स्त्री विमर्श और डॉ. लोहिया

– डॉ. सुमन सिंह

भारतीय सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में जन्में डॉ0 राममनोहर लोहिया अनिश्वरवादी थे। वह हिन्दू होते हुए भी हिन्दू धर्म की मूल-मान्यताओं के कट्टर विरोधी थे। व धर्म को ईश्वर से न जोड़कर, मानव प्राणियों की भलाई के एक साधन के रूप में मानते थे। वे वर्णाश्रम व्यवस्था को भारतीय समाज में कोढ़ मानते थे क्योंकि उस व्यवस्था ने न केवल शूद्रों के सामाजिक जीवन को नरक बनाया, अपितु नारी जगत् की दुर्दशा भी की। उन्होंने पाया कि भारतीय लोग विशेषकर, हिन्दू, पृथ्वी पर सबसे दुःखी प्राणी हैं। वे न केवल दरिद्र हैं, बल्कि रोगग्रस्त भी हैं। इसके अतिरिक्त उनकी आत्मा अर्थात् मानसिक स्थिति बहुत गिर चुकी है। वे कहते हैं कि, प्रश्न है कि हमारी दरिद्रता तथा रोग का कौन सा कारण है? जाति एवं नारी का पार्थक्य हमारी पतनावस्था के मुख्य कारण हैं। मैं मानता हूँ कि जाति एवं नारी के दो पार्थक्य मुख्यतः हमारी मनःस्थिति के ह्रास के लिए उत्तरदायी हैं। इन पार्थक्यों में साहस और आनंद को ध्वस्त करने का पर्याप्त सामर्थ्य है। निर्धनता और ये दो पार्थक्य एक दूसरे के जीवाणुओं पर आश्रित हैं।

अतः निर्धनता को समाप्त करना है तो इन दोनों के विरूध्द युध्द स्तर पर कार्य करना होगा। देश की सारी राजनीति में, चाहे जान-बूझ कर अथवा परंपरा के द्वारा राष्ट्रीय सहमति का एक बहुत बड़ा क्षेत्र है और वह यह कि शूद्र और औरत जो कि पूरी आबादी की तीन-चौथाई हैं, उनको दबा कर और राजनीति से अलग रखा गया है, यों तो औरत का स्थान भारत में छोटा नहीं है। कहीं किसी आधुनिक देश में औरत प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति फिलहाल अचिन्त्य है। कई मंत्री या राजदूत भी रहीं हैं। लेकिन उससे आधी आबादी होने वाली औरतों की भारतीय समाज की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हैं। हिन्दुस्तान की नारी घर में देवी है और बाहर नगण्य है। साधारण तौर पर पैरों के तले और कभी-कभी सिर पर बैठती हैं। वह व्यक्ति नहीं हैं, करीब-करीब उसी तरह से जिस तरह से पश्चिम एशिया की नारी अथवा इतिहास के कुछ युगों में चीन की। पश्चिम एशिया में औरत एक सुन्दर खिलौना रही है। तफरीह के क्षणों में क़दर और प्रेम, फिर अवस्तु। वे कहते हैं कि ”कई सौ या हजार बरस में हिन्दू नर का दिमाग अपने हित को लेकर गैर बराबरी के आधार पर बहुत ज्यादा ग़ठित हो चुका है। उस दिमाग को ठोकर मार-मार करके बदलना है। नर-नारी के बीच में बराबरी कायम करना है।”

यूरोप में नारी कभी भी किसी युग में असमानता की वैसी शिकार नहीं रही जैसी एशिया में। बहुत ढूँढा लेकिन बड़े युध्दों के अलावा कहीं और एक मर्द के एक से अधिक विवाह की घटना न मिली। मध्य युग में ‘शालमन’ ने अपने सरदारों की विधवाओं से एक साथ विवाह किया। ऐसी कुछ और भी घटनाएँ रहीं हैं। किन्तु पुराने से पुराने युग से लेकर आज तक बहुपत्नी-प्रथा यूरोप के कानून में सर्वथा त्याज्य है। जहाँ तक हम जानते हैं, इस प्रश्न को लेकर अभी तक शोध नहीं हुआ है। हो तो मजेदार नतीजे निकल सकते हैं।

बहुपत्नी प्रथा पर क्षोभ प्रकट करते हुए डॉ0 लोहिया कहते हैं कि- ”हमारे यहाँ यह तो बड़ी विचित्र सामाजिक घटना है और समाज रचना है। मैंने कई लोगों से कहा, इस पर अध्ययन करो। यह तो पी-एच0डी0 का विषय है। क्या बात है कि हिन्दुस्तान में मर्द को तो अधिकार मिल गया और खाली हिन्दुस्तान ही नहीं अरबिस्तान, चीन में शादी करने का या रखैल रखने का। प्रेमिका की बात अलग है। यहाँ शादी की बात है। शादी तो आखिर एक सामाजिक घटना है और जबरदस्त घटना है। गोरी दुनिया में तो कोई मर्द एक साथ एक से ज्यादा औरत से, साधारण जमाने में, शादी नहीं कर पाया, लेकिन हमारी रंगीन दुनिया में उसको यह अधिकार परम्परागत रहा है। यह एक ऐसा विषय है कि जिसके ऊपर कोई अध्ययन करके किताब लिखे तो बहुत बढ़िया चीज होगी।” यौन शुचिता की एक पक्षीय दृष्टि पर व्यंग्य करते हुए लोहिया कहते हैं कि ”हिन्दुस्तान आज विकृत हो गया है, यौन पवित्रता की लम्बी-चौड़ी बातों के बावजूद आमतौर पर विवाह और यौन के सम्बन्ध में लोगों के विचार सड़े हुए हैं। सारे संसार में कभी-कभी मर्द ने नारी के सम्बन्ध में शुचिता, शुध्दता, पवित्रता के बड़े लम्बे-चौड़े आदर्श बनाये हैं। घूम फिर कर इन आदर्शों का सम्बन्ध शरीर तक सिमट जाता है, और शरीर के भी छोटे से हिस्से पर। नारी का पर-पुरुष न स्पर्श से हो। शादी के पहले हरगिज न हो। बाद में अपने पति से हो। एक बार जो पति बने, तो दूसरा किसी हालत में न आये। भले ही ऐसे विचार मर्द के लिए सारे संसार में कभी न कभी स्वाभाविक रहे हैं, किन्तु भारत भूमि पर इन विचारों की जो जड़े और प्रस्फुटन मिले वे अनिवर्चनीय हैं।

‘अष्ट वर्षा भवेत गौरी’ यह सूत्र किसी बड़े ऋषि ने चाहे न बनाया हो लेकिन बड़ा प्रचलित है आज तक। इसे जकड़कर रखो, मन से, धर्म से, सूत्र से, समाज संगठन से और अन्ततोगत्वा शरीर की प्रणालियों से कि जल्दी से जल्दी लड़की का विवाह करके औरत को शुचि, शुध्द और पवित्र बनाकर रखो। विवाह से कन्या पवित्र नहीं होती तब तक उसको असीम अकेलेपन में जिन्दगी काटनी पड़ती है।”

‘यौन शुचिता’को केन्द्र में रखकर जाने कितने धर्म ग्रन्थ लिखे गये। सभी में स्त्री ही लक्ष्य बनायी गयी और उसी के कोमल हृदय का आखेट किया गया। पुरुष की यौन शुचिता, पवित्रता को अक्षुण्ण रखने के लिए किसी ऋषि, महर्षि ने कोई श्लोक नहीं लिखा। उसके लिए विवाह से पूर्व या विवाह के पश्चात् यौन शुचिता का कोई प्रतिबंधित नियम नहीं बनाया गया। वो सदैव से स्वतंत्र और स्वच्छंद रहा। स्त्री और पुरुष की यौन-शुचिता के लिए निर्धारित इन असमान प्राचीन अवधारणाओं से लोहिया की बौध्दिकता विचलित व आहत होती रही। वे स्त्री-पुरुष को समानता के धरातल पर देखना चाहते थे। वे कहते थे कि ”आज के हिन्दुस्तान में एक मर्द और एक औरत शादी करके जो सात-आठ बच्चे पैदा करते हैं उनके बनिस्बत मैं उनको पसंद करूँगा जो बिना शादी किये हुए एक भी या एक ही पैदा करते हैं। या, लड़की यानी उसके माँ-बाप दहेज देकर, जिसे समाज कहेगा अच्छी-खासी शादी की, उसको मैं ज्यादा खराब समझूँगा बनिस्बत एक ऐसी लड़की के जो कि दहेज दिये बिना दुनिया में आत्म-सम्मान के साथ चलती है और फिर ऐसे कुछ प्रसंग हो जाते हैं कि समाज कहे कि यह कहाँ कि छिनाल आई। मर्द छिनालों की तो हिन्दुस्तान में निन्दा नहीं होती लेकिन औरत छिनालों की निन्दा हो जाती हैं। संसार में सभी जगह थोड़ा-बहुत ऐसा है। यह वृत्ति भी छूट जानी चाहिए। और खास तौर में राजनीति में जो औरतें आएँगी वह तो थोड़ी-बहुत तेजस्वी होंगी, घर की गुड़िया तो नहीं होंगी। घर की गुड़िया क्यों समाजवादी दल, कांग्रेस दल या कम्युनिस्ट दल में आएगी । जब वह तेजस्वी होगी तो जो परंपरागत संस्कार हैं उनसे टकराव हो ही जाएगा। मैं जानता हूँ कि समाजवादी दल में भी ऐसे कुछ लोग हैं जो नाक-भौं सिकोड़ते हैं। आज के हिन्दुस्तान में किसी औरत की निंदा तो करनी ही नहीं चाहिए। केवल जहाँ तक विचार का संबंध है उसमें भी मैं समझता हूँ बहुत संभल कर उसके बारे में कुछ बोलना चाहिए।”

‘महाभारत में द्रौपदी’ के चरित्र की लोहिया जी ने खूब सराहना की है उनकी दृष्टि में ”द्रौपदी एक ऐसी विदुषी नारी थी जिसने कभी भी किसी पुरुष से दिमागी हार नहीं खायी। वे आगे कहते हैं कि नारी को गठरी के समान नहीं बनना है, परंतु नारी इतनी शक्तिशाली होनी चाहिए कि वक्त पर पुरुष को गठरी बनाकर अपने साथ ले चले।”

लोहिया स्त्री को शक्तिस्वरूपिणी मानते थे किन्तु वैसे नहीं जैसे कि हमारे धर्मग्रंथों में वर्णित है। धर्मग्रंथ नारी को देवी के रूप में पूजनीय बताते हैं तो व्यवहारिक जीवन व सभ्य समाज में ‘ताड़न के अधिकारी’ भी सिध्द करते हैं। लोहिया ऐसी दोहरी मानसिकता पर क्षुब्ध होकर कहते हैं- ”यह सही है कि भारत की नारी जैसी एक अर्थ की संज्ञा व्यापक अर्थ में नहीं है। कई प्रकार की और वर्गों की नारियाँ हैं। एक तरफ खेत मजदूरिनें हैं, जो राम को सीता के मुँह से पापी कहलवाने वाली सोहरें गाती हैं और जिनमे तलाक हमेशा चालू रहा है। दूसरी तरफ ऐसी मध्यम-वर्ग की और सनातनी नारियाँ हैं जो दिमाग और वचन से, कर्म चाहे भले ही अन्य दिशाओं में फूट पड़ता हो, राम को ही अपना आराध्य मानती हैं, चाहे वह अग्नि परीक्षा लेने के बाद भी वनवास दे दें। वह तो जंगलीपन था। राम ने जिस तरह से सीता के साथ व्यवहार किया है, हिन्दुस्तान की कोई भी औरत राम के प्रति कैसे कोई बड़ा स्नेह कर सकती है, इसमें मुझे कई बार बड़ा ताजुब्ब होता है। यह कहना कि राम जनतंत्र का कितना उपासक था कि एक धोबी के कहने से उसको (सीता) निकाल दिया लेकिन अग्नि-परीक्षा वाला कौन सा मौका था। उस वक्त क्या माँग थी। अगर मान भी लो, थोड़ी देर के लिए कि जनता में से किसी एक ने यह माँग की थी तो जनतंत्र यह है कि कोई कह दें। सवाल यह उठता है कि अगर वे जनतंत्र के इतने बड़े उपासक थे तो क्या राम के पास कोई और रास्ता नहीं था। वे सीता को लेकर, गद्दी छोड़कर वनवास फिर से नहीं जा सकते थे? यदि गाँधी जी आज जिंदा होते तो मैं उनसे कहता कि आप रामराज की बात न करें। यह अच्छा नहीं है। इसलिए मैं सीता-रामराज की बात कहता हूँ। यदि सीतारामराज कायम करने की बात देश के घर-घर में पहुँच जाए तो औरत-मर्द के आपसी झगड़े हमेशा के लिए खत्म हो जाएँगे और तब उनके आपसी रिश्ते भी अच्छे होंगे। जाने कितने वर्षों से नारी पतिव्रत-धर्म निभाती आ रही है। एक पत्नी को अपने पति की लंबी आयु के लिए जाने कितने व्रत-उपवास के विधि-विधानों का पालन करना पड़ता है पति को परमेश्वर मान पूजा करने की अनगिनत विधियाँ हमारे धर्मग्रंथों में बतायी गयी है। पर दूसरी ओर पतियों के लिए ऐसा कोई भी कर्म-धर्म नहीं बताया गया है। धर्मशास्त्रों में पति के लिए ‘पत्नीव्रत’ जैसी कोई अवधारणा ही नहीं है, इस विषय पर सारे धर्मग्रंथों ने मौन साध रखा है। डॉ0 लोहिया ने भारतीय समाज की इस अराजक, असमान स्थिति की ओर भी तथाकथित सभ्य समाज का ध्यान आकृष्ट कराया है- ”सावित्री के लिए हिंद नर और हिन्दू नारी दोनों का दिल एकदम से आलोड़ित हो उठता है कि वह क्या गजब की औरत थी। अगर हिन्दू किंवदन्ती में ऐसी पतिव्रता का किस्सा मौजूद है कि जो यम के हाथों से अपने पति को छुड़ा लाई, तो कोई किस्सा हमको ऐसा भी बताओ, किसी पत्नीव्रत का, कि जो अपनी औरतों के मर जाने पर यम के हाथों से छुड़ाकर लाया हो और फिर से उसको जिलाया हो। आखिर मज़ा तो तभी आता है जब ऐसा किस्सा दो तरफ होता है। पतिव्रत की तरह पत्नीव्रत का किस्सा नहीं है। तो फिर इतना साफ साबित हो जाता है कि जब कभी ये किस्से बने या हुए भी हों तब से लेकर अब तक हिन्दुस्तानी दिमाग में उस औरत की कितनी जबरदस्त कदर है जो कि अपने पति के साथ शरीर, मन, आत्मा से जुड़ी हुई है और वह पतिव्रता या पतिव्रत धर्म का प्रतीक बन सकती है। इसके विपरीत मर्द का औरत के प्रति उसी तरह का कोई श्रध्दा या भक्ति का किस्सा नहीं है।

लोहिया ने दहेज-प्रथा का जमकर विरोध किया। शादी-ब्याह में लड़कियों का चाय-नाश्ता लेकर बेजुबान पशु की तरह खड़े रहना और बिना उनकी इच्छा जाने किसी पराये खूँटे पर बाँध दिये जाने की भारतीय परंपरागत प्रवृत्ति ने लोहिया के संवेदनशील हृदय में हलचल मचा दिया था वे कहते हैं,- ”बिना दहेज के लड़की किसी मसरफ की नहीं होती, जैसे बिन बछड़े वाली गाय। नाई या ब्राह्मण के द्वारा पहले शादियाँ तय की जाती थी उसकी बनिस्वत फोटू देखकर या सकुचाती-शरमाती लड़की द्वारा चाय की प्याली लाने के दमघोंटू वातावरण में शादी तय करना हर हालत में बेहूदा है।”

हमारे समाज की विडंबना है कि स्त्रियाँ स्वयं ही एक दूसरे के प्रति क्रूर व असंवेदनशील हो जाती हैं। किन्हीं मामलों में तो इतनी हिंसक हो जाती हैं कि विश्वास करना कठिन हो जाता है कि उनमें कोमल हृदय भी निवास करता हैं दहेज-हत्या के अनगिनत मामलों में पारिवारिक स्त्रियों की ही अधिकाधिक भूमिका होती है। इस संदर्भ में लोहिया कहते हैं कि ”समाज क्रूर है और औरतें तो बेहद क्रूर बन सकती हैं, उन औरतों के बारे में विशेषतः अगर वे अविवाहित हों और अलग-अलग आदमियों के साथ घूमती-फिरती हैं, तो विवाहित स्त्रियाँ उनके बारे में जैसा व्यवहार करती हैं और कानाफूसी करती हैं, उसे देखकर चिढ़ होती है। इस तरह के क्रूर मन के रहते मर्द का औरत से अलगाव कभी खत्म नहीं होगा।” भारतीय समाज में कन्या-भ्रूण हत्या मामूली सी बात है जो सदियों से होती आ रही है। भारतीय धर्म-ग्रंथों में विभिन्न पाप कर्मों हेतु दण्ड-विधान वर्णित है। लेकिन जिस कन्या को देवी मानकर पूजा करने की प्रथा है उसकी कोख में ही नृशंस हत्या कर दी जाती है या पैदा होने के पश्चात् दूध में डुबाकर मार दिया जाता है। अथवा कूड़ेदान में, या सड़क किनारे फेंक दिया जाता है। अपनी संस्कृति और सभ्यता का महात्म्य गाने वाला देश मंदिर की सीढ़ियों पर रोती-बिलखती नवजात का करुण-क्रंदन नहीं सुन पाता। वह उस मासूम अनाथ बच्ची से कहीं ज्यादा असहाय बन जाता है और मूक-बधिर बन भविष्य में लिंग-अनुपातों की असमानता से होने वाले भयंकर परिणामों की तरफ से अपनी ऑंखें मूँद लेता है। लोहिया कहते हैं कि हिन्दुस्तान में कई जातियाँ ऐसी हैं कि उनके माता-पिता को लड़की जनमते दुःख होता है और पैदा हुई कन्या की वे हत्या कर देते हैं। इस तरह की कन्या हत्याएँ होती रहेंगी तो इस देश में न्याय प्रवृत्ति बढ़ना महज असंभव है। घरेलू हिंसा की शिकार स्त्रियों की दुर्दशा से विचलित लोहिया कहते हैं कि भारतीय मर्द इतना पाजी है कि अपनी घर की औरतों को वह पीटता है। सारी दुनिया में शायद औरतें पिटतीं हैं, लेकिन जितनी हिन्दुस्तान में पिटती हैं, उतनी और कहीं नहीं। मुस्लिम समाज में बहुपत्नी प्रथा और ‘बुर्का’ के प्रचलन से लोहिया क्षुब्ध रहते थे। विधवा स्त्री की दीन-हीन अवस्था पर व्यथित होकर लोहिया ने कहा कि विधवा औरत क्रूरता का अवशेष, दुनियाभर में खास करके हिन्दुस्तान में रही है। वे मानते हैं कि जब तक शूद्रों, हरिजनों और औरतों की खोई हुई आत्मा नहीं जगती और उसी तरह जतन तथा मेहनत से उसे फूलने-फलने और बढ़ाने की कोशिश न होगी, तब तक हिन्दुस्तान में कोई भी वाद, किसी तरह की नई जान लायी न जा सकेगी। निःसंदेह डॉ0 लोहिया एक मानववादी चिंतक थे, क्योंकि वे मानव कल्याण के प्रति अपनी आस्था निरंतर बनाये रखने में सक्षम रहे। नकारात्मक दृष्टि से वे ब्राह्मणवाद, वणिकवाद, छूआछूत, जातिवाद, वर्णवाद, निर्धनता, सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयवाद धर्मांधता, हिंसा आदि के कट्टर विरोधी थे और सकारात्मक रूप में वे समाजवाद, समता, स्वतंत्रता, भ्रातृत्व आदि के मूल्यों पर आधारित नयी समाज व्यवस्था के हिमायती थे।” उनकी मान्यता थी कि हर संघर्ष में जो सबसे नीचे दबे हुए मानव प्राणी हैं और जिनके पास रोटी, कपड़ा, और मकान का कोई साधन नहीं है, उन्हें सर्वप्रथम उठने के अवसर देना चाहिए। समाज तथा राज्य दोनों का यह दायित्व है। इन्हीं स्त्री-पुरुषों ने एक लंबी और कष्टदायक राह का सफ़र किया है। स्पष्ट है कि मनुष्य के लिए स्वतंत्रता, समता, सुख और शांति की प्राप्ति कराने हेतु डॉ0 लोहिया बड़े ही सजग एवं सक्रिय थे।

* लेखिका हरिश्चन्द्र स्‍नातकोत्तर महाविद्यालय, वाराणसी (उ0प्र0) में अंशकालिक हिन्दी प्रवक्ता है।

6 COMMENTS

  1. लेखिका जी ने श्री लोहिया जी के बारे में बहुत अच्छा लिखा है. धन्यवाद.
    काश श्री लोहिया जी के बारे में स्कूलों में भी पढाया जाता.

  2. शानदार लेख महोदय
    ऐसे लेख लिकने की तथा पड़ने की जरुरत बहुत महसूस होती है.
    बहुत ज्यादा ज्ञान तो नहीं है लोहिया जी के बारे में पर आपके लेख से थोड़ी बहुत कुछ अछि बात सिखने को मिली है.

  3. महोदय,
    शानदार लेख पता नहीं केसे ये लिख लोगो की नज़र में नहीं आते हैं , लोहिया एक बेहतरीन दृष्टि रखते थे उनके जाती तोड़ो के नारे को भी उच्च जाती के लोगो ने गलत परिभाषित कर रखा है और उसको वो जाति जनगणना में एक अलग ही तर्क में उसके विरोध में लाते हैं
    नकारात्मक दृष्टि से वे ब्राह्मणवाद, वणिकवाद, छूआछूत, जातिवाद, वर्णवाद, निर्धनता, सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयवाद धर्मांधता, हिंसा आदि के कट्टर विरोधी थे और सकारात्मक रूप में वे समाजवाद, समता, स्वतंत्रता, भ्रातृत्व आदि के मूल्यों पर आधारित नयी समाज व्यवस्था के हिमायती थे।”
    इससे सिद्ध होता है है की यदि हमको इन सब बिमारियों से छुटकारा पाना है तो जाती जनगण निर्धारण सही और उचित है

  4. Socialist leader Dr Ram Manohar Lohia views on alleviation of poverty and illness of Indian society are:
    – 3/4ths of population consist of Shudras, Harijans and Women and till efforts are not made for their progress, no program of any party nor any ism can succeed
    – Multi-wife practice (one-man having more than one wife) has to be abolished for establishment of equality of man and woman.
    – Dr Lohia does not favor establishment of Ramraj but is in favor of Sita-Ramraj on ground of equality of women with men. He praises the character of Mahabharat’s Draupdi because she never acted under pressure of Pandavs.
    Broadly views of Dr Lohia are to the effect that no progress of Indian society is possible without uplifting women and requirement of purity of sex is to be applied equality on men and women.
    .

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