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कर पाते कहाँ वे विकास ! - प्रवक्‍ता.कॉम - Pravakta.Com
(मधुगीति १८०७२४) कर पाते कहाँ वे विकास, कर के कुछ प्रयास; वे लगाते रहे क़यास, बिना आत्म भास ! विश्वास कहाँ आश कहाँ, किए बिन सकाश; संकल्प कहाँ योग कहाँ, धारणा कहाँ ! है ध्येय कहाँ ज्ञेय रहा, गात मन थका; उद्देश्य सफल कहाँ हुआ, ना मिली दुआ ! बेहतर है प्रचुर कर्म करें, ज्ञान सृष्टि कर; सृष्टा को ध्यान कर के वरें, अपने कलेवर ! उर उनकी सुने चलते रहें, बृह्म भाव रस; ‘मधु’ के प्रभु के कार्य करें, उनके हृदय बस ! रचनाकार: गोपाल बघेल ‘मधु’