धर्मनिरपेक्षता का पहाड़ा मत पढ़ाइए फारूक साहब

-अरविंद जयतिलक-
INDIA-POLITICS-UNREST

हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणापत्र में धारा 370 को बहुत प्रमुखता नहीं दी है, लेकिन जिस तरह केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला ने पिछले दिनों भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को वोट देने वालों को समुद्र में डूब जाने की तकरीर की और मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर कश्मीर को भारत से अलग होने की धमकी दी, वह देश की एकता व संप्रभुता को लहूलुहान करने वाला है। समझना कठिन है कि आखिर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से किस तरह जम्मू-कश्मीर भारत से अलग हो जाएगा और धर्मनिरपेक्षता खतरे में पड़ जाएगी? क्या मोदी देश के नागरिक नहीं हैं? या उन्हें भारतीय संविधान प्रधानमंत्री बनने से रोकता है? अगर ऐसा नहीं तो फिर फारूक अब्दुल्ला कौन होते हैं जो किसी को सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट बांटे और यह तय करें कि देश का प्रधानमंत्री कौन होगा? भारत एक लोकतांत्रिक देश है। देश की जनता तय करती है कि देश का प्रधानमंत्री कौन होगा। बेशक फारूक अब्दुल्ला को भारतीय जनता पार्टी और उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की नीतियों की आलोचना का अधिकार है। लेकिन जब वे देशतोड़क बयान के जरिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खेल रचेंगे तो उनकी देशभक्ति और धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठेगा ही। बहरहाल, वे अपने बयान से उन अलगाववादियों की कतार में खड़े हो गए हैं जो एक अरसे से पाकिस्तान के इशारे पर जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने का कुचक्र रच रहे हैं।

फारूक को स्पष्ट करना चाहिए, जब उनके सुपुत्र उमर अब्दुल्ला अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री थे, तब भाजपा और नरेंद्र मोदी किस तरह सांप्रदायिक नहीं थे और अचानक ऐसा क्या हुआ जो सांप्रदायिक हो गए? और कैसे उन्हें लग रहा है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने से कश्मीर अलग हो जाएगा? क्या वे इस मुगालते में हैं कि जम्मू-कश्मीर उनके रहमोकरम पर भारत का अंग है? या उनके कहने मात्र से वह भारत से अलग हो जाएगा? बहरहाल, उनकी सोच सामंती और धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है। उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर को क्षत-विक्षत करने और धर्मनिरपेक्षता को तबाह करने के लिए उनके पूर्वज और वे स्वयं जिम्मेदार रहे हैं। कौन नहीं जानता कि उनके पिता शेख के शासन में ऐसी नीतियां बनी जिससे कश्मीरी पंडितों को अपना भविष्य बचाना मुश्किल हो गया। शेख अब्दुल्ला ने दमनकारी नीति ‘बिग लैंड एबोलिशन एक्ट’ पारित किया जिससे सर्वाधिक नुकसान हिंदुओं का ही हुआ। इस कानून के तहत हिंदू मालिकों को कोई हर्जाना दिए बगैर ही उनकी कृषि भूमि छीनकर जोतने वालों को दे दी गयी। हिंदुओं ने मुसलमानों को जो कर्ज दिया था उसे भी सरकार ने ‘ऋण निरस्तीकरण योजना’ के तहत समाप्त कर दिया। सरकारी सेवाओं में आरक्षण सुनिश्चित कर घाटी के हिंदुओं को सिर्फ 5 फीसद स्थान दिया गया। यह प्रकट रूप से सरकारी नौकरियों में हिंदुओं पर पाबंदी थी। इसके चलते हिंदुओं को न सिर्फ बेरोजगार होना पड़ा, बल्कि घाटी छोड़ने के लिए भी मजबूर होना पड़ा। फारूक अब्दुल्ला को बताना होगा कि उनके पिता ने किस तरह धर्मनिरपेक्षता की रक्षा की? शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद उनके रिश्तेदार गुलाम मोहम्मद शाह ने अपने 20 माह के शासन में घाटी में कश्मीरी पंडितों पर कम जुल्म नहीं ढाया। जनमत संग्रह मोर्चा गठित कर आत्मनिर्धारण के अधिकार का प्रस्ताव रखा। पाठ्यपुस्तकों में हिंदुओं के खिलाफ नफरत पैदा करने वाले विषय रखे। पंथनिरपेक्षता के विचार को तहस-नहस किया। पूजा स्थलों के विरूद्ध कड़ी कार्रवाई की। मंदिरों व धर्मशालाओं को नष्ट किया। कश्मीरी पंडित सिर्फ इसलिए निशाना बनाए गए कि वे ईमानदार और देशभक्त थे। जब शाह ने जम्मू में नई सीविल सेक्रिटेरिएट में एक हिंदू मंदिर के परिसर में शाह मस्जिद का निर्माण कराया तो हिंदुओं का भड़कना स्वाभाविक था। लेकिन इसकी कीमत उन्हें जान गंवाकर चुकानी पड़ी। शाह ने स्थानीय मुसलमानों को भड़काया और अफवाह फैलायी कि जम्मू में हिंदू मस्जिदों को गिरा रहे हैं। नतीजा घातक सिद्ध हुआ। 19 जनवरी 1990 को बड़े पैमाने पर घाटी में कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ। रालिव, गालिव और चालिव का नारा दिया गया। यानी कश्मीरी पंडित धर्मांतरण करें, मरें या चले जाएं। यही नहीं हिंदुओं के 300 गांवों के नाम बदलकर इस्लामपुरा, शेखपुरा और मोहम्मदपुरा कर दिया गया। हिंदुओं के समतल कृषि भूमि को वक्फ के सुपुर्द किया गया। अनंतनाग जिले की उमा नगरी जहां ढाई सौ हिंदू परिवार रहते थे, उसका नाम शेखपुरा कर दिया गया। फारूक अब्दुल्ला को बताना होगा कि यह किस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता थी? क्या इस पर गर्व किया जा सकता है? अभी चंद माह पहले किश्तवाड़ में दंगा भड़का था। उमर सरकार हाथ पर हाथ धरी बैठी रही। अलगाववादियों ने हिंदू घरों को जलाया और लूटा। विरोध करने पर हत्याएं की। आखिर किस मुंह से उमर अब्दुला खुद को धर्मनिरपेक्ष कहेंगे? अगर ऐसे में नरेंद्र मोदी उनकी धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़ा करते हैं या जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की बर्बादी के लिए अब्दुल्ला परिवार को जिम्मेदार ठहराते हैं तो अनुचित क्या है? कश्मीर सूफी परंपरा की धरती रही है। यह परंपरा कश्मीरी इस्लाम को हिंदुओं के प्रति सहिष्णु बनाती है। लेकिन सवाल यह कि क्या कश्मीर के हुक्कामों ने कश्मीरी पंडितों के प्रति सहिष्णुता का परिचय दिया? क्या धर्मनिरपेक्षता बनाए रखा? सवाल ही नहीं उठता। सच तो यह है कि आज कश्मीरी पंडित अपने ही घर में बेगाने हैं। लाखों की संख्या में दिल्ली समेत देश के अन्य हिस्सों में दर-दर का ठोकर खा रहे हैं। उनके जमीन और मकानों पर अलगाववादी तत्वों का कब्जा है। धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करने वाले फारूक अब्दुल्ला और उनके सुपुत्र उमर अब्दुल्ला को जवाब देना चाहिए कि उनकी सरकार ने कष्मीरी पंडितों को घाटी में वापसी के लिए क्या पहल की? आखिर कश्मीरी पंडित घाटी में वापसी को तैयार क्यों नहीं हैं? क्या यह रेखांकित नहीं करता है कि जम्मू-कश्मीर में धर्मनिरपेक्षता नाम की कोई चीज नहीं रह गयी है? फिर वे किस मुंह से नरेंद्र मोदी को सांप्रदायिक और खुद को धर्मनिरपेक्ष बता रहे हैं? गौर करें तो कश्मीर में घोर सांप्रदायिकता के लिए सिर्फ अब्दुल्ला खानदान ही जिम्मेदार नहीं है। कांग्रेस भी बराबर की गुनाहगार है। यह प्रधानमंत्री पंडित नेहरु की भूल रही जो उन्होंने शेख अब्दुल्कोला कश्मीर का ‘प्रधानमंत्री’ बनाया। यही नहीं, उनके सलाह पर भारतीय संविधान में धारा 370 का प्रावधान भी किया। जबकि न्यायाधीश डीडी बसु ने इस धारा को संविधान विरूद्ध और राजनीति से प्रेरित बतलाया। खुद डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इसका विरोध किया और इस धारा को जोड़ने से मना किया। किंतु प्रधानमंत्री नेहरु नहीं मानें। उन्होंने रियासत राज्यमंत्री गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा 17 अक्टूबर 1949 को यह प्रस्ताव रखवाया और कश्मीर के लिए अलग संविधान की स्वीकृति दे दी। उस समय देश के महान नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो विधान, दो प्रधान और दो निशान के विरुद्ध देशव्यापी आंदोलन किया। परमिट व्यवस्था को तोड़कर श्रीनगर गए। लेकिन एक साजिश के तहत जेल में उनकी हत्या कर दी गयी।

धारा 370 का ही कुपरिणाम है कि आजादी के साढ़े छः दशक बाद भी भारतीय संविधान जम्मू-कश्मीर नहीं पहुंचा है। जम्मू-कश्मीर की सरकार राष्ट्रीय एकता और अखंडता के खिलाफ कार्य भी करती है तब भी राष्ट्रपति को राज्य का संविधान बर्खास्त नहीं कर सकता। संविधान की धारा 356 और धारा 360 जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है, वह भी जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं है। यहां 1976 का शहरी भूमि कानून भी लागू नहीं। देश के दूसरे राज्य के लोग यहां आकर बस नहीं सकते। न ही कोई उद्योग-धंधा लगा सकते हैं। इस प्रावधान के कारण ही यहां कोई निवेशक पूंजी लगाने को तैयार नहीं। नतीजा घाटी में बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही है और आतंकी जमात उन्हें बरगलाने में कामयाब हैं। इस प्रावधान से कश्मीरी पंडितों का संवैधानिक अधिकार छिन गया है। इन परिस्थितियों में अगर भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी धारा 370 की प्रासंगिकता पर बहस चलाते हैं, या कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी का सवाल छेड़ते हैं तो वह किस तरह सांप्रदायिक हो गए? क्या इस देश में जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने की धमकी देने वाला ही देशभक्त और धर्मनिरपेक्ष कहा जाएगा? आश्चर्य यह कि धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढ़ रखे किसी भी ठेकेदार ने फारूक के बयान की निंदा नहीं की और न ही उनके खिलाफ चुनाव आयोग तक दौड़ लगायी। आखिर क्यों?

6 COMMENTS

  1. कश्मीर मात्र ७ % सारे जे & के का ७% क्षेत्र रखता है।
    लेखक अरविन्द जय तिलक जी ने तथ्यों सहित समस्त आलेख लिखा है।
    अब्दुल्ला को एक और तथ्यात्मक बात बतानी होगी।
    सारी कश्मीर घाटी क्षेत्रफल में सारे कश्मीर(जम्मु, कश्मीर और लद्दाख) की मात्र ७ % (जी हाँ ७ %)भूमि ही व्यापता है।
    अब्दुल्ला जी, आप अलग होकर कितनी बडी, सेना रखोगे?
    ३/४ सीमा आपकी भारत से सटी होगी। कौनसे उत्पाद होंगे आपके? क्या पाकिस्तान से मिलकर, फिर कुछ वर्षों में ही, बंगला देश की भाँति अलग हो जाओगे? और फिर बंगलादेश की भाँति ही भारत में अपने नागरिकों को भेजकर नौकरियाँ माँगोगे? तो अब क्या बुरा है?
    आप को हम बुद्धिमान मानते हैँ। इन बिंदुओं पर भी सोच लो।

  2. यू पी ए सरकार के केंद्रीय मंत्री तथा कश्मीर के सर्वोच्च नेता माननीय श्री फारूक अबदुल्लाह साहेब के चरित्र ,राष्ट्रनिष्ठा तथा संविधान की धारा ३७० के विषय में जो पाठक सही सही जानकारी प्राप्त करना चाहें वे श्रीं जगमोहन द्धारा श्री राजीव गांधी को अप्रैल १९९० में लिखे गये पत्र को अवश्य पढें। इन हज़रत का बेनकाब चेहरा आपके सामने आ जायेगा

  3. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में उमर अब्दुल्ला विदेश राज्य मंत्री थे। एक बार जब विश्वास प्रस्ताव पर बहस चल रही थी तो उमर साहब ने वाजपेयी सरकार के समर्थन में बोलते हुए कहा था की “मैं भारतीय पहले हूँ फिर कश्मीरी और फिर मुस्लिम” > अब वो कांग्रेस के साथ हैं। फारूख साहब को केन्रीय सरकार में मंत्री पद दे रखा है लेकिन किसी को यह पता नहीं, शायद फारूख साहब को नहीं, की उन के पास कौन सा मंत्रालय है और उस मैं वे क्या करते हैं।
    उन्हें यह विश्वास है की उन का मंत्री पद सुरक्षित है। मैंने कश्मीर का इतिहास, विशेषकर १९४६ के बाद की घटनाओं के सन्दर्भ में काफी पढ़ा है और मेरी दृष्टि में कश्मीर पर, नरेन्द्र मोदी का ताज़ा बयान सब से अधिक स्पष्ट, बेखौफ और बेबाक है। अगर ऐसा बयान कभी पहले किसी नेता ने दिया होता तो वही हमारा नायक होता। एक बार ही कश्मीर को जगमोहन नाम का साहसी राज्यपाल मिला था लेकिन अफ़सोस उसे काम नहीं करने दिया गय। फारूक के बदले में उमर अब्दुल्ला अधिक समझदार है लेकिन वह राजनीती की दल दल में फ़ांस गय है। देश को अब एक साहसी प्रधान मंत्री चाहिए जो इन समस्याओं पर व्यवाहरिक तौर से सोच समझ कर निर्णय ले सके। गत छह महीने में नरेंद्र मोदी ने स्वयं को तैयार कर लिय है, उन के बोलणे, बतियाने में, भाषण देने में, राश्ट्रीय समस्याओं को समझने में एक परिपक्वता आयी है। वे अब बदले की बात की अपेक्षा बदलाव कि बात करते हैँ, विकास के मुद्दे पर बहस करते हैं , अन्तर राष्ट्रीय स्तर पर उन की एक पह्चान बनी है। मैं यह टिप्पणी कनाडा से लिख रह हुँ – यहाँ का एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र है – The Globe and Mail – भारत के बारें में यहाँ के पत्रोँ में, और इस पत्र में तो विशष रुप से, मुश्किल से ही कुछ पढ्ने या देखने को मिलता हैं लेकिन गत डेढ़ महिने के समय में इस पत्र में भारत के चुनाव पर विशेष सामग्री के साथ पूरे पूरे पृष्ठों के संस्करण निकलें हैँ। इस पत्र ने यद्यपि अपनी तरफ़ से संतुलन बना ने का पूरा प्रत्यन किया है फिर भी झुकाव मोदी की तरफ़ ही है। मेरा अभिप्रायः यही था की फारूक साहब को थोड़ा संयम बरतना चाहिए। मोदी के बारे मैं अथवा देश के भविश्य के बारे में इस तरह की निर्णयात्मक टिप्पणी करना उन्हेँ शोभा नहीँ देता।

  4. फारूख इस ग़लतफ़हमी में ज़ी रहे हैं कि कश्मीर आज भी उनकी रियासत है और वे वहां के राजा हैं उनके भाषण से लगता है कि वहां जो कुछ भी होगा उनकी मर्जी से ही होगा वैसे कश्मीर नीति को अब्दुल्ला परिवार और कांग्रेस ने जितना नुकसान पंहुचाया है उतना किसी ने नहीं आज भी वे सत्ता में रह अलगाववाद की नीति पर छुपे क़दमों से चल रहे हैं यदा कदा उनके बयां ऐसे होते हैं गया वे भारत में बड़े अहसान से रह रहे हैं जब की कश्मीर पर सारा धन केंद्र जनता के पैसे से खर्च करता है उसके राजस्व के साधन बहुत सीमित है फारूख का दोगलापन शुरू से ही ऐसा ही रहा है जितनी ऐश इस परिवार ने की है उतनी कश्मीर में किसी ने नहीं की

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