फेसबुकः मित्र-संवाद की शैली

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

फेसबुक निर्भीक कम्युनिकेशन है। निर्भीक कम्युनिकेशन को असभ्यता और मेनीपुलेशन का इससे बैर है। निर्भीक फेसबुक कम्युनिकेशन मित्रता की मांग करता है। बराबरी,समानता की मांग करता है। इसके लिए जरूरी है आप पूर्वाग्रह से मुक्त होकर बात करें। जो लोग पूर्वाग्रह रखकर फेसबुक में बातें करते हैं वे ही रोते हैं, रूठते,गुस्सा करते हैं, पलायन करते हैं,बदमाशियां करते हैं। मित्रता में पूर्वाग्रह ,शत्रुता का काम करते हैं। फेसबुक मित्रों को इन बातों को समझना होगा वरना वे फेसबुक को आनंद और सूचना के माध्यम की बजाय कलह का माध्यम बना देंगे।

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फेसबुक में किसी मित्र की स्टेटस पर दी गयी राय से नाराज और खुश होने की जरूरत नहीं है। वह तो राय है। इसका अभिव्यक्ति से संबंध है ,संवेदनाओं से नहीं। फेसबुक या रीयलटाइम मीडियम में जो भी कम्युनिकेशन होता है वो संवेदनाहीन होता है। उससे विचलित होने की जरूरत नहीं है। रीयलटाइम मीडियम में यदि संवेदनाएं संप्रेषित होतीं तो लेखक लोग कलम से लिखना बंद कर देते। कलम के लेखन में संवेदनाएं संप्रेषित होती हैं, साहित्य की सृष्टि होती है। चित्रकार की तूलिका से जानदार चित्र जन्म लेते हैं। वर्चु्अल ब्रश से नहीं। फेसबुक पर लिखो ,कम्युनिकेट करो ।

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भारत में ई-लेखन का सबसे त्रासद पहलू यह है कि यहां पर यूजर अपनी मातृभाषा के यूनीकोड फॉण्ट का इस्तेमाल करना नहीं जानते और जानबूझकर सीखना नहीं चाहते ,वे अंग्रेजी में हिन्दी लिखते हैं। यह शर्मनाक स्थिति है। फ्रेंच लोग,चीनी लोग अपने यहां अपनी भाषा के यूनीकोड फाण्ट का इस्तेमाल करते हैं। हमारे यहां नामी गिरामी हिन्दी लेखक भी हिन्दी में लिखना तौहीन समझते हैं।जय हो हिन्दीवालों की अंग्रेजी गुलामी की।

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कायदे से एक सर्वे कराया जाना चाहिए विभिन्न विश्वविद्यालयों और सरकारी ,गैर सरकारी संस्थानों ,कंपनियों आदि में कि वहां पर कितना ई लेखन, ई कम्युनिकेशन का प्रयोग होता है। हमारे अधिकांश संस्थान अभी न्यनतम स्तर पर भी ई कम्युनिकेशन नहीं करते और हम ढ़ोंग करते हैं,हल्ला करते हैं कि हमारे यहां संचार क्राति हो गयी। हम कम से कम झूठ न बोला करें।

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ई-लेखन को सीखने का अर्थ है अपने लेखन संस्कार बदलना। भारतीय लोगों की मुश्किल यह है कि वे पुरानी आदतों-संस्कारों को जल्दी नहीं छोड़ते। यही हाल राईटिंग का है। ई-लेखन के लिए राईटिंग के पुराने खयालात और संस्कार बदलने होंगे। बदलो बंधु बदलो।

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इंटरनेट लेखन निजी लेखन है और सामाजिक अभिव्यक्ति है, इसका समाज को लाभ होता है।यह बिना पैसे का लेखन है।इसके प्रति अपने पूर्वाग्रहों को हमें दिल से निकाल देना चाहिए।

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ई साक्षरता की दुर्दशा का आलम यह है कि जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में सभी शिक्षकों-कर्मचारियों और छात्रों को अभी तक ई-साक्षरता का अभ्यस्त नहीं बना पाए हैं।अन्य केन्द्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों का हाल तो और भी बुरा है। हमारे शिक्षक सामान्य सी नेट गतिविधियां सम्पन्न नहीं कर पाते। आखिरकार हम किस दिशा में जा रहे हैं ? क्या हम परवर्ती पूंजीवाद की तेजगति पकड़ पाए हैं ? परवर्ती पूंजीवाद की ई-साक्षरता की गति को पकड़े,समझे और सीखे बिना गुजारा नहीं होने वाला।कहां सोए हैं भारत भारती के सपूत।

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एक जमाना था साक्षरता और शिक्षा से काम चल जाता था, हमने इस काम को अंजाम नहीं दिया,इसी बीच बहुस्तरीय शिक्षा का बोझ हमारे सिर पर आ पड़ा है। आज के दौर में कम्प्यूटर लेखन या इ लेखन को जानना अनिवार्य है।यानी साक्षरता के साथ ई साक्षरता भी जरूरी है। मुश्किल यह है कि हमारे देश में अधिकांश लोग ई निरक्षर हैं। कहां सोई है सरकार, सरकार के हस्तक्षेप के बिना ई साक्षरता संभव नहीं।ई साक्षरता के बिना साक्षर और शिक्षित भी अशिक्षित से प्रतीत होते हैं।

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फेसबुक पर इमोशनल होना, अतिचंचल होना, रूठना, पंगा करना ,नीचता दिखाना, अपमान करना वैसे ही दुखदायी है जिस तरह सामान्य तौर पर आमने-सामने संवाद के समय होता है। आमने-सामने बातें करते समय भी ये चीजें नुकसान करती हैं। फेसबुक को रीयलटाइम कम्युनिकेसन के मीडियम के रूप में इस्तेमाल करें , न कि रीयलटाइम नीचताओं और असभ्यता के लिए। असभ्यता कभी भी व्यक्ति के गले की हड्डी बन सकती है।

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क्या आप फेसबुक या ट्विटर के बिना नहीं रह सकते? अगर ऐसा है तो इस नए अध्ययन पर ध्यान दीजिए। इसमें कहा गया है कि इस तरह की प्रचलित वेबसाइट आपको परेशान करती हैं और आपको असुरक्षित भी महसूस करा सकती हैं। सैकड़ों सोशल नेटवर्किंग साइट उपयोगकर्ताओं पर किए गए सर्वे में शामिल आधे से अधिक लोगों ने माना कि इन वेबसाइटों का इस्तेमाल शुरू करने के बाद से उनके व्यवहार में बहुत बदलाव आया है। दैनिक अमरउजाला ( 9जुलाई 2012) में छपी खबर के अनुसार आधे लोगों ने यह भी कहा कि फेसबुक और ट्विटर के कारण ही उनकी जिंदगी बदतर हो गई। सोशल मीडिया का नकारात्मक प्रभाव जिन लोगों पर पड़ता है, उसमें से ज्यादातर लोगों ने कहा कि उनका विश्वास अपने ऑनलाइन दोस्तों के मुकाबले काफी गिर जाता है। ‘द डेली टेलीग्राफ’ में छपी खबर के मुताबिक, दो तिहाई लोगों ने कहा कि इन वेबसाइटों का इस्तेमाल करने के बाद उन्हें आराम करने अथवा सोने में दिक्कत होती है, जबकि उनमें से एक तिहाई लोगों ने कहा कि आनलाइन टकराव के बाद उन्होंने संबंधों में या कार्य स्थल पर कठिनाइयों का सामना करना छोड़ दिया।

यह शोध ब्रिटेन की सालफोर्ड विश्वविद्यालय में सालफोर्ड बिजनेस स्कूल द्वारा करवाया गया है। सर्वे इंटरनेट की ताकत की लत का भी विरोध करता है। अखबार के अनुसार, कुल 55 फीसदी लोगों ने कहा कि अगर वे अपने फेसबुक या ईमेल अकाउंट तक नहीं पहुंच पाते हैं तो वे बेचैनी और परेशानी महसूस करते हैं।

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इंटरनेट मानव सभ्यता की शानदार सुगंध है ,इसे फैलने से रोक नहीं सकते और इससे बचकर रह नहीं सकते।

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मानव मन का साइकिल है कम्प्यूटर।

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बेवसाइटस का शत्रु है इनर्सिया। य़थार्थ जगत से सामंजस्यपूर्ण संबंध से ही एक्शन के परिणाम निकलते हैं।

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मानवीय जीवन के बाद भगवान का दिया सबसे बड़ा उपहार है तकनीक । यह सभी किस्म की सभ्यताओं ,कलारूपों और विज्ञानों की जननी है।

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इंटरनेट पर कोई पुलिसवाला नहीं है। बेईमानी,धूर्तता, मेनीपुलेशन आदि इंटरनेट के आम नियम हैं।यह सक्रिय मानवीय प्रकृति का दुखद उदाहरण है।

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फेसबुक मित्र या ईमेलर को अपनी प्राथमिकताएं तय न करने दें वरना संकट में फंस सकते हैं।

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मैं कम्प्यूटर से नहीं डरता बल्कि कम्प्यूटर के अभाव से डरता हूँ।

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यदि आप तकनीक के ईंजन में सवार नहीं होंगे तो आपको सड़क के रूप में जीना होगा।

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मानव सभ्यता में जितने भी कम्युनिकेशन मीडियम हैं उनकी तुलना में कम्प्यूटर से ज्यादा और सबसे तेजगति से गलती करते हैं।

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रेडियो मन का खेल है।टीवी मूर्ख का खेल है।फेसबुक अवचेतन का ड्रामा है।

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तकनीक (इंटरनेट या कैमरा) जब आदमी के साथ होती है तो सूचना की प्रकृति बदल जाती है। इसे आप आसानी से अन्य को दे सकते हैं, इसके लिए वरीयता,वरिष्ठता,श्रेष्ठता आदि अप्रासंगिक हैं।

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तकनीक में दलाल की कोई भूमिका नहीं होती। यही हाल कम्प्यूटर का है इसमें भी मिडिलमैन की कोई भूमिका नहीं हो सकती।

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एक सर्वेक्षण के मुताबिक ट्विटर और फेसबुक जैसी साइटों पर अपने दोस्तों से आगे निकलने की होड़, लोगों को कुंठित बनाने के साथ -साथ उनके आत्मविश्वास पर भी असर डाल रही है।

टेलीग्राफ समाचार पत्र के मुताबिक इस सर्वेक्षण में भाग लेने वाले आधे से ज्यादा लोगों का मानना था कि इन साइटों ने उनके व्यवहार को बदल दिया है और वे सोशल मीडिया के कुप्रभाव का शिकार हो चुके हैं। जबकि दो-तिहाई लोगों का मानना था कि इन साइटों पर वक्त बिताने के बाद वे आराम नहीं कर पाते। वहीं एक चौथाई लोगों ने माना कि इन साइटों के चलते वे झगड़ालू हो गए हैं जिसका खामियाजा उन्हें अपने रिश्तों और कार्यस्थलों पर चुकाना पड़ रहा है।

ब्रिटेन की सैलफोर्ड विशवविद्यालय बिजनेस स्कूल को ओर से कराए गए इस सर्वेक्षण में 298 लोगों ने भाग लिया। इनमें से 53 फीसदी लोगों का मानना था कि सोशल नेटवर्किंग ने उनके व्यवहार में बदलाव ला दिया है और उनमें से 51 फीसदी ने इसे नकारात्मक प्रभाव बताया।

55 फीसदी लोगों का कहना था कि अगर वे अपने फेसबुक अकाउंट या ई-मेल अकाउंट को किसी वजह से खोल न पाएं तो वे चिंतित हो जाते हैं। इससे पता चलता है कि किस तरह से इंटरनेट की लत ने लोगों को जकड़ में ले लिया है।

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