एकात्म फीचर सेवाः कांग्रेस के दोहरे मापदण्ड

-वीरेन्द्र सिंह परिहार-
CONGRESS

कांग्रेस पार्टी का कहना है कि उसे लोकसभा में किसी भी हालात में नेता प्रतिपक्ष का दर्ज मिलना ही चाहिए। भले ही निर्धारित संवैधानिक व्यवस्था के तहत उसे लोकसभा में सम्पूर्ण सीटों का दस प्रतिशत अर्थात पचपन सीटें न प्राप्त होकर मात्र 44 सीटेें ही प्राप्त हो। कांग्रेस का तर्क है कि चूंकि लोकपाल, सीवीसी और दूसरे महत्वपूर्ण पदों पर चयन हेतु विपक्ष के नेता की भूमिका है। इसलिए अर्हता न होने के बावजूद कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा दिया जाना चाहिए। उसका यह भी कहना है कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो वह न तो राज्यसभा में सरकार को सहयोग करेंगी और न लोकसभा की कार्यवाही ही सुचारू रूप से चलने देंगी। यहां तक कि इस विषय पर उसके पास न्यायालय मंे जाने का विकल्प भी खुला है। ऐसी स्थिति में सवाल यह कि जिसके लिए संविधान में प्रावधान नहीं, उसके लिए जिद क्यों? दूसरी बड़ी बात यह कि इस मामले में स्वतः कांग्रेस पार्टी का ट्रेैक रिकार्ड क्या कहता है? 1947 में देश के आजाद होने से लेकर और 1952 में पहले आम चुनाव से लेकर 1975 तक सतत् कांग्रेस का राज रहा। ऐसी स्थिति में उसने अपने शासन काल में लोकसभा में सबसे ज्यादा सदस्यों वाली पार्टी को प्रतिपक्ष के नेता पद का दर्जा क्यों नहीं दिया? हकीकत यही है कि 1977 में जब जनता पार्टी पहली बार सत्ता में आई तो उसने संविधान में यह प्रावधान किया कि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी को जिसके सदस्य संख्या लोकसभा में कम-से-कम दस प्रतिशत रहेगी, उसे विपक्ष के नेता का पद दिया जाएंगा। इसी के चलते स्वतंत्र भारत के इतिहास में कांग्रेस पार्टी के वाईबी चव्हाण 1977 में सर्वप्रथम विपक्ष के नेता बने। लेकिन जैसे ही 1980 में कांग्रेस पार्टी पुनः सत्ता में आई और 1989 तक रही तो उसने सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा नहीं दिया। 10 प्रतिशत सदस्य संख्या की पूर्ति के न होने के चलते विपक्ष ने भी इस बात पर जोर नहीं दिया। 1989 के पश्चात् 2014 के लोकसभा चुनावों में यह स्थिति है कि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस की सदस्य संख्या कुल सदस्यों का 10 प्रतिशत नहीं है। ऐसी स्थिति में बड़ा सवाल अपने मामले में यह दूसरा मापदण्ड क्यों?

जहां तक लोकपाल, सीवीसी और दूसरी नियुक्तियों का सवाल है, वहां पर स्पष्ट है कि किसी विपक्षी को इसमें तभी भूमिका होगी जब उस विपक्षी पार्टी का मान्यता प्राप्त विपक्ष का नेता होगा। अब जब ऐसी स्थिति नहीं है तो जबारिया और भयादोहन की राजनीति कर उस भूमिका को पाने का प्रयास कतई उचित एवं संविधान-सम्मत नहीं कहा जा सकता। ऐसी भी खबरें हैं कि केन्द्र सरकार द्वारा विपक्ष का नेता न होने के चलते किसी भी कांग्रेसी सांसद को इन महत्वपूर्ण चयनों में शामिल किया जाएगां। जबकि सभी जानते है कि यदि कांग्रेस ऐसी स्थिति में होती तो विपक्ष को यह कहते हुए पूरी तरह किनारे रख देती कि जब मतदाता ने तुम्हें इस लायक बनाया ही नहीं, तो ऐसी अपेक्षा क्यों?

कुछ ऐसा ही दोहरा मापदण्ड कांग्रेस पार्टी का राज्यपालों को लेकर है। अब यह कौन नहीं जानता कि कांग्रेस पार्टी ने सदैव राज्यपालों का उपयोग अपने पार्टी हित में किया। इन राज्यपालों का यही काम रहता था कि कांग्रेस पार्टी का बहुमत न होते हुए भी उसकी सरकारे बनवाना और विपक्ष का बहुमत होते हुए भी उसकी सरकारें न बनने देना। यदि किसी तरह से सरकार बन भी गई तो उसे गिराने का प्रयास करना। कुल मिलाकर कांग्रेस पार्टी के राज में राज्यपालों की भूमिका एक एजेंट जैसे हो गई थी। तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि जब-जब कांग्रेस सत्ता से बेदखल हुई और पुनः सत्ता में आई तो उसने कार्यरत राज्यपालों को पूरी बेरहमी एवं निर्लज्जता के साथ निकाला। इसी तरह जब वह 2004 में सत्ता में आई तो एनडीए शासन द्वारा नियुक्त कई राज्यपालो को आनन-फानन निकाल बाहर किया। यहां तक कि गुजरात में राज्यपाल के रहते दूसरा राज्यपाल नियुक्त कर राजभवन में जबरिया घुसेड़ दिया। कांग्रेस पार्टी का तर्क था कि ये राज्यपाल चूकि हमारी नीतियों पर विश्वास नहीं करते इसलिए इन्हे राज्यपाल रहने का कोई हक नहीं है। अब जब वर्ष 2014 में एनडीए शासन आने पर वह कांग्रेस द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटाना चाहती है तो कांग्रेस पार्टी राज्यपालों के पद को संवैधानिक बताकर उन्हें हटाए जाने का विरोध कर रही है। ऐसी स्थिति में लाख टके का सवाल यह कि यदि राज्यपाल का पद संवैधानिक था तो तुम्हारे शासनकाल में बगैर किसी मुरब्बत के उन्हे क्यों इस तरह से हटाया जाता रहा? कांग्रेस पार्टी ने जिस ढ़ंग से राज्यपाल पद की गरिमा गिराई है, और उसका राजनीतिकरण किया है, वह तो किसी भी से छिपा है नहीं! 1980 से 19़83 के मध्य जहां हरियाणा में जीडी तपासे और आंध्र प्रदेश में रामलाल एवं वर्ष 2004 में यूपीए सरकार आने पर वर्ष 2005 में बिहार में बूटा सिंह और झारखण्ड में सिब्ते रजी जैसे राज्यपाल इसके निकृष्टतम उदाहरण है। आगे बढ़कर उसने दिल्ली का चुनाव हारने पर शीला दीक्षित को इसलिए केरल का राज्यपाल बना दिया, ताकि संवैधानिक पद की आड़ में राष्ट्रमण्डल खेलों में हुए घोटालों को लेकर शीला दीक्षित की संलिप्तता पर उनसे पूछताछ न की जा सके। अब जब कांग्रेस पार्टी ऐसे घोटालों के आरोपों से घिरे व्यक्तियों को राज्यपाल बनाकर राज्यपाल पद को अपराधों से बचाव का औजार बनाएंगी तो बड़ा सवाल यह कि क्या ऐसे राज्यपालों को एक मिनट भी राजभवनों में रहने का हक है?

कांग्रेस पार्टी के दोहरे मापदण्ड का आलम यह है कि चार माह पूर्व उसने स्वतः रेल भाड़ा 14.5 प्रतिशत बढ़ाया था, जो लोकसभा चुनाव के चलते लागू नहीं हो सका। अब जब एनडीए सरकार उस बढ़ें किराये को लागू कर रही है, तो कांग्रेस पार्टी अपनी ही बढ़ाये किराये पर हाय-तौबा मचा रही है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here