साहित्यकारों का पुरस्कार लौटाना ठीक नहीं

सुरेश हिन्दुस्थानी

हमारी भारतभूमि ने अनेक प्रेरणादायी साहित्यकारों को जन्म दिया है। विश्व के अनेक देश साहित्य की गहराई में उतरने के लिए भारत की तरफ मुखातिब होते हैं। वास्तव में भारत साहित्य की जननी है। लेकिन वर्तमान में साहित्य को विकृत रूप देने वाले साहित्यकार अपनी स्वयं की प्रतिभा पर ही बहुत बड़ा सवाल स्थापित करने पर उतारू हैं। इन साहित्यकारों को देश की सांस्कृतिक परम्पराओं का भी बोध नहीं रहा। जिस प्रकार से देश के कुछ प्रगतिशील साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार लौटाने का क्रम चलाया है, उससे तो ऐसा ही लगता है कि इन लोगों को साहित्य से इतना प्रेम नहीं है, जितना अपनी सुख सुविधाओं से है। पूर्व की सरकारों के समय सम्मान प्राप्त करने वाले साहित्यकारों का स्वाभिमान एकदम से जागृत हो गया है।

साहित्य अकादमी से सम्मानित ये सभी साहित्यकार पुरस्कारों का परित्याग करके निश्चित रूप साहित्य को तो कलंकित कर ही रहे हैं, साथ ही पुरस्कार का भी अपमान कर रहे हैं। वास्तव में इन साहित्यकारों को पुरस्कार की कीमत का पता नहीं है
दादरी की घटना के बाद देश के बुद्धजीवियों में अजीब तरह की बेचैनी महसूस की जा रही है। कई कवियों और लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी है। पिछले दिनों कवि मुनव्वर राणा ने एक समाचार चैनल के कार्यक्रम में पुरस्कार वापस कर दिया। उन्होंने सीधे साहित्य अकादमी को स्मृति चिन्ह और एक लाख रूपए का चेक भेजना उचित नहीं समझा। यहां एक अहम सवाल यह है कि क्या इस तरह पुरस्कार वापस करना तर्कसंगत है। क्या देश में बिगड़ते सामाजिक माहौल के प्रति विरोध प्रकट करने का यह तरीका उचित है ?
इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि हर काल और परिस्थिति में साहित्यकारों की रचनाओं ने देश का मार्गदर्शन किया है। ऐसी स्थिति में सृजन क्षेत्र से जुड़े सभी बुद्धजीवियों से बहुत ही जिम्मेदाराना व्यवहार करने, संतुलित और संयमित दृष्टिकोण अपनाने की अपेक्षा समाज करता है। दुर्भाग्य की बात है कि आज धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ऐसा वातावरण निर्मित किया जा रहा है जो देश और समाज की गरिमा के विपरीत होने के साथ ही दुःखद है। निश्चित ही दादरी कांड हो या कोई और हिंसा निंदनीय है। धर्म या मान्यताओं के आधार पर कानून को अपने हाथ में लेने का अधिकार किसी को नहीं है।
यहां चिन्ता का विषय तो यह है कि साहित्यकारों ने हाल की हिंसात्मक घटनाओं के प्रति विरोध प्रकट करने का जो तरीका अपनाया, क्या वह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक नहीं है ? संविधान हमें अपनी बात रखने और विरोध प्रकट करने की आजादी प्रदान करता है। लेकिन साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार वापस करने के पीछे गिनाए जा रहे कारण तर्कसंगत नहीं। उनका ऐसा करना अपनी साहित्य सेवा पर खुद ही सवाल खड़े करना जैसा प्रतीत होता है। वास्तव में सरकार द्वारा किसी साहित्यकार को पुरस्कार विशेष कृति या साहित्य में योगदान के लिए दिया जाता है। ऐसे पुरस्कारों का देश की अन्य समस्याओं या घटना से कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बंध नहीं होता।
यह चलन तेजी से बढ़ रहा है कि हर अप्रिय घटना के लिए सीधे सरकार को दोषी ठहरा दिया जाए। कानून और व्यवस्था सरकार के अधीन होते हुए भी काफी हद तक प्रशासन पर निर्भर रहती है। ऐसी स्थिति में हर घटना के लिए प्रधानमंत्री के बयान की उम्मीद करना, केन्द्र सरकार पर बार-बार सवाल खड़े करना, एक स्वस्थ परम्परा नहीं है। हालांकि जनप्रतिनिधियों से समाज यह अपेक्षा जरूर करता है कि वे समाज को बांटने वाले गैरजरूरी वक्तव्यों से दूरी बनाए रखकर जनहित के मुद्दों पर अधिक ध्यान दें। एक ओर जहां समूचा विपक्ष एनडीए सरकार पर साम्प्रदायिक तनाव को बढ़ाने का आरोप लगाकर घेरने की कोशिश करता रहा है, वहीं अब बुद्धजीवियों द्वारा सरकार विरोधी ताकतों का साथ देना देश के विकास में बाधक साबित हो सकता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कई बार सार्वजनिक मंचों से आह्वान कर चुके हैं कि हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे से लड़ने के बजाय गरीबी को दूर करने के उपायों पर चिन्तन करें। सबका साथ, सबका विकास के नारे को साकार करने के लिए केन्द्र सरकार की प्रतिबद्धता जगजाहिर है। अभी सरकार को हर मोर्चे पर काम करने का पर्याप्त अवसर दिया जाना चाहिए। यही लोकतंत्र का तकाजा है। केवल वोट के ध्रुवीकरण का फायदा उठाने के लिए धर्मनिरपेक्षता के मुद्दों को उठाना, लोकतंत्रीय परम्परा के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता। ऐसा नहीं है कि देश में दादरी जैसी घटना पहली बार हुई है। कांग्रेस की सरकार में देश ने आपातकाल, 1984 के सिक्ख दंगे को झेला है। क्या यह कोई बता सकता है कि तब वे सब साहित्यकार कहां गए थे, जो आज शोर मचा रहे हैं ? क्या सिर्फ एक राजनीतिक दल या सरकार को दोषी ठहराकर बुद्धजीवी अपनी जिम्मेदारी से भागते नजर नहीं आ रहे। सच कहें तो इन मुद्दों से न केवल देष की छवि खराब हो रही है, बल्कि विकास बाधित हो रहा है। यह वक्त है केन्द्र सरकार को आम जनता से जुड़ी समस्याओं से अवगत कराने और उनका समाधान पाने की ओर अग्रसर होने का। आश्चर्य की बात है कि कानून और व्यवस्था राज्य सरकार पर होने के बावजूद भी कोई भी उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार पर उंगली नहीं उठा रहा कि उनके शासन में दादरी कांड कैसे हो गया ? बेहतर होता कि साहित्यकार पुरस्कार लौटाने की बजाय विरोध का कोई सकारात्मक तरीका अपनाते। शांतिपूर्ण आंदोलन, धरना, प्रदर्शन, पत्र लिखकर अपनी व्यथा व्यक्त करना कहीं अधिक सहज और सम्मानजनक प्रतीत होता। इससे भी आगे बढ़कर केन्द्र और राज्य सरकारों को यह सुझाव दिए जा सकते थे कि आखिरसामाजिक सौहार्द्र को बढ़ाने और अप्रिय घटनाओं को रोकने के लिए क्या-क्या उपाय किए जाएं, कैसे कानून बनाएं जाएं, प्रषासन में किन-किन बदलावों कीजरूरत है, आदि।
भारत आज तेजी से उभरती हुई महाशक्ति है। इसे आगे बढ़ाने के लिए समाज के सभी वर्गों के रचनात्मक सहयोग की आवश्यकता है। अब वक्त आ गया है कि हम सभी भारतीवासी चाहे वे किसी भी धर्म, जाति, क्षेत्र के हों, सब साथ मिलकर भारत को सही दिशा में ले जाने के लिए संकल्पित हों। देश को तोड़ने वाली शक्तियों से दूरी बनाकर और अनावश्यक मुद्दों पर समय बर्बाद करने की अपेक्षा सकारात्मक होकर कार्य करने की जरूरत है।

1 COMMENT

  1. These writers are anti hindu and anti national .No one does anything when hindus get killed ,hindu women get raped by muslim anytime . ham eon them They should be in jail .

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