हिन्दुओ के मतदान व्यवहार से ही तय होगा भाजपा का भविष्य

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hinduअनिल गुप्ता

जबसे विश्व हिन्दू परिषद् ने उत्तर प्रदेश के अयोध्या में चोरासी कोसी यात्रा का ऐलान किया तबसे राजनीतिक पंडितों ने इसमें तरह तरह के मुद्दे तलाशने शुरू कर दिए हैं।विश्व हिन्दू परिषद् के संरक्षक माननीय अशोक सिंघल जी के साथ प्रमुख संतों के एक शिष्ट मंडल ने यात्रा प्रारम्भ करने की घोषित तिथि से लगभग एक सप्ताह पूर्व श्री मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे प्रदेश के मुख्य मंत्री श्री अखिलेश यादव से भेंट करके यात्रा के विषय में बताया और श्री मुलायम सिंह यादव से अयोध्या में राम मंदिर के मामले का वार्ता अथवा कानून बनाकर हल निकालने का अनुरोध किया।भेंट के बाद शिष्ट मंडल द्वारा बताया गया कि श्री मुलायम सिंह जी ने सहयोग का आश्वासन दिया।भेंट की फोटो जो जारी कि गयीं उनमे कहीं भी ऐसा नहीं लगता है कि श्री यादव या मुख्य मंत्री ने यात्रा का विरोध किया हो।लेकिन बाद में उत्तर प्रदेश के सबसे ताकतवर मंत्री आज़म खान द्वारा इस भेंट पर आपत्ति जताने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार का रुख बदल गया।और उ.प्र सरकार ने यात्रा को प्रतिबंधित कर दिया।इसके बाद जो कुछ हुआ वह सबको ज्ञात ही है।
अब हमारे राजनीतिक विश्लेषकों को एक नया विषय मिल गया है कि यह यात्रा हिन्दू वोटों को भाजपा के पक्ष में गोलबंद करने के उद्देश्य से आयोजित की गयी है।मेरा मत है कि अगर इस यात्रा का उद्देश्य हिन्दू वोटों का धुर्विकरण ही था तो भी क्या संविधान में अथवा किसी कानून में ऐसा करना प्रतिबंधित है?संविधान की प्रस्तावना में सबको ”।।न्याय,आर्थिक,सामाजिक और राजनीतिक ” अधिकार दिया गया है और संविधान के अनुच्छेद १९ में सबको संगठन करने, विश्वास और आस्था की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की गयी है।और किसी धार्मिक संगठन के लोगों को भी इससे वंचित नहीं किया गया है।अतः उ.प्र सरकार का यात्रा को प्रतिबंधित करने का निर्णय विधि सम्मत नहीं कहा जा सकता।इस सम्बन्ध में मा।इलाहाबाद उ।न्या। द्वारा प्रतिबन्ध को उचित ठहराते समय संविधान के उक्त प्राविधानों पर विचार किया गया है अथवा नहीं ये ज्ञात नहीं है।
जहाँ तक राजनीतिक विश्लेषकों का प्रश्न है अनेक विद्वानों ने ये मत व्यक्त किया है कि यात्रा से उ.प्र में मतदाता हिन्दू और मुस्लिम के रूप में धुरविकृत हो जायेंगे।जिसका लाभ भाजपा और सपा को मिलेगा और कांग्रेस व बसपा को नुकसान होगा।इनका कहना है कि धुर्विकरण न होने की स्थिति में मुस्लिम वोट सपा, बसपा और कांग्रेस में विभाजित हो जायेगा और हिन्दू वोट जातियों के आधार पर वोटिंग करेगा।जिसका नुकसान भाजपा को होगा।कुछ विश्लेषकों का मत है कि अब मुस्लिम मतदाता रणनीतिक रूप से मतदान करेगा और मुसलमान उसी को वोट देगा जो भाजपा को हरा सकने में सक्षम दिखाई पड़ेगा।
मेरे विचार में जहाँ तक मुसलमानों का प्रश्न है वो प्रारंभ से ही रणनीतिक रूप से वोट करता रहा है।पहले वो जनसंघ के विरोध में वोट करता था अब भाजपा के विरोध में मतदान करता है।हालांकि गुजरात में कुछ स्थानों पर मुसलमानों ने भाजपा के पक्ष में भी वोट किया और एक नगर पालिका में तो ४३ में से 32 स्थानों पर भाजपा विजयी हुई जिनमे २७ सदस्य मुस्लिम थे।लेकिन गुजरात के आधार पर उ.प्र का आंकलन नहीं किया जा सकता है।जबकि भाजपा के प्रधान मंत्री पद के प्रमुख दावेदार श्री नरेन्द्र मोदी जी ने मुसलमानों को भी भाजपा से जोड़ने के लिए प्रयास करने का आह्वान किया है।जिसकी मुस्लिम तबकों में भी अच्छी प्रतिक्रिया हुई है।लेकिन उ.प्र विचित्र है।यहाँ तो गुजरात से आये दारुल उलूम, देवबंद के प्रमुख बुस्तान्वी को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया क्यूंकि उन्होंने गुजरात की आज की स्थिति को देखने और वहां मुसलमानों की प्रगति के बारे में बयान दे दिया था।
दरअसल,हमारे सारे प्रगतिशील विश्लेषक भाजपा के प्रति एक हीनता ग्रंथि से ग्रस्त हैं।वो मुस्लिम मतदाताओं के मतदान व्यव्हार की चिंता करते हैं लेकिन हिन्दुओं के व्यवहार में आ रहे बदलाव को नहीं देखते हैं।आम तौर पर हिन्दू अलग अलग जातियों में बनता रहता है।और जातियां अलग अलग दलों में बंटी हैं।लेकिन जब हिन्दू अस्मिता का प्रश्न खड़ा होता है तो हिन्दू फिर जातियों से ऊपर उठकर हिन्दू के रूप में मतदान करता है।राम जन्मभूमि आन्दोलन के दौरान जातिवादी राजनीती को गहरा धक्का लगा था और लोग जातियों से ऊपर उठकर हिन्दू के रूप में संगठित हुए थे।लेकिन १९९३ के बाद लगातार मीडिया द्वारा हिन्दू विरोधी प्रचार के कारण और तत्काल कोई आसन्न संकट न दिखाई पड़ने के कारण हिन्दुओं ने पिछले कई चुनावों में अलग अलग जातियों के रूप में व्यवहार किया है।हालांकि १९९८ और १९९९ में लोकसभा के चुनावों में उ.प्र के मतदाताओं ने भाजपा को अच्छी संख्या में सीटें दिलायीं।लेकिन २००७ और २०१२ के चुनावों में मुसलमानों द्वारा रणनीतिक मतदान के कारण ही क्रमशः बसपा और सपा पूर्ण बहुमत से जीतती रही हैं।
पिछले एक सवा साल के दौरान सपा की सरकार के दौरान उत्तर प्रदेश में छोटे बड़े मिलाकर लगभग सौ से अधिक स्थानों पर सांप्रदायिक उपद्रव अथवा तनाव हुआ है।इनसे हिन्दू मतदाता आंदोलित हुआ है।इसके अतिरिक्त सपा सरकार ने अनेकों ऐसे कदम उठाये हैं जिनका सीधा लाभ केवल मुसलमानों को ही मिला है।जैसे कन्या धन योजना, दसवीं पास करने वाली मुस्लिम कन्याओं को तीस हज़ार रुपये दिया जाना, कब्रिस्तानों के लिए धन और जमीनें दिया जाना आदि।अब मुसलमानों के लिए सभी योजनाओं में २०% आरक्षण की भी घोषणा की गयी है।अब हिन्दू समाज में इनकी प्रतिक्रिया तो होगी ही।इन सब कारणों से हिन्दू स्वतः ही गोलबंद हो रहा है।और ऐसे में चोरासी कोसी यात्रा ने भी अगर योगदान किया हो तो किसी को आपत्ति क्यों हो?अगर मुस्लिम मतदाताओं को अपने पक्ष में करके राजनीतिक लाभ के लिए काम किया जाना जायज है तो यात्रा निकालकर हिन्दू मतदातों को गोलबंद करना नाजायज क्यों माना जाता है?
राजनीतिक विश्लेषक हमेशा हिन्दुओं के विभाजित रहने के लिए ही प्रयास रत रहते है।और इसके लिए जातिवाद के विष को बढ़ाने और फ़ैलाने से भी परहेज नहीं करते।ऐसा क्यों है की जो समाज को जातियों और उपजातियों में बाँटने का काम करें वो तो धर्मनिरपेक्ष माने जाएँ और जो जाति विहीन समरस संगठित हिन्दू समाज के लिए कार्य करें उन्हें सांप्रदायिक माना जाये।असल में धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक इन शब्दों को अपने अपने तरीके से सुविधानुसार इस्तेमाल किया जा सके इसीलिए पिछले पचास सालों में इन शब्दों की कोई विधिक परिभाषा नहीं बनायीं गयी जबकि इस बारे में अनेकों बार राष्ट्रिय एकता परिषद् और अन्य मंचों से मांग होती रही है।
किस प्रकार मीडिया हिन्दुओं को बांटने का काम करता है इसका एक उदाहरण दिया जाना सामयिक होगा।१९७७ में इमरजेंसी के विरुद्ध संघर्ष करके जनता पार्टी सत्ता में आई थी।इसमें तत्कालीन जनसंघ, लोकदल,संगठन कांग्रेस और कांग्रेस से अलग हुए धड़े सी ऍफ़ डी (जगजीवन राम, हेमवतीनंदन बहुगुणा, नंदिनी सत्पथी, के आर गणेश आदि) को विघटित करके शामिल किया गया था।सबसे बड़ा घटक जनसंघ था जिसके ९८-९९ सांसद चुनकर आये थे।ऐसा माना जाता था की जनसंघ और लोकदल घटक में अंदरूनी समझ बन चुकी थी और चौधरी चरण सिंह जनसंघ से ताल मेल कर रहे थे।ऐसे में सरकार बनने और दल का गठन होने के छह माह बाद ही विश्लेषकों ने इसके विरोध में टीकाएँ लिखनी शुरू करदी थीं।सितम्बर १९७७ में उस समय की प्रमुख राजनीतिक साप्ताहिक पत्रिका रविवार में एक लेख छपा था जिसमे ये बताया गया था की चौधरी चरण सिंह जी के लोकदल और जनसंघ के बीच आपसी समझ के लिए कोई मिलन बिंदु ही नहीं है क्योंकि लोकदल की ताकत जातियों में विभक्त हिन्दू समाज में निहित है जबकि जनसंघ की ताकत जाति विहीन संगठित हिन्दू समाज में है।और आगे चल कर इस संगठित हिन्दू समाज की ताकत से घबडाये नेताओं ने एक विदेशी ताकत के इशारे पर दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाकर जनता पार्टी को विघटन के कगार पर पहुंचा दिया और तीन वर्ष से भी कम समय में पहली गैर कांग्रेसी सरकार का ये प्रयोग असफल हो गया और इंदिरा गाँधी पुनः सत्ता में वापिस आ गयीं।
आज भी हमारे मेकालेवादी और वामपंथी सोच से प्रभावित विश्लेषक हिन्दू समाज को जातियों से ऊपर उठते हुए नहीं देखना चाहते हैं।अब ये सम्पूर्ण हिन्दू समाज के लिए एक चुनौती है की वो जातियों और उपजातियों के रूप में विभक्त रहकर अपनी शक्ति और सामर्थ्य को तिरोहित होते देखना चाहते हैं या एक संगठित, सशक्त जाति विहीन समाज के रूप में अपने अस्त्तित्व का भान कराना चाहते हैं।ये स्मरण रखें की पिछले डेढ़ सौ सालों में जितने भी सुधारवादी आन्दोलन हुए हैं उन सभी ने जाति प्रथा और छोटे बड़े के भेद को ही हमारी सबसे बड़ी समस्या और बुराई बताया है।

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