शक्ति उपासना का पर्व –  विजयदशमी

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सुरेन्द्र नाथ गुप्ता (२०-९-२०१८)

हिन्दू समाज उत्सवों और त्योहारों का समाज है| वर्ष भर जितने त्योहार हिन्दुओं में होते हैं उतने संभवतः संसार के अन्य किसी भी समाज में नहीं होते| यह तथ्य हिन्दू समाज की आमोद-विनोद प्रियता का परिचायक है| कुछ त्योहार केवल पारिवारिक उत्सव हैं तो कुछ पारिवारिक के साथ-साथ सामाजिक उत्सव भी है| त्योंहार जितने अधिक उमंग और उल्लास से मनाये जाते हैं उतना ही अधिक परिवार और समाज पुष्ट होते है| हिन्दू सांस्कृतिक परम्परा में विजयदशमी एक मुख्य त्योहार है जो अश्वनी माह के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथी को मनाया जाता है| यह वर्षा ऋतु के बाद शरद ऋतु के आगमन का त्योहार है| वर्षा ऋतु में आवागमन अवरुद्ध और उद्द्योग धंधे शिथिल हो जाते है तो शरद ऋतु में नए प्रयास प्रारंभ किये जाते है| अतः विजयदशमी का दिन नई यात्रा व् नए उद्द्योग प्रारंभ करने, नई जमीन जायदाद या नई वस्तुए खरीदने और नई यात्रा व् नये प्रयास प्रारंभ करने के लिए शुभ माना जाता है| प्राचीन भारत में अपने राज्य की सीमा का विस्तार प्रत्येक राजा का कर्तव्य माना जाता था अतः क्षत्रियों में विजयदशमी के दिन शस्त्र पूजन और सीमा उलंघन की परम्परा थी| आज तक भी अधिकाँश क्षत्रिय परिवारों में इस परम्परा का सांकेतिक निर्वहन किया जाता है|

विजयदशमी के सम्बन्ध में दो मान्यताएं मुख्य हैं| एक मान्यता है कि इस दिन भगवान् श्री राम ने असुरों के राजा रावण का वध करके लंका पर विजय प्राप्त की थी और भगवती सीता को मुक्त कराया था| उसी उपलक्ष्य में विजयदशमी उत्सव मनाया जाता है जिसमें अच्छाई की बुराई पर विजय के रूप में  समाज में बुराई के प्रतीक रावण कुम्भकरण और मेघनाद के पुतलों का दहन किया जाता है|

राम-रावण युद्ध केवल एक स्त्री की मुक्ति के लिए दो व्यक्तिओं के अहम् का युद्ध नहीं था वरन इसके पीछे एक महान उद्देश्य था – समाज की विकृति को समाप्त करके संस्कृति को पुनः स्थापित करना| रावण ब्राह्मण था, वेद-शास्त्रों का ज्ञाता प्रकांड पंडित था और शिव भक्त भी था परन्तु वह आसुरी शक्ति का प्रतिनिधि था| उस समय भारत में दो व्यवस्थाएं चल रही थी। एक दशरथी व्यवस्था जो सर्वमान्य व धर्मसम्मत थी और दूसरी दशाननिक व्यवस्था जो स्थापित नियमों के विरुद्ध बल पूर्वक चलाई जा रही थी। दशरथी व्यवस्था संयम, समर्पण, त्याग और परमार्थ पर आधारित थी परंतु दशाननिक व्यवस्था जो स्वार्थ, शोषण, अपहरण और भोगवादी थी उसका प्रभुत्व बहुत बढ़ गया था। रावण तप बल से दीर्घ आयु हो गया था और सभी प्रकार की भौतिक शक्तियां उसके नियंत्रण में थी| कहते हैं की सभी देव, नाग, किन्नर और महाकाल तक उसकी कैद में थे| *कर जोरे सुर दिसिप विनीता । भृकुटी विलोकत सकल सभीता ॥* सम्पूर्ण भारत में उसका विरोध करने की शक्ति किसी में नहीं थी| रावण भारतवर्ष के केवल दो राजाओं से पराजित हुआ था- एक पम्पापुर का वानरराज बाली और दूसरा महिष्मती राज्य (मध्यप्रदेश स्थित) का सहस्त्रबाहु अर्जुन| अतः रावण ने उन दोनों से ही मित्रता करली और फिर उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं रहा था| राम ने उस चुनौती को स्वीकार किया और चौदह वर्ष के बनवास हेतु अयोध्या से उत्तर में हिमालय की ओर न जाकर दक्षिण की ओर प्रस्थान का निश्चय किया| अपार संसाधनों व् हर प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित रावण जैसे शक्तिशाली राजा से युद्ध के लिए राम के पास न तो कोई संसाधन थे और न ही अयोध्या या किसी अन्य राज्य की सेना| बाबा तुलसीदास ने भी इसका संकेत किया है “रावण रथी विरथ रघुवीरा, देखी विभीषण भयो अधीरा”| उनके पास केवल एक महान उद्देश्य था धर्म की स्थापना | रावण को चुनौती देने के लिए राम ने जन समर्थन को अपना हथियार बनाया| परन्तु दक्षिण भारत की जनता रावण के अत्याचारों से इतनी अधिक सतायी हुई थी कि आत्मविश्वास हीन होकर निराशा के गर्त में डूबी हुई थी| रावण से मुक्ति का विचार भी उनके लिए अकल्पनीय था| पम्पापुर के बाली का वध करके राम ने जनता के मन में एक आशा की किरण जगाई और उनमे विश्वास उत्पन्न किया कि राम ही रावण को चुनौती दे सकते हैं| पुनः राम ने वनों में बचे-खुचे साधु-सन्यासियों के आश्रमों में जाकर उनका विश्वास प्राप्त किया और “निश्चर हीन करौ महि, भुज उठाय प्रण कीन्ह” प्रतिज्ञा करके उन्हें जन-जागरण के कार्य के लिए प्रेरित किया| उन दिनों दक्षिण भारत में शंकर की पूजा प्रधान थी और रावण भी शिव भक्त था अतः वहां के लोगों का मन जीतने के लिए राम ने भी शंकर की भक्ति पर जोर दिया और रामेश्वर सहित कई स्थानों पर शिव लिंगों की स्थापना की| तुलसी वैष्णव संत हैं पर मानस में अनेक स्थानों पर शिव उपासना को राम उपासना का पूरक बताया है –

सिव द्रोही  मम  दास कहावा सो नर सपनेहु  मोहि न भावा |”

सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं, रामहि ते सपनेहु न सोहाहीं।

संकर प्रिय मम द्रोहीसिव द्रोही मम दास |

ते नर करहीं कल्प भरिघोर नरक में वास||”

औरेहु एक गुप्त मततुमही कहहु कर जोर |

संकर भगति बिना नर, भगति न पावही मोर ||”

 

जैसे-जैसे राम लंका की ओर आगे बढ़ते गए सारी जनता, बनवासी और गिरिवासी सब उनके साथ होते गए| लंका पर आक्रमण के लिए सेतुबंध का निर्माण राम ने इन्ही बनवासी और गिरिवासी जैसे सामान्य जनों की सहायता से समुद्र के उस स्थान पर किया था जहाँ से लंका की दूरी न्यूनतम थी और समुद्र भी बहुत कम गहरा था| उन दिनों में बिना किसी उपकरणों के सेतु के लिए ऐसा उपयुक्त स्थान कैसे चिन्हित किया गया होगा इसकी कल्पना भी कठिन हैं परन्तु यह सेतु उस समय की भारतीय तकनीक व् इंजीनियरिंग का उत्क्रष्ट नमूना है| कहते हैं कि रावण ने लंका में एक सुमेरु पर्वत (ऊंची मीनार) बना रखी थी| उस पर खड़े हो कर जब रावण ने राम की सेना को देखा तो पहली बार भयभीत हुआ था| इस प्रकार राम ने विशाल जनशक्ति के बल पर आधा युद्ध तो पहले ही जीत लिया था|

मुग़लशासन के शीर्ष उत्कर्ष काल में इस्लामी अत्याचारों से चेतना शून्य हो चुके हिन्दू समाज में नव चैतन्य संचार करने के लिए ही संत तुलसीदास ने वाराणसी में बहुत व्यापक स्तर की रामलीला का मंचन शुरू किया था जिसका समापन विजयदशमी को होता था और जिसमें पूरा नगर ही रामलीला का मंच होता था कोई मोहल्ला अयोध्या तो कोई जनकपुरी और कोई लंका| इस रामलीला में पूरे नगर का हिन्दू समाज सहभागी होता था| अधर्मी सत्ता के विरूद्ध जन संगठन का यह एक अनूठा प्रयास था| तभी से रामलीलाओं का मंचन और विजयदशमी को रावण के पुतले के दहन की परम्परा आज तक चली आ रही है|

विजयदशमी के सम्बन्ध में  दूसरी मान्यता देवी दुर्गा के प्राकट्य के सम्बन्ध में है| एक बार दानवराज महिषासुर ने देवताओं पर आक्रमण कर दिया| उस संग्राम में जब देवतागण असुरों की संगठित शक्ति के समक्ष कमजोर पड़ने लगे तो देवगुरु ब्रहस्पति के सुझाव पर देवताओं ने अपनी-अपनी शक्ति का एक-एक अंश एकत्र किया| देवताओं की उस संगठित शक्ति से सिंहवाहिनी देवी दुर्गा प्रगट हुई और उस संगठित देव शक्ति ने नौ दिन तक युद्ध करके दसवे दिन महिषासुर का संहार किया था| तभी से दुर्गा को महिषासुरमर्दनी भी कहा जाने लगा और नवरात्री को दुर्गा पूजा उत्सव के रूप में मनाया जाता है| दुर्गा पूजा बंगाल प्रान्त का सबसे बड़ा पाँच दिवसीय उत्सव है जिसमे बड़े-बड़े पंडालों में दुर्गा की मूर्तियाँ स्थापित करके पूजा की जाती है और विजयदशमी के दिन बैंड –बाजों के साथ नाचते–गाते हुए स्त्री-पुरुषों के झुण्ड उन मूर्तियों को किसी नदी, समुद्र या बड़े जलाशयों में विसर्जित करते है|

 

केरल व् कर्नाटक प्रान्त के कुछ स्थानों पर विजयदशमी को सरस्वती पूजा और विद्यारम्भ दिवस के रूप में मनाया जाता है| इस दिन बच्चों को नृत्य, संगीत, कला या किसी भी अन्य कौशल की शिक्षा के लिए औपचारिक रूप से प्रविष्ट किया जाता है| इसके लिए पिता या कोई अन्य बुजुर्ग बच्चे से थाली में रेत या चावल को समतल बिछा कर एक मन्त्र लिखवा कर विद्यारम्भ कराते हैं| कुछ स्थानों पर अष्टमी नवमी दशमी तीन दिन की सरस्वती पूजा का आयोजन होता है जिसमे लोग पुस्तकों की पूजा करतें हैं|

कर्नाटक में मैसूर का दशहरा बहुत प्रसिद्द है जिसे देखने दूर-दूर से लोग आते हैं | यह उत्सव मैसूर राजघराने के साथ-साथ कर्नाटक राज्य का राजकीय उत्सव भी है जो प्रथम नवरात्री से शुरू होकर विजयदशमी तक चलता है| उत्सव के दसों दिन राजमहल को बिजली की रौशनी से सजाया जाता है और राजमहल में गीत संगीत नृत्य के कार्यक्रम और कुश्ती, मल्लयुद्ध आदि अनेक शारीरिक प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती है जिनमे देश के प्रसिद्ध कलाकार भाग लेतें हैं| विजयदशमी के दिन मैसूर के राजमहल से शोभायात्रा निकलती है जिसमे सजे हुए हाथी पर 750 किलोग्राम सोने के सिंहासन में देवी चामुंडेश्वरी (दुर्गा) विराजती हैं| शोभायात्रा की अगुआई मैसूर के राजा स्वयं करते है और उसमे अनेक सजे हुए हाथी, ऊँट, घोड़ों पर सशस्त्र सवार अनेक झांकियों और बैंड-बाजो के साथ सम्मिलित होते है| शोभायात्रा का समापन बन्निमड़प पर बन्नी (शम्मी) वृक्ष  की पूजा के साथ किया जाता है| मान्यता है कि पांडवों ने बनवास के तेरहवें वर्ष अज्ञातवास के लिए अपने शस्त्र शम्मी वृक्ष के ऊपर छुपा कर राजा विराट के यहाँ एक वर्ष व्यतीत किया और अज्ञातवास समाप्त होने पर विजयदशमी के दिन उन शस्त्रों को पुनः धारण किया था| तभी से विजयदशमी को शम्मी वृक्ष और शस्त्र पूजा की परम्परा चली आ रही है|

हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में दशहरा अत्यंत श्रद्धा और उल्लास मनाया जाता है जिसे देखने देश-विदेश से चार–पाँच लाख लोग पहुचते है| प्रदेश सरकार का यह अंतर्राष्ट्रीय उत्सव है| विजयदशमी से शुरू होकर सात दिनों तक कुल्लू घाटी के ढलपुर मैदान में मेला लगता है जिसके केंद्र में कुल्लू राजपरिवार की रघुनाथ जी की मूर्ती विराजमान होती है और उसके पास में घाटी के अन्य सभी ग्राम देवताओं को विराजित किया जाता है जिन्हें ग्रामवासी पूर्ण श्रद्धा के साथ नाचते गाते हुए पालकियों में लेकर आते है | मेले में स्थानीय सांस्कृतिक वेष-भूषा नृत्य, संगीत और हस्त शिल्प व् कला-कौशल का भरपूर प्रदर्शन एवं क्रय-विक्रय होता है| सत्रहवीं सदी में कुल्लू एक सम्रद्ध राज्य था| यहाँ के राजा जगत सिंह (1637-72) को एक संत के श्राप से यह राज्य श्रीहीन हो गया| श्राप से मुक्ति हेतु रघुनाथ जी की यह मूर्ती राजा जगत सिंह के कहने पर दामोदर पंडित अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से चुरा कर लाये थे और जगत सिंह ने इस मूर्ती को राजसिंहासन पर स्थापित करके रघुनाथ जी को कुल्लू का राजा घोषित किया और स्वयं उनके प्रतिनिधि के रूप में राज्य का संचालन किया था| तभी से इस मेले का आयोजन शुरू हुआ था|

तमिलनाडु, कर्नाटक आंध्र व् तेलंगाना में विजयदशमी पर गोलू प्रदर्शन की परम्परा है जिसमें लोग अपने-अपने घरों में गोलू (गुड़ियों) द्वारा पौराणिक कथाओं का प्रदर्शन करते है, भजन कीर्तन करते हैं और मित्रों व् सम्बन्धियों को उन्हें देखने के लिए आमंत्रित करते |

उत्तर भारत और नेपाल में लोग नव धान्य (नौ प्रकार के अनाज) एक पात्र में बोते हैं, नवरात्रि के प्रत्येक दिन उन्हें पानी देते है और उनके अंकुरित होने को शुभ मानते हैं|

भारत सहित विश्व के अनेक देशों में फैले इस्कान मतावलंबियों के लिए भी विजयदशमी का दिन विशेष महत्व का है क्योकि द्वैत दर्शन के प्रवर्तक स्वामी माधवाचार्य का जन्म विजयदशमी के दिन ही कर्नाटक में उडुपी के एक ग्राम में हुआ था और इस्कान के संस्थापक श्री प्रभुपाद स्वामी इसी द्वैत मत की एक शाखा माधव-गौदिया सम्प्रदाय के आचार्य थे|

वर्ष १९२५ में विजयदशमी का दिन ही रा.स्व.सं. की स्थापना के लिए चुना गया था क्योंकि इस पर्व में शक्ति की उपासना और जन शक्ति के संगठन का भाव निहित है|  रा.स्व.सं. ने अपने संगठन के छह उत्सवों में विजयदशमी को भी सम्मिलित किया है| विजयदशमी को नागपुर में रा.स्व.सं. के मुख्यालय में प.पू. सरसंघचालक जी का उद्बोधन आगामी वर्ष का नीतिगत बीज वक्तव्य और स्वयंसेवकों के लिए दिशा निर्देश माना जाता है| पिछले कुछ वर्षों से तो इस उद्बोधन का सजीव प्रसारण भी सभी टीवी चैनलों पर होने लगा है|

 

इस प्रकार विजयदशमी या दशहरा सम्पूर्ण भारत का उत्सव है यद्यपि इसको मनाने की मान्यताओं और परम्पराओं में अनेक स्थानीय विविधताएँ है| परन्तु त्योहार एक ही है और उसके मूल में निहित भाव भी एक सामान है- शक्ति उपासना, अच्छाई की बुराई पर विजय का जश्न, जन शक्ति के संगठन द्वारा आसुरी शक्तियों का विनाश और समाज में धर्मराज्य की स्थापना| भारत एक धर्मनिष्ठ राष्ट्र है और उसी धर्मनिष्ठा का प्रतीक है विजयदशमी उत्सव|

 

 

 

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