किसान ऋण माफ़ी योजनाएँ एवं उनके सामाजिक सरोकार

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डॉ. जीतेंद्र प्रताप

भारत सदियों से कृषि प्रधान देश रहा है। विगत वर्षों में या यूँ कहें आजादी के बाद से ही विविध सरकारों ने अपने-अपने तरीकों से किसानों का उपयोग ही किया है। लेकिन जिस तरह से आजकल किसान या उनके मुद्दे चर्चा में रह रहे हैं, वह खासकर एक किसान के लिए, थोड़ा चिंताजनक है। आज मीडिया के विविध माध्यमों में किसान की चर्चा प्रमुखता से हो रही है। प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया या फ़िर सोशल मीडिया, हर जगह ही किसानों के मुद्दों का शोर है। लोग किसानों के पक्ष और विपक्ष में अपने-अपने विचार बड़ी बेबाकी से रख रहे हैं। लेकिन वातानुकूलित कमरों में बैठकर डिबेट करने वाले लोगों को शायद ही किसानों के वास्तविक दुख और उनकी आर्थिक दशा का भान हो। भारत में किसान आत्महत्या का सवाल आज कोई नया नहीं है। यह लगभग १९९० के बाद से ही शुरु हुई स्थिति है, जिसमें प्रतिवर्ष दस हज़ार से अधिक किसानों के द्वारा आत्महत्या के आंकड़े दर्ज किए गये। सन् १९९७ से २००६ के अंतराल में लगभग १,६६,३०४ किसानों ने कर्ज न चुका पाने या गरीबी से तंग आकर मौत को गले लगा लिया। भारत में कृषि कार्य काफ़ी हद तक मानसून पर निर्भर है तथा मानसून की असफलता के कारण नकदी फसलें नष्ट हो जाती हैं। इससे किसान निराश हो जाता है और वह मृत्यु को वरण करने जैसे कदम को ही सबसे आसान कदम मान बैठता है। मानसून की विफलता, सूखा, कीमतों में वृद्धि, ऋण का अत्यधिक बोझ आदि परिस्तिथियाँ, समस्याओं की एक लंबी और लगभग कभी न खत्म होने वाली शृंखला का निर्माण करती हैं। बैंकों, महाजनों, बिचौलियों आदि के चक्र में फँसकर भारत के विभिन्न हिस्सों के किसानों ने आत्महत्याएँ की हैं। १९९० ई. में प्रसिद्ध अंग्रेज़ी समाचार में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जो किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या के बारे में थी। उसमें महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि राज्यों के किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं की चर्चा की गयी थी। तब लोगों का ध्यान इस विकराल समस्या की ओर ज्यादा आकृष्ट हुआ। अलग-अलग समय की अलग- अलग सरकारों ने इस समस्या पर विचार करने के लिए कई जाँच समितियाँ गठित कीं। बाद के वर्षों में भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्य सरकार द्वारा विदर्भ के किसानों पर व्यय करने के लिए ११० अरब रूपए के अनुदान की घोषणा की। लेकिन कृषि संकट के कारण महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, आंध्रप्रदेश, पंजाब, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी किसानों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएं आम होती गयीं। आज तो स्थिति और भयावह हो गयी है। वर्तमान में किसान आंदोलनों, किसानों द्वारा की गयी आत्महत्याएं या फ़िर गरीबी से तंग आकर किसानों के अपराध जगत की ओर कदम रखने के समाचार आम हो गये हैं। मुझे व्यक्तिगत तौर पर इस प्रकार के समाचारों को देखकर और सुनकर दुख होता है। हृदय कचोट उठता है। राजनीति की बात करें तो आज सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही के लिए किसान महज एक लोक लुभावन मुद्दा बनकर रह गया है। दोनों ही पक्षों में किसानों का सबसे बड़ा हितैषी दिखने की होड से लगी रहती है। इस होड में भले ही मंदसौर जैसी घटनाएं घट जाएं, उन दोनों को कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला, वे तो बस अपना ही उल्लू सीधा करना चाहते हैं। विपक्ष हर एक मुद्दे को लपकने की कोशिश करता है। ऐसे में सत्ता पक्ष को किसानों के हित में नीतियां बनाने या किसानों के लिए कुछ हितकर करने का दबाव भी रहता है। ऐसे में आज अधिकाधिक राज्य सरकारें और केंद्र सरकार किसानों के लिए ऋण माफ़ी योजनाओं का झुनझुना लेकर आती हैं। गौरतलब है कि चुनावपूर्व विविध राजनीतिक दल अनेक लोकलुभावन वादे करते हैं । जिसमें से किसानों का ऋण माफ़ कर देना भी एक होता है। इन वादों के झाँसे में आकर जनता उन्हें अपना सच्चा रहनुमा मान सत्ता सौंप देती है। सत्तासीन होने के बाद यही ऋण माफ़ी जैसी योजनाओं वाले वादे सरकारों के गले की हड्डी बन जाते हैं क्योंकि रिजर्व बैंक सहित तमाम वित्तीय संस्थाएं और अर्थशास्त्री इस प्रकार के फ़ैसलों की आलोचना करते हैं और यह तर्क देते हैं कि इस प्रकार की योजनाओं से लोगों में कर्ज न चुकाने की प्रवृत्ति को बल मिलता है और यह वित्तीय व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। खैर, केंद्र या राज्य सरकारें बैंकों के दबाव के बावजूद ऋण माफ़ी का ऐलान कर देती हैं। सतही तौर पर तो लगता है कि इस प्रकार के फ़ैसलों से किसानों को असीम राहत मिलेगी लेकिन ऐसा वास्तव में होता नहीं हैं। क्योंकि जिन लोगों को इसका फ़ायदा मिलना चाहिए, उन्हें इसका फ़ायदा मिल ही नहीं पाता है। इसे और अच्छे से समझने के लिए थोडा गहराई से विचार करना पड़ेगा। वास्तविकता यह है कि कृषि ऋण देने के नाम पर बैंक और उनके कर्मचारी जो बंदर बाँट करते हैं, वह किसानों के नाम पर किसानों के साथ छलावा भर है। आज एक गरीब किसान, जिसके पास जमीन कम है, या नहीं है, या खेतिहर मजदूर है, पढ़ा लिखा नहीं है, सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं है, वह जब बैंक मैनेजर के एयर कडीशन केबिन में कर्ज की स्वीकृति के लिए जाता है तो बहुत डरा होता है। वह अपनी टूटी हुई चप्पल केबिन के बाहर उतार कर सहमा हुआ अंदर जाता है और मैनेजर साहब से हाथ जोड़े कर्ज देने की विनती करता है। लेकिन एक ही झटके में मैनेजर बाबू उसकी तमाम उम्मीदों के किले को यह कहते हुए धराशायी कर देते हैं कि आप इस आवेदन पत्र को भर कर इतने लोगों को गवाही के लिए लाइए। साथ में ही उसे जरूरी दस्तावेजों की एक लिस्ट सौंप देते हैं। उस लिस्ट को देखकर ही किसान समझ जाता है कि इतनी औपचारिकता तो वह कभी भी पूरी नहीं कर पायेगा। वह अपनी बात से मैनेजर को अवगत कराता है। तभी मैनेजर तो जैसे यही सुनना ही चाहता था, वह उसे कह देता है कि दरवाजा उधर है, आप जा सकते हैं मुझे और भी ग्राहकों को डील करना है। कहने का मतलब पात्र और जरूरतमंद को लोन मिलना असंभव तो नहीं पर मुश्किल जरूर है। इसके विपरीत यदि किसी छुटभैये नेता का कोई जानकार, या सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त कोई व्यक्ति, या कोई दलाल लोन लेने का इच्छुक होगा तो वही मैनेजर बाबू लोन देने के लिए उसके घर तक दौड़े जायेंगे। यही नहीं, कई तो व्यवसायी और सरकारी कर्मचारी अपनी आर्थिक स्थिति की जानकारी छिपाकर मैनेजर बाबू की मिलीभगत से कृषि ऋण लेकर मजे कर रहे हैं। अब सवाल यह उठता है कि जब पात्र और गरीब किसानों को ऋण मिल ही नहीं पाता है उसके बदले अमीर लोगों को कृषि लोन मिल रहा हो तो ऋण माफ़ी की योजनाओं का लाभ भी तो उन्हीं लोगों के लिए ही हुआ न। मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि सरकारों द्वारा लागू की जाने वाली कृषि ऋण माफ़ी योजनाएं सामाजिक सरोकारों से काफ़ी दूर हैं। बैंकों की मिलीभगत से अपात्र और अमीर लोग उसका फ़ायदा उठा रहे हैं। वास्तविक गरीब, मजदूर, किसान इस तरह की योजनाओं से लाभान्वित होने वाला नहीं है। यदि सरकारें वास्तव में किसानों की हितैषी हैं, उनकी आत्महत्या और मंदसौर जैसी घटनाओं से इत्तफ़ाक रखती हैं, तो उन्हें सर्वप्रथम बैंकों को सामाजिक सरोकार का पाठ पढ़ाना पड़ेगा। साथ ही किसान ऋण माफ़ी योजनाओं के अलावा और भी बहुत कुछ सार्थक कदम उठाने होंगे। ताकि दिल्ली में किसान पेडों पर झूलता न मिले, मंदसौर की घटना दुबारा न हो, विदर्भ के किसानों को आत्महत्या से बचाया जा सके। कुल मिलाकर हमारे अन्नदाता के जीवन स्तर को सुधारा जा सके।

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