाधन और कौशल किसान के पास नहीं हैं। फलतः विपुल उत्पादन करके भी वह अपने उत्पाद को ऐसी कीमत पर बेचने के लिए विवश होता है जो ट्रांसपोर्टेशन की लागत भी नहीं दे पाती उत्पादन लागत की तो बात ही दूर है। इस कारण वह हताशा में अपना उत्पाद सड़कों में फेंक देता है। पशु धन से प्राप्त उत्पादों दूध आदि की यही स्थिति है। पिछले कुछ समय से शासकीय नियमों के कारण पशुओं की खरीद बिक्री के बारे में भ्रम फैला है। चाहे अनाज हो या फल या सब्जियां या दुग्ध उत्पाद जिनके पास इनके भण्डारण,प्रसंस्करण,पैकेजिंग, ब्रांडिंग और मार्केटिंग का कौशल है वे इनसे कई गुना मुनाफा अर्जित करते हैं। किसान जिस आलू और टमाटर को सड़क पर फेंकता है ब्रांडेड कंपनी उसी के चिप्स और सॉस के मनमाने दाम लेती है। कृषि तकनीक में पिछड़ने के कारण मिट्टी की जांच,उर्वरक चयन, फसल चक्र अपनाना,उन्नत बीज आदि के बारे में किसान अनभिज्ञ होता है। सरकारी सब्सिडी के लालच में किसान अनाजों का उत्पादन अधिक करते हैं, कैश क्रॉप्स में उनकी रूचि नहीं है।कृषि से होने वाली आय में वृद्धि नौकरी एवं व्यापार से होने वाली आय की वृद्धि की तुलना में नगण्य रही है। किसान को अपने जीवन के किसी भी दायित्व के संपादन(बच्चों की शिक्षा,विवाह,इलाज,गृह निर्माण) आदि के लिए कर्ज लेना पड़ता है। महाजनी कर्ज और बैंक के कर्ज में अंतर यह होता है कि वसूल करने के लिए गुंडों के स्थान पर पुलिस की मदद लेने का विकल्प बैंकों के पास खुला रहता है।
कृषि प्रधान ग्रामों में बसने वाले देश में जहां कृषि, रोजगार और राष्ट्रीय आय का मुख्य साधन है यह समस्याएं क्यों भयावह रूप लेती जा रही हैं? क्या हमारी प्राथमिकता विश्व मुद्रा के कोष के परामर्श के अनुसार शहरी आबादी को ग्रामों में स्थानांतरित करना,कृषि पर सब्सिडी को खत्म करना और लोगों को कृषि छोड़ने के लिए विवश करना है? ताकि वे कौशल विकास कर स्वयं से अर्जित भूमि पर बने कारखानों में मजदूरी कर सकें। गेहूं की कीमतों को नियंत्रित करने का तर्क देकर हम गेहूं पर आयात शुल्क हटा देते हैं तो हम किसे फायदा पहुँचाना चाह रहे हैं यह आसानी से समझा जा सकता है। जब हम ब्रिक्स देशों से यह करबद्ध निवेदन करते हैं कि वे दालों और खाद्य तेलों का उत्पादन करें ताकि हमें निर्यात कर सकें जबकि इनका कोई संकट देश में नहीं है तो हमारी प्राथमिकता के एजेंडे को समझना और भी सरल हो जाता है। संप्रग शासन के इन गिने जनहितैषी कार्यों में एक भूमि अधिग्रहण कानून में अब सहमति के मुद्दों, सोशल इम्पैक्ट असेसमेंट एवं मुआवजे आदि के निर्धारण अधिकार को राज्य सरकारों पर छोड़ कर पिछले दरवाजे से इसे कमजोर कर दिया गया है। आई एम एफ तथा देश के महानतम औद्योगिक घराने से प्राप्त अनुभव के धनी आर बी आई के गवर्नर श्री उर्जित पटेल का कहना है कि किसानों की कर्ज माफी का राज्यों की आर्थिक सेहत पर बुरा असर पड़ेगा और अपने राजकोषीय घाटे पर उन्हें पहले नजर डाल लेनी चाहिए। उनके पूर्ववर्ती रघुराम राजन और स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की अध्यक्ष अरुंधति भट्टाचार्य के अनुसार भी किसानों की कर्ज माफी क्रेडिट अनुशासन को बिगाड़ देगी। हाँ कॉर्पोरेट्स के एन पी ए की रिस्ट्रक्चरिंग से ऐसा कुछ नहीं होगा। यह उदाहरण हमारी प्राथमिकता को दर्शाते हैं। किसानों की अधिकाँश समस्याओं का समाधान सहकारिता में निहित है किंतु सहकारिता आंदोलन भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन की भेंट चढ़ाया जा चुका है। जो तर्क कभी निजीकरण के लिए दिया जाता था अब कॉर्पोरेटाइजेशन के लिए दिया जा रहा है, यह वह जादू की छड़ी है जिससे हमारे किसान मालामाल हो जाएंगे। यदि देशी कॉर्पोरेट चाहिए तो फोर्ब्स की सूची में गौरवशाली स्थान पाने वाले रोल मॉडल्स की कंपनी है, विदेशी चाहिए तो वालमार्ट आदि तो हैं ही।
किसानों की समस्याओं के समाधान उस ढाँचे को स्वीकार करने वाले विद्वानों के प्रयास हैं जो किसानों की वर्तमान स्थिति हेतु जिम्मेदार है। फलतः इनका दृष्टिकोण अर्थवादी है और किसानों तात्कालिक राहत दिलाने तक सीमित है। कुछ बड़े अर्थशास्त्री किसानों की समस्याओं का समाधान उत्पादन कम करने में देखते हैं और अमेरिकन मॉडल को अपनाने की सलाह देते हैं जिसमें भूमि को परती छोड़ने के बदले में सब्सिडी दी जाती है। इनका मानना है कि आज किसान हरित क्रांति के दुष्परिणामों को भोग रहे हैं। कुछ का कहना है कि ऋण की राशि का उपयोग कृषि कार्य में करने के स्थान पर किसान इससे उपभोग की वस्तुएं मोटर बाइक आदि लेते हैं।एक अन्य अधिक उपयोगी विचार किसानों के लिए न्यूनतम आय सुनिश्चित करने का है जिसमें भत्तों आदि का भी समावेश हो।
किसान आंदोलन में जन हानि अत्यंत दुःखद है और यदि मारे गए लोगों का किसी ने मोहरों के रूप में राजनीतिक इस्तेमाल किया है तो यह भी और पीड़ाजनक है। इस आंदोलन ने यह बता दिया है कि धर्म और संस्कृति के मुद्दे तभी अच्छे लगते हैं जब पेट के सवालों के जवाब मिल जाएं। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जब तक किसान धर्म,जाति, संप्रदाय और क्षेत्र के अनुसार मतदान न करके अपने व्यापक वर्गहित के अनुसार मतदान नहीं करेगा कोई दल उसकी सुनने वाला नहीं है। पूर्व के किसान आंदोलनों के नेतागण चाहे वे लोहिया,चौधरी चरण सिंह, वी पी सिंह जैसे राजनीतिज्ञ हों या महेंद्र सिंह टिकैत जैसे विशुद्ध किसान नेता, सम्पन्न किसानों का प्रतिनिधित्व करते रहे। इस किसान आंदोलन को समूचे कृषक वर्ग का एक प्रतिनिधि समूह मानना भी उचित नहीं है क्योंकि इसमें वे किसान मुख्य रूप से हैं जिनमें कर्ज लेने का साहस, संसाधन एवं भूमि तो थी। कम से कम ये इस योग्य तो थे कि व्यवस्था द्वारा प्रदत्त प्रावधानों का लाभ उठाने का प्रयत्न तो कर सके। उन लाखों भूमिहीन कृषि मजदूरों के शोषण के बारे में सोचने की बारी जाने कब आएगी जिनके जीवन में अनंत अन्धकार है। ऐसे असंतोषों को हल्के में लिया जाना खूनी संघर्ष का प्रारंभ बन सकता है। अंत में अप्रासांगिक कार्ल मार्क्स का एक प्रासंगिक कथन -Capitalism: Teach a man to fish, but the fish he catches aren’t his. They belong to the person paying him to fish, and if he’s lucky, he might get paid enough to buy a few fish for himself.

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