फैशन पर भारी व्यवसायिकता

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-निर्मल रानी-
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भारतवर्ष के उपभोक्ता इन दिनों महंगाई की चौतरफा मार झेल रहे हैं। रोज़मर्रा के इस्तेमाल की वस्तुएं तथा खाद्य सामग्री आए दिन महंगी होती जा रही हैं। पैकिंग वाली वस्तुओं में तो जब देखो कंपनियां अपने उत्पाद के मूल्य बढ़ा देती हैं। जबकि उनका वज़न कम कर देती हैं। दैनिक उपयोगी वस्तुओं तथा खाद्य सामग्री की ही तरह फैशन जगत पर भी व्यवसायिकता पूरी तरह हावी हो चुकी है। ऐसा प्रतीत होता है कि औद्योगिक घरानों तथा उत्पादकों ने उपभोक्ताओं को फैशनपरस्ती तथा खानपान के कथित ‘स्टैंडर्ड’ के नाम पर दोनों हाथों से लूटने का मन बना लिया है। और आम उपभोक्ता फैशनपरस्ती तथा दिखावे के इस चक्रव्यूह में इतनी बुरी तरह उलझ गया है कि वह प्राय: न चाहते हुए भी इन व्यवसायिक व व्यापारिक कुचक्रों का बड़ी आसानी से शिकार होता जा रहा है। यदि हम यहां खानपान के मौजूदा चलन की बात करें तो आजकल अधिक यातायात वाले राजमार्ग पर मैक्डोनल्ड,केएफसी,हल्दी राम तथा इन जैसे दूसरे कई व्यवसायियों ने करोड़ों रुपये खर्च कर बड़े ही आलीशान व भव्य रेस्टोरेंट बना रखे हैं। यहां जाकर बैठना व खाना-पीना लोग अपनी शान समझते हैं। दस रुपये की वस्तु सौ रुपये में खुश होकर खरीद कर खाते हैं तथा इन रेस्टोरेंट के सामने खड़े होकर अपनी फोटो खिंचवाते हैं ताकि वे लोगों को दिखा सकें कि आज उन्होंने अमुक रेस्टोरंट में नाश्ता या खाना खाया। भारतीय उपभोक्ताओं की जेब से यह व्यवसायी केवल दिखावे,सफाई तथा फर्नीचर व बिल्डिंग आदि के रखरखाव के बदले में अपने किसी भी उत्पाद की दस गुणा कीमत वसूलते हैं। ज़ाहिर है जब उपभोक्ता स्वयं जाकर उन्हें स्वेच्छा से उनके प्रत्येक उत्पाद के बदले उनकी मुंह मांगी कीमत देने को तैयार है तो व्यवसायियों के लिए आिखर व्यवसाय का इससे अच्छा अवसर और हो भी क्या सकता है?

पिछले दिनों एक ऐसे ही बहुचर्चित हाईवे रेस्टोरेंट में इत्तेेफाक से किसी साथी के साथ जाने का अवसर मिला। मैंने जलेबी खाना पसंद किया। 80 रुपये की 200 ग्राम जलेबी लाकर दी गई। विश्वास कीजिए कि जलेबी को नमकीन सेविंयों की तरह अत्यंत पतला-पतला बनाय गया। ऐसा सिर्फ इसलिए किया गया था ताकि गिनती में वह जलेबियां 200 ग्राम में ज़यादा चढ़ें। उसमें पीला रंग भी मिलाया गया था। और इसका स्वाद भी इतना घटिया था कि कोई व्यक्ति खुश होकर वह जलेबी नहीं खा सकता था। जलेबी देखकर यह कहावत चरितार्थ होती दिखाई दे रही थी कि ऊंची दुकान-फीका पकवान। दूसरी ओर हमारे शहर में अत्यंत स्वादिष्ट साफ-सुथरी व बिना रंग के तैयार की जाने वाली लज़्ज़तदार जलेबी मात्र 120 रुपये किलो मिलती है। अब ज़रा सोचिए कि सौ रुपये व चार सौ रुपये के मध्य कितना अंतर है। परंतु फिर भी उपभोक्ता अपने शहर की पारंपरिक व प्राचीन दुकानों को छोडक़र बड़े व्यवसायिक घरानों की जेबें भरने को तैयार हैं। यह जानते हुए भी कि उसे इन बड़े व्यवसायिक घरानों द्वारा अच्छी तरह से लूटा-खसोटा जा रहा है।

ठीक इसी प्रकार फैशन जगत में भी औद्योगिक घरानों का फैशन डिज़ायनर्स के साथ गहरा तालमेल दिखाई दे रहा है। यहां भी वही फार्मूला प्रचलित हो चुका है कि माल कम और मूल्य अधिक। मिसाल के तौर पर 3-4 दशक पहले तक महिलाओं में गरारा,घाघरा तथा सलवार सूट आदि प्रचलित व स्वीकार्य ड्रेस था। आज भी हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार व राजस्थान जैसे राज्यों में गांव में वरिष्ठ महिलाएं गरारा व घाघरा पहने देखी जा सकती हैं। इसी के साथ-साथ महिलाओं के लिए सलवार के साथ घुटने से नीचे तक लंबी क़मीज़ें प्रचलन में आईं। समय बदलने के साथ-साथ गरारा व घाघरा तो बिल्कुल ही फैशन से बाहर हो गया। जबकि सलवार में भी दजिऱ्यों ने एक नया शार्टकट अपनाना शुरु कर दिया। अर्थात् पूरे घेरे की सलवार सीने के बजाए सलवार के ऊपरी हिस्से में बैल्ट लगाई जाने लगी। पहले तो यह गरारे व पूरे घेरे की सलवार में जहां पांच मीटर कपड़ा लगा करता था वहीं अब बेल्ट वाली सलवार में दर्जी फैशन के नाम पर तीन मीटर में ही काम चला देता है। परंतु कपड़े की इस बचत का लाभ वह अपने ग्राहक को नहीं देता। अब भी दरज़ी पहले की ही तरह पांच मीटर कपड़ा एक सूट के लिए ग्राहक से मांगता है। यह तो रही दरज़ी और फैशन के बीच की बात। अब ज़रा रेडीमेड फैशन की तरफ नज़र डालिए। जींस की रेडीमेड पेंट का फैशन गत् 4 दशकों से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहा है। पहले जींस ढीली-ढाली व आरामदेह लिबास के तौर पर पहनी जाती थी। अब इसकी जगह शरीर से चिपकी हुई यानी स्किन टाईट जींस ने ले ली है। ज़ाहिर है इन पहनावों में भी पहले से कम कपड़ा लगता है जबकि कीमत पहले से ज़्यादा वसूली जा रही है। इसी प्रकार पैंट व हाफ पैंट के बीच का एक लिबास फैशन में आया जिसको कैपरी का नाम दिया गया। यह ड्रेस हालांकि देखने में भी बहुत अजीब सी प्रतीत होती है। परंतु एक-दूसरे को देखकर इसने भी काफी लोकप्रियता हासिल की। किसी अच्छी कंपनी की कैपरी भी पैंट से अधिक मूल्य की ही मिलती है। यानी यहां भी कपड़े की खपत कम और ग्राहक से वसूली जाने वाली कीमत ज़्यादा। कुछ यही हाल शर्ट या कमीज़ का भी है। शर्ट की जगह शॉर्ट चलने लगे। पैंट कमर से नीचे बांधी जा रही है तो शर्ट कमर से ऊपर को जाती दिखाई दे रही है। गोया पैंट का कपड़े में भी कटौती और शर्ट के कपड़ों में भी कमी। परंतु चूंकि यह गारमेंट वर्तमान फैशन के अनुरूप हैं इसलिए उनकी कीमत ग्राहक को सामान्य ड्रेस से ज़्याद चुकानी पड़ती है। टीशर्ट से डिज़ायनर्स ने जेब गायब कर दी है। कॉलर भी लगभग समाप्त कर दिए गए हैं। यानी कपड़ा बचाने का उपाय ढंूढा गया है तो दूसरीओर फैशन के नाम पर रेट बढ़ा दिए गए हैं। इसी प्रकार महिलाओं व पुरूषों की फैशन संबंधी तमाम कुछ ऐसी हैं जिनमें नाममात्र कपड़ा खपाया जा रहा है तथा इनकी कीमत कई-कई गुणा वसूल की जा रही है।

यदि आप जूता व चप्पल के उद्योग पर नज़र डालें तो वहां भी यही सब देखने को मिलेगा। पहले पांच सौ रुपये से लेकर हज़ार रुपये के बीच चमड़े के अच्छी िकस्म के मज़बूत व टिकाऊ जूते मिल जाया करते थे। अब ज़रा किसी ब्रांडेड कंपनी के शोरूम में दािखल हो कर देखिए। दो हज़ार रुपये से लेकर चार व पांच हज़ार रुपये की कीमत में आपको केवल फोम,रेक्सीन,कपड़े,नेट तथा प्लास्टिक व नायलॉन आदि से तैयार चटकीले रंग के आकर्षक दिखाई देने वाले जूते व चप्पल मिलेंगे। और इतनी कीमत देने के बाद आप इन्हें एक साल से अधिक इस्तेमाल भी नहीं कर सकते। उपभोक्ताओं को दोनों हाथों से लूटने वाले इन्हीं व्यवसायियों ने आजकल यह वाक्य भी प्रचलित कर रखा है कि- फैशन के इस दौर में गारंटी-न बाबा न। यानी दुकानदार व व्यापारी ग्राहक से किसी उत्पाद के बदले अधिक कीमत तो वसूलना चाहता है परंतु उसके बदले में न तो उसे टिकाऊ व मज़बूत चीज़ देता है न ही उसकी कोई गारंटी लेना चाहता है। इलेक्ट्रीकल क्षेत्र में भी औद्योगिक घरानों द्वारा ऐसे ही प्रयोग किए जा रहे हैं। मिसाल के तौर पर पंखे के जो ब्लेड पहले एल्यूमिनियम के हुआ करते थे वह बाद में लोहे अथवा टीन के ब्लेड के रूप में परिवर्तित हुए। और आजकल यही ब्लेड प्लास्टिक अथवा फाईबर के लगाए जा रहे हैं। जो मोटर तांबे के तार से बनाई जाती थी उसकी जगह अब एल्युमीनियम की तार का इस्तेमाल किया जा रहा है। यहां भी यह गौरतलब है कि जब एल्यूमीनियम के भारी ब्लेड होते थे तब पंखों की कीमत सबसे कम थी और अब जबकि प्लास्टिक व फाईबर लगाकर पंखे को पहले से अधिक कमज़ोर बना दिया गया है यहां तक कि उनकी मोटर भी तांबे के बजाए एल्मूनियम के तार से बांधी जा रही है तब इनकी कीमत पहले से चार गुणा अधिक हो चुकी है। परंतु ग्राहक की मजबूरी यह है कि अब बाज़ार में ऐसे ही उत्पाद फैशन में आ चुके हैं और व्यवसायिकता पूरी तरह से फैशन पर हावी हो चुकी है।

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