देवेंद्रराज सुथार
भारत में आजकल हर त्योहार अपनी परंपरा खोता-सा जा रहा है। आज की अधिकांश युवा पीढ़ी पुराने रीति रिवाजों को नहीं मानती। आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में युवाओं के पास परंपराएं निभाने का या तो समय ही नहीं है, या फिर उन तक इन त्योहारों का असली मकसद या महत्ता की जानकारी बड़े-बुजुर्गों द्वारा ठीक से पहुंची ही नहीं। होने को या फिर कहने को कुछ भी कहा जा सकता है। रक्षाबंधन भी सदियों से चला आ रहा बहुत ही महत्वपूर्ण त्योहार है। जिसमें हर बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बांधकर उससे अपनी रक्षा करने का वचन लेती है। पर आज के दौर में हर वस्तु का व्यापारीकरण बढ़ गया है। राखी पर तरह-तरह की लुभावनी राखियां तथा आकर्षक तोहफे सब इसी में उलझ कर रह गए लगते हैं। किसने किसको क्या दिया, किस से क्या मिला इत्यादि प्रकार की चर्चाएं इसका प्रमाण है। भावना जो साथ जुड़ी होनी चाहिए उसका महत्व कहीं लुप्त-सा होता जा रहा है।
परिवर्तन तो संसार का नियम है। इस बदलते हुए परिवेश में भी अगर उसी भाई बहन के अनमोल प्यार की भावना साथ जुड़ी हो तो चलो इन सब चीजों में भी कोई बुराई नहीं। जिसमें जितना सामर्थ्य होगा वो उतना ही कर पाए तो ठीक रहेगा। सिर्फ दिखावे के लिए तोहफों का आदान-प्रदान नहीं होना चाहिए। फिर आजकल तो हर घर में एक या दो ही बच्चे हैं। जो इकलौते हैं वो इस त्योहार से वंचित रह जाते हैं और जहां बहनों की जोड़ी या भाइयों की जोड़ी होती है वो भी इस रक्षाबंधन का आनंद नहीं उठा पाते। हालांकि, लड़की को भी कमजोर न समझते हुए आजकल कहीं कहीं बहनें भी एक-दूसरे को राखी बांधती हैं। एक-दूसरे की रक्षा तथा साथ निभाने का वचन देती हैं। अगर ये देन-लेन के चक्कर से मुक्त रहें तो आस-पड़ोस में या फिर दोस्त के बच्चे भी एक-दूसरे को राखी बांध सकते हैं। इससे जहां बच्चों को भाई बहन की कमी नहीं खलेगी, वहीं मजहबी दीवारें भी गिरेंगी और एक-दूसरे की इज्जत को कैसे बचाये रखना है, बच्चे ये भी सीखेंगे। आज की तारीख में भी रक्षाबंधन के दशकों पुराने फिल्मी गाने प्रचलित हैं। ”भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना” या फिर ”बहना ने भाई की कलाई पे प्यार बांधा है।” फिल्मों का हमारे समाज पर बहुत असर पड़ता है। अपनी हर धरोहर को, परंपरा को और त्योहारों के महत्व को बनाये रखने के लिए फिल्म उद्योग का भी आगे आना उतना ही मायने रखता है, जितना हर परिवार के बुजुर्गों का।
आज कई युवा अपने रास्ते से भटक रहे हैं और कुछ युवा तो दरिंदगी भरे काम कर रहे हैं जिनसे सिर्फ उन लड़कियों की ही नहीं, बल्कि परिवारों की जिंदगियां भी तबाह हो रही हैं। ऐसे में रक्षाबंधन जैसे त्योहार का महत्व ओर बढ़ जाता है। पर जैसे कि पौधे को शुरू से ही सींचा जाए तो ही एक बड़ा वृक्ष पनप कर उभरता है ऐसे ही बचपन से ही राखी जैसे पवित्र त्योहार को, हर परिवार में एक अच्छी सोच के साथ मनाना बहुत आवश्यक है। दरअसल, रक्षाबंधन सिर्फ एक धागे का नाम नहीं है, प्यार के दो तार से संसार बांधने वाला ये पर्व है जो एक उत्तरदायित्व से बंधा हुआ है। जिसमें सम्मान भी है और जिम्मेदारी भी, जो ये प्यार से परिपूर्ण धागा भाई की कलाई पर बंधता है। ये त्योहार के बहाने अपने व्यस्त जीवन में से एक दिन निकाल कर व्यक्ति एकजुट होते हैं और साथ समय व्यतीत करते हैं। त्योहार के बहाने ही सही रिश्तों की दूरियां कम हो रही हैं एवं पर्व के साथ बंधे मनोभावों के बदल जाने का अहसास तो होता है। जमाने के साथ-साथ रिश्तों के मायने भी बदल रहे हैं, रिश्तों से जुड़े त्योहार भी बदल रहे हैं रक्षाबंधन के मायने वह नहीं रहे जो पहले थे।
माना जाता है कि ‘येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वां प्रतिबध्नामि, रक्षे! मा चल! मा चल!!’ संकल्प मंत्र के साथ रक्षा सूत्र बांधना वैदिक परंपरा का हिस्सा है, पुराणों के अनुसार देवी लक्ष्मी ने राजा बलि के हाथों में अपने पति की रक्षा के लिए यह बंधन बांधा था, असुरों के दानवीर राजा बलि की अमरता के लिए भगवान वामन ने उनकी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा था, इतिहास के अनुसार कर्मवती ने इसी रक्षा सूत्र को हुमायूँ बादशाह को भेजा था, समय बदलता गया, इतिहास भूगोल बदलता गया, रक्षा और रक्षासूत्र के मायने भी बदलते गए अन्यथा आज समाज में इतनी अभद्रता, व्यभिचार हमारी बहनों के साथ नहीं होता। रक्षासूत्र एक पवित्र संकल्प है, एक उपासना है, एक जिम्मेदारी है और इसको निभाना हमारा नैतिक दायित्व है। वास्तव में, रक्षाबंधन सही मायनों में तभी सार्थक है जब हम इस त्योहार की अहमियत को समझ कर इस त्योहार को मनाये, न कि सिर्फ परंपरा समझ कर इसका निर्वाह करें।