मलेरिया आंकड़ों से 45 गुना अधिक मौत

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संजय स्वदेश

दुनिया में हर साल 12 लाख लोगों की मौत

एड्स और कैंसर के बचाव के लिए जागरुकता अभियान खूब चलते हैं। इसके अभियान पर कुल करोड़ों खर्च होते हैं। इसके समानांतर एड्स और कैंसर जैसी खतरनाक स्थितियों से बचाने के लिए उपयोगी उपकरण, दवा आदि का एक बड़ा बाजार मजबूत होते चलता है। मतलब ऐसे अभियानों से इनकी दवाओं का बाजार गर्म होता है। जिनके पास पैसा है, वह महंगी दवाओं से अपनी प्राणों की रक्षा में हजारों खर्च करते हैं। पर ऐसी स्थितियों में गरीब की मौत कब हो जाती है, पता ही नहीं चलता है। दिसंबर में हर वर्ष एड्स दिवस मनाया जाता है। सप्ताह, पखवाड़े भर कार्यक्रम चलता है। विदेशी संस्थाओं के साथ-साथ अपनी सरकार भी ऐसे आयोजनों को अच्छी खासी फंड देती है। 4 फरवरी को विश्व कैंसर पर समाचारपत्रों में इसकी जागरुकता को लेकर पाठ्य सामग्री है। इसके लिए भी विविध आयोजन हुए। जिन बीमारियों के दवाओं का बड़ा बाजार नहीं बन पाया, उसको लेकर कहीं शोर-गुल नहीं होता है। जब चिकित्सा समुदाय कैंसर दिवस मनाने की विविध तैयारियों में था। उसी दिन वाशिंगटन विश्वविद्यालय के संस्थान ‘इंस्टीट्यूट आॅफ हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैलुएशन’ ने 1980 से 2010 के बीच जुटाए आंकड़ों के आधार पर यह दावा किया 2010 में दुनिया भर में 12 लाख लोगों की मलेरिया से हुई। भारत में मलेरिया के मौजूदा अनुमानित आंकड़े से 45 गुना ज्यादा लोग मरे। मतलब मच्छर हर साल हजारों लोगों को मार रहे हैं। एड्स और कैंसर से भी इतने लोग हर साल नहीं मरते हैं। मच्छर मारने का सरकारी अभियान का पता नहीं। छत्तीसगढ़ समेत देश के अधिकर आदिवासी इलाकों में मलेरियां से सर्वाधिक मौत होती है। बचाव के लिए सरकारी अभियान घपलेबाजी में फंसे हैं। ताजा उदाहरण भी है। छत्तीसगढ़ में मलेरिया से बचाव के लिए मच्छरदानी की खरीद-फरोख्त में धांधली एक समाचारपत्र की सुर्खियां बनी। वर्तमान में यह प्रकरण हिलोरे लेते नहीं दिख रहा है। ऐसे ही कामोबेश हालात हर प्रदेश में है।

बीते साल विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया था कि 2010 में मलेरिया से दुनिया भर में तकरीबन साढ़े छह लाख लोगों की मौत हुई। भारत के संदर्भ में इस अध्ययन रिपोर्ट में चौंकाने वाले आंकड़े दिए गए हैं। इसमें कहा गया है कि साल 2010 में भारत में मलेरिया से करीब 46,970 लोगों की मौत हुई। इनमें पांच साल से कम उम्र के बच्चों की संख्या 4,826 जबकि पांच साल से अधिक उम्र के लोगों की संख्या 42,145 रही। इस रिपोर्ट से उलट भारत के राष्ट्रीय संक्रामक रोग नियंत्रण कार्यक्रम की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया था कि 2010 में सिर्फ 1,023 लोगों की मौत मलेरिया से हुई। 2002 में मलेरिया से भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के 19,000 बच्चों और इससे अधिक उम्र के लगभग 87,000 लोगों की मौत हुई थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उपचार की व्यवस्था और रोकथाम के उपाय बढ़ने से मलेरिया के कारण मौत के आंकड़े में गिरावट आई है। लेकिन रिपोर्ट का यह निष्कर्ष लगता है कि सरकारी बाबू और आंकड़ों से मिली जानकारी के आधार पर है। सरकार अपनी नकामी छुपाने के लिए क्या-क्या नहीं करती है। कभी आंकड़ों की बाजीगरी तो कभी, बयानों का खेल खेला जाता है। दरअसल दवा कपंनियां भी मलेरिया की सस्ती और कारगर दवा बनाने के प्रयास में नहीं है। इससे प्रभावित सबसे ज्यादा गरीब वर्ग है, जो गंदगी के बीच रहता है, महंगे इलाज के लिए आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है। गंदी बस्ती में ही मौत के मच्छर पैदा होते हैं। यदि यही बीमारी उच्च और आर्थिक रूप से संपन्न लोगों को होती तो कंपनियां भी इसे भुनाने के लिए दवा बनाने की होड़ में में लग जाती है। एड्स और कैंसर की तरह जागरुकता उन्मूलन अभियान प्रायोजित किये जाते। हालांकि ऐसी बात नहीं है कि यह बीमारी किसी अमीर को नहीं होती है, कभी कभी संपन्न वर्ग का आदमी भी इसकी चपेट में आता है। लेकिन अच्छी बात यह है कि संख्या नगण्य है। वर्ग जागरुकता होने के कारण तुरंत इलाज करा लेता है। वहीं गरीब और आदिवासी इलाकों में स्थिति भयावह है। थोड़ी-बहुत जागरुकता आई है तो अस्पताल पहुंचते-पहुंचते मलेरियां का प्रकोप काफी बढ़ चुका होता है। गैर-सरकारी संगठन और सरकार को चाहिए कि एड्स और कैंसर जैसी बीमारियों से जनता बचाने की तरह अपनी जागरुकता मलेरिया से बचाने में भी दिखाये।

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संजय स्‍वदेश
बिहार के गोपालगंज में हथुआ के मूल निवासी। किरोड़ीमल कॉलेज से स्नातकोत्तर। केंद्रीय हिंदी संस्थान के दिल्ली केंद्र से पत्रकारिता एवं अनुवाद में डिप्लोमा। अध्ययन काल से ही स्वतंत्र लेखन के साथ कैरियर की शुरूआत। आकाशवाणी के रिसर्च केंद्र में स्वतंत्र कार्य। अमर उजाला में प्रशिक्षु पत्रकार। दिल्ली से प्रकाशित दैनिक महामेधा से नौकरी। सहारा समय, हिन्दुस्तान, नवभारत टाईम्स के साथ कार्यअनुभव। 2006 में दैनिक भास्कर नागपुर से जुड़े। इन दिनों नागपुर से सच भी और साहस के साथ एक आंदोलन, बौद्धिक आजादी का दावा करने वाले सामाचार पत्र दैनिक १८५७ के मुख्य संवाददाता की भूमिका निभाने के साथ स्थानीय जनअभियानों से जुड़ाव। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के साथ लेखन कार्य।

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