राजनीति में स्वयंसेवक व्रत निभाएं: मोहन राव भागवत

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19 मार्च, 2008 को सीरी फार्ट आडिटोरियम, नई दिल्ली में भारत के पूर्व उपप्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी की आत्मकथा ‘माई कंट्री-माई लाइफ’ के लोकार्पण समारोह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक(तत्कालीन सरकार्यवाह) मा. मोहनराव भागवत ने अत्यंत प्रेरक और सारगर्भित उद्बोधन दिया। समारोह में जहां मंच पर श्री आडवाणी समेत पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम, पूर्व उपराष्ट्रपति श्री भैरों सिंह शेखावत, सुप्रसिद्ध पत्रकार चो. रामास्वामी समेत अनेक दिग्गज विराजमान थे वहीं श्रोतादीर्घा में बड़ी संख्या में देश-विदेश के गणमान्य जन भी उपस्थित थे।

इस अवसर पर मा. मोहनराव भागवत द्वारा दिया गया उद्बोधन सार्वजनिक जीवन में कार्य करने वाले स्वयंसेवकों के बीच पाथेय रुप में सदैव ही चिंतन और मनन करने के उपयुक्त है। भारतीय जनता पार्टी ने इंदौर में आयोजित राष्ट्रीय परिषद और राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में विधिवत् रुप से श्री नितिन गडकरी के रुप में नया अध्यक्ष निर्वाचित किया है। शीघ्र ही वह भारतीय जनता पार्टी के नवीन पदाधिकारियों की भी घोषणा करेंगे। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी में कार्यरत स्वयंसेवकों को ध्येयदिशा में प्रेरित कर सकने में मा. मोहनराव भागवत द्वारा दिये गये उद्बोधन का पुनर्स्मरण कराना प्रासंगिक है। पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है उद्बोधन का पूर्ण पाठ- संपादक

पुस्तक के बारे में बोलने के लिए मुझे कहा गया है। वस्तुतः आडवाणीजी और मुझमें आयु की दृष्टि से लगभग एक पूरी पीढ़ी का अंतर है। उनसे बहुत ज्यादा व्यक्तिगत् सम्बंध बनाने का अवसर भी नहीं आया। पुस्तक भी दो दिन पहले मिली। लगभग 900 पृष्ठों की पुस्तक दो दिन में पढ़ना संभव नहीं था। निमंत्रण मिला तो मैं विचार करने लगा कि मैं इस कार्यक्रम में उपस्थित रहूं, इसका आग्रह क्यों है। तुरंत मुझे ध्यान में आया कि आडवाणीजी भी स्वयंसेवक हैं और मैं भी स्वयंसेवक हूं। यहां पर मेरी उपस्थिति का यही एकमेव कारण बनता है।

अब स्वयंसेवकत्व का रिश्ता क्या होता है। वास्तव में जो स्वयंसेवक है, वही अपने अनुभव से इसे समझ सकता है। बाहर के व्यक्ति के लिए इसकी कल्पना करना भी कठिन है, समझना तो दूर की बात है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक कोई ‘मेंबर’ नहीं है, वह सिर्फ एक विचारधारा को पकड़कर कार्य करने वाला कार्यकर्ता भी नहीं होता है। उसका जो जीवन होता है वह जीवन ही स्वयंसेवकत्व का द्योतक होता है। ह्रदय में अपनी अस्मिता के प्रति पूर्ण गौरव, मातृभूमि के अखण्ड रूप की सतत्- उत्कट भक्ति, कथनी और करनी समान रहे, ऐसा जीवन बिताने की उत्कृष्टता और कुशलता का सतत् अभ्यास और प्रयास, इसके पूर्व अपने देश, अपने समाज के प्रत्येक व्यक्ति के साथ निरपेक्ष, निर्मोही आत्मीयता जिसे गीता में अनभिस्नेह कहा है, यही आत्मीयता संघ कार्य का आधार है।

देश में कुछ लोग विद्वेष को आधार बनाकर काम करते हैं पर स्वयंसेवक ऐसा नहीं करता, कर नहीं सकता। स्वयंसेवकत्व का पहला और प्रमुख लक्षण है- देश और समाज के प्रति निर्मल आत्मीयता। और ऐसे ही एक स्वयंसेवक हैं आडवाणीजी। इसीलिए पीढ़ी में, आयु में छोटा होने के कारण, यद्यपि संबंध भी अभी नए ही बने हैं, पुस्तक पढ़ी या नहीं पढ़ी, लेकिन स्वयंसेवक के नाते के कारण उन्हें ऐसा लगा कि इस अवसर पर मेरी उपस्थिति भी होनी चाहिए, सो मैं यहां उपस्थित हूं।

पूरी पुस्तक तो मैंने नहीं पढ़ी लेकिन उसकी प्रस्तावना और मनोगत को मैंने ध्यान में लिया है। मैंने पुस्तक के प्रारंभ में उल्लिखित समर्पण पत्र भी पढ़ा। इसके चार चरण है। पहले चरण में पुस्तक सर्वप्रथम भारत की जनता को समर्पित की गई है। दूसरे चरण में इसे सहयोगी कार्यकर्ताओं को अर्पित किया गया है। तीसरे में उन दो महापुरुषों को पुस्तक समर्पित की गई है, जिन्होंने जीवन में प्रेरणा पैदा की- श्रद्धेय राजपाल जी पुरी और श्रद्धेय पंडित दीनदयाल उपाध्याय। और चौथा, सहज ही परिवार को, क्योंकि एक व्यक्ति के नाते सफलता का श्रेय तो व्यक्ति को मिलता है लेकिन उसके पीछे परिवार की मूल भूमिका रहती है।

किसी स्वयंसेवक से उसके जीवनवृत्त के लेखन के लिए जो अपेक्षा की जाय तो वैसा ही समर्पण पत्र लिखा है आडवाणीजी ने। समाज के लिए स्वयंसेवक काम करता है, परस्पर आत्मीयता से काम करता है और काम करते समय मार्गदर्शन के लिए उसके बीच दीप स्तंभ के समान कुछ जीवन होते हैं, जीवंत और प्रेरणादायी…। कोई कहानियों से या चरित्र पढ़कर ही हम प्रेरणा नहीं लेते, वरन् प्रत्यक्ष जीवन हम देखते हैं, अपनी आंखों के सामने… उनका परिचय और चरित्र पढ़कर हमने उन्हें नहीं जाना, प्रत्यक्ष जीवन हमने देखा है, ऐसे आदर्श जीवन जो हमारे जीवन को एक ध्येयमार्ग पर प्रेरित करते रहे, ऐसे श्रेष्ठ और आदर्श जीवन संघ में हमने देखे हैं।

और ऐसा हमारा भी जीवन बने, तो इसके लिए कर्तत्व स्वयं करना पड़ता है, लेकिन पीछे जो परिवार होता है, उसे भी व्रत लेना पड़ता है। आदर्श के लिए परिवार भी व्रतस्थ हो जाता है तो इस प्रकार की सभी बातों को मिलाकर एक स्वयंसेवक का जीवन बनता है।

स्वयंसेवक का जीवन आज के जमाने में, और वह भी राजनीति में! स्वयंसेवक जीवन का यापन राजनीति में सचमुच बहुत कठिन है। सभी लोग इस बात को जानते और समझते हैं। लेकिन जीवनयापन करना पड़ता है, करना है, इसलिए यह स्वयंसेवक व्रत और भी कठिन हो जाता है।

मैं एक कहानी सुनाता रहता हूं। भारतीय जनता पार्टी में काम करने वाले जो लोग यहां बैठे हैं, उनको मैंने पहले भी यह कहानी सुनाई थी। विशेषकर राजनीति में काम करने वाले हमारे स्वयंसेवक कार्यकर्ताओं को क्या करना है, और वह कितना कठिन है, फिर भी उसे क्यों करते रहना है, इसका दर्शन कराने वाली यह एक छोटी सी पुरानी कहानी है।

एक गांव में प्रत्येक घर-झोपड़ी में गृहस्थ लोग रोज होम-हवन करते थे। खुशी से सभी अपना जीवन चलाते थे। एक घर में जहां रोज हवन होता था, वहां एक दिन सायंकाल हवनकुण्ड की साफ-सफाई के समय गृहस्वामी को हवन कुण्ड में सोने का टुकड़ा मिला। गृहस्वामी ने पूरे गांव से पूछा कि ये कहीं गलती से किसी भाई या बहन का गिर तो नहीं गया लेकिन उसे इसका उत्तर नहीं मिला। लोगों ने कहा कि कुछ गिरेगा तो अंगूठी या माला गिर सकती है, सोने का टुकड़ा लेकर तो कोई घूमेगा नहीं। गृहस्वामी को बाद में उसकी धर्मपत्नी ने बताया कि आंगन में सूखने को पापड़ डाले थे। अचानक एक कुत्ता आ गया। कुत्ते को भगाने के लिए मैंने लकड़ी चलाई किंतु वह नहीं भागा। मैं आवाज नहीं दे पा रही थी क्योंकि मुंह में पान था। मैंने उसे थूका तो जल्दी में पान की पीक गलती से हवनकुण्ड में गिर पड़ी। हम लोग जिस तरह से नियमित हवन-पूजन और आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करते हैं, हो न हो, उसी के प्रताप से थूक स्वर्ण में परिवर्तित हो गई। गृहस्वामी ने धैर्य से सुना किंतु आगे से ऐसी गल्ती ना करने की चेतावनी भी दी। अगले दिन हवनकुण्ड की सफाई के समय उसे पुनः सोने का वैसा ही टुकड़ा मिला। वह समझ गया और अपनी धर्मपत्नी को फटकार लगाई। लेकिन इस बार तो उसकी पत्नी उसी पर फट पड़ी। उसने गृहस्वामी को प्रत्युत्तर दिया कि सारी जिंदगी तो तुमने सोने का एक आभूषण तक कहीं से बनवाकर ना दिया, गरीबी और अभाव में जीते-जीते जीवन कट गया और अब जब मेरी थूक से सोना पैदा होने लगा है तो तुम नाराज होते हो। अगर आइंदा डांटोगे तो आत्महत्या कर लूंगी। गृहस्वामी ने तुरंत चुप्पी साध ली, लेकिन फिर धीरे से बोला- किसी को बताना नहीं। फिर तो रोज ही हवन कुण्ड से सोने का टुकड़ा मिलने लगा।

अब तो उस गृहस्वामी के कच्चे मकान के दिन बीत गए। पक्का मकान, टाइल्स वगैरा यानी उस समय समृद्धि के जो-जो मानक थे, सब उस गृहस्वामी ने प्राप्त कर लिए। गांव के और परिवार हैरान थे, गांव की सभी स्त्रियों में कानाफूसी होने लगी। अंततः एक ने रहस्य जान लिया और फिर सबको यह बात पता लग गई कि हवन कुण्ड में थूकने से रोज स्वर्ण प्राप्त किया जा सकता है। फिर तो सारे घरों में प्रयोग शुरु हो गए और कुछ ही दिन में सबकी तकदीर बदलने लगी।

लेकिन गांव में इस वातावरण में भी एक घर वैसा कच्चे का कच्चा ही बना रहा। वहीं प्रगति के कोई चिन्ह नहीं थे। उस घर में नियमित यज्ञ-हवन तो वैसे ही चलता था लेकिन यज्ञकुण्ड में थूकने के सवाल पर गृहस्वामी ने अपनी धर्मपत्नी को चेतावनी दे रखी थी कि जिस दिन तूने स्वर्ण प्राप्त करने के लिए ऐसा पापकर्म किया तो फिर मुझे जीवित नहीं पाओगी। तय कर लो कि स्वर्ण चाहिए या पति। तो वह घर वैसा ही बना रहा और दोनों ने गांव की चकाचौंध से स्वयं को अलग ही रखा।

लेकिन कब तक यह साधना चलती। एक दिन गृहस्वामिनी से रहा नहीं गया और उसने अपने पति से कहा कि लोग ताने देने लगे हैं, गरीबी और फटेहाल मेरा इस गांव में रह पाना कठिन है। या तो तुम भी सोना पैदा करो या फिर चलो इस गांव को ही छोड़ दें। गृहस्वामी ने सख्ती से कहा- देखो हवनकुण्ड में थूक कर स्वर्ण पैदा करने का पाप मैं नहीं करूंगा और गांव छोड़कर आखिर जाऊंगा कहां। आगे से ऐसी बात करोगी तो मैं यह जीवन ही छोड़ दूंगा। इस प्रकार कुछ समय और बीत गया और इधर गांव वालों की समृद्धि आसमान छूने लगी।

इस पर गृहस्वामिनी से रहा नहीं गया। उसने एक रात को गृहस्वामी से कहा कि या तो गांव छोड़ो या फिर मैं ही अपनी जीवन समाप्त कर लूंगी। अब यहां रह पाना मेरे लिए कठिन है। चूंकि हवनकुण्ड में थूक कर सोना पैदा करना गृहस्वामी को गंवारा न था अतएव दोनों ने भोर होते ही गांव छोड़ने का निश्चय कर लिया। भोर होते ही दोनों अपनी गृहस्थी की पोटली बांधे चुपचाप गांव से बाहर निकल गए। गांव से बाहर आने के पश्चात् गृहस्वामी ने गांव की माटी को नमन कर आखिरी बार भरे मन और अश्रुपूर्ण आंखों से समूचे गांव को निहारा और फिर जैसे ही चलने को उद्यत हुआ कि समूचा गांव धूं-धूं कर आग की लपटों से घिर गया। यह देख गृहस्वामिनी भयभीत हो उठी। इस पर गृहस्वामी ने कहा कि देख ले गांव की दशा! इसीलिए मैं गांव नहीं छोड़ना चाहता था। हवनकुण्ड में थूक कर स्वर्ण प्राप्त करने के पाप ने ही सारे गांव को स्वाहा कर दिया। हम ही अकेले थे जो अपने व्रत पर डटे थे और शायद उसी का पुण्य था कि गांव अब तक बचा हुआ था। हमने छोड़ दिया गांव को और यह गांव ही खत्म हो गया।

राजनीति में हमारे स्वयंसेवकों को इस कथा के संदेश को ध्यान में रखना है। रहना तो राजनीति में ही है किंतु व्रतपूर्वक रहना है। जमाने की चाल कुछ भी हो, हमें अपनी साधना करते रहनी है। अब ये बात बुद्धि से सभी समझते हैं, कहानी की जरूरत नहीं है, लेकिन जीवन में प्रेरणा के लिए प्रत्यक्ष जीवन देखने में आना चाहिए।

इस स्वयंसेवक व्रत का पालन आडवाणीजी ने अपने जीवन में कैसे किया होगा, इसका पूरा लेखा-जोखा इस पुस्तक में मिलता है, इससे अधिक बात मुझे इस अवसर पर और कहनी नहीं है। सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले सभी कार्यकर्ताओं को स्वयंसेवकत्व का व्रत निभाकर, अपने ध्येयवाद को जीवंत रखते हुए, व्यावहारिक भूमि पर दोनों पैर मजबूती से जमाकर, वातावरण को अपने ध्येय के अनुरूप परिवर्तित करने की प्रेरणा मिले, धरातल पर रहते हुए अपने स्वयंसेवक व्रत को भी वे धारण किए रह सकें, ऐसी मेरी कामना है। ये कैसे किया जाए, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देशभर के कार्यकर्ता इस पुस्तक से प्राप्त करेंगे, इसे समझेंगे, ध्येय को अपने जीवन में धारण करने का हौंसला बढ़ा सकेंगे, यह सामर्थ्य इस पुस्तक से सभी को मिले, ऐसी शुभकामनाओं के साथ मैं पुस्तक लेखन के लिए आडवाणी जी को बधाई देता हूं।

– राकेश उपाध्‍याय

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