त्रिपुरा का लोकनृत्य

त्रिपुरा पूर्वोत्तर का छोटा पर सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण राज्य है I महाभारत तथा पुराणों में भी त्रिपुरा का उल्लेख मिलता है I ‘त्रिपुरा’ नाम के संबंध में विद्वानों में मतभिन्नेता है । इसकी उत्प त्तिा के संबंध में अनेक मिथक और आख्या’न प्रचलित हैं । कहा जाता है कि उदयपुर स्थित देवी त्रिपुरसुंदरी के नाम पर त्रिपुरा का नामकरण हुआ । यह एक आम धारणा है कि राज्य का नाम “त्रिपुरसुंदरी” के नाम पर पड़ा है I त्रिपुरसुंदरी इस भूमि की संरक्षिका देवी हैं I इसे हिंदुओं की 51 शक्ति पीठों में से एक माना जाता है । गोमती जिले के उदयपुर में स्थित इस मंदिर का निर्माण 1501 ई. में महाराजा धन माणिक्य ने करवाया था। एक अन्य मत है कि तीन नगरों की भूमि होने के कारण इस राज्य का त्रिपुरा नाम पड़ा । विद्वानों के एक वर्ग की मान्योता है कि मिथकीय सम्राट त्रिपुर का राज्य होने के कारण इसे त्रिपुरा नाम दिया गया । कुछ विद्वानों का अभिमत है कि ‘त्रिपुरा’ शब्द दो जनजातीय शब्दा ‘तुई’ और ‘प्रा’ का विकृत रूप है जिसका शाब्दिभक अर्थ है ‘जल की निकटवर्ती भूमि’(तुई-जल, प्रा-निकट) । तुई–प्रा का विकृत रूप तिपरा और तिपरा का विकृत रूप त्रिपुरा हो गया है I ‘राजमाला’ के अनुसार त्रिपुरा के शासकों को ‘’फा’’ उपनाम से संबोधित किया जाता था जिसका अर्थ पिता होता है I त्रिपुरा का आरंभिक इतिहास विशेषकर 15 वीं शताब्दी से पहले का इतिहास स्पष्ट नही है I त्रिपुरा का आरंभिक इतिहास आख्यानों और कल्पनाओं से निर्मित है जिस पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता I त्रिपुरा के शासकों को मुगलों के बार-बार आक्रमण का सामना करना पड़ा I 19 वीं शताब्दी में महाराजा वीरचंद्र किशोर माणिक्य बहादुर के शासनकाल में त्रिपुरा में नए युग का सूत्रपात हुआ I उनके उत्तराधिकारियों ने 15 अक्टूबर 1949 तक त्रिपुरा पर शासन किया I इसके बाद यह भारत संघ में शामिल हो गया I त्रिपुरा एक प्राचीन हिन्दू राज्य था और 15 अक्टूबर 1949 को भारत संघ में विलय से पहले 1300 वर्षों तक यहाँ महाराजा शासन करते थे I राज्यों का पुनर्गठन होने पर 01 सितम्बर 1956 को त्रिपुरा को केंद्रशासित प्रदेश बनाया गया I उत्तर-पूर्व पुनर्गठन अधिनियम 1971 के अनुसार 21 जनवरी 1972 को इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया । उन्नीस आदिवासी समूह त्रिपुरा के समाज को वैविध्यापूर्ण बनाते हैं जिनमें प्रमुख हैं- त्रिपुरी, रियांग, नोआतिया, जमातिया, चकमा, हलाम, मोग, कुकी, गारो, लुशाई, संताल, भील, खसिया, मुंडा इत्यामदि । आदिवासियों के अतिरिक्त यहाँ बंगाली और मणिपुरी लोग भी रहते हैं I त्रिपुरा की उन्नीस जनजातियों में से पांच प्रमुख हैं जिन्हें ‘’पंच’’ की संज्ञा दी जाती है I त्रिपुरा के आदिवासियों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है–1.मूल निवासी 2.अप्रवासी I त्रिपुरी, रियांग, जमातिया, नोआतिया और हलाम समुदाय यहाँ के मूल निवासी हैं जिन्हें ‘पंच’ की संज्ञा दी जाती है I मुंडा, ओरंग, संथाल, लेपचा, खासिया, भूटिया, नागा, लुशोई, उचई, चैमल, कुकी, गारो, मोग, चकमा इस प्रदेश की अप्रवासी जनजातियाँ हैं जो विभिन कारणों से विभिन्न कालखंडों में भारत के अन्य प्रदेशों से आकर यहाँ बसी हैं I अधिकांश जनजातियाँ मध्यप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, प. बंगाल से आकर यहाँ बसी हैं I कुछ जनजातियाँ भूटान, मेघालय, मिज़ोरम, सिक्किम, मणिपुर से भी आयी हैं I धर्म की दृष्टि से त्रिपुरा के अधिकांश आदिवासी हिंदू धर्म को मानते हैं I कुकी और लुशाई समुदाय के लोग ईसाई धर्म का अनुसरण करते हैं जबकि चकमा और मोग समुदाय बौद्ध धर्म को मानते हैं I इस प्रदेश के पास उन्नत सांस्कृचतिक विरासत, समृद्ध परंपरा, लोक उत्सुव और लोकरंगों का अद्धितीय भंडार है । नृत्य त्रिपुरा के आदिवासियों की जीवन शैली का अभिन्न अंग है I यहाँ के विभिन्न समुदायों की नृत्य शैली में पर्याप्त भिन्नता है I अधिकांश नृत्य त्योहारों के अवसर पर प्रस्तुत किये जाते हैं I नृत्य में बांस से निर्मित झांझ, खम्ब, बांसुरी आदि वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है I त्रिपुरा के प्रमुख लोक नृत्य हैं-रियांग समुदाय का होजागिरी नृत्य, गरिया, झूम, मैमिता, मसक सुमानी और त्रिपुरी समुदाय के लेबांग बूमनी नृत्य, चकमा समुदाय का बीझु नृत्य, लुसाई समुदाय के चेराव और वेलकम नृत्य, गारो समुदाय के वांगला नृत्य, मोग समुदाय का संगरायका, चिमिथांग, पदिशा और अभंगमा नृत्य, जमातिया समुदाय के गरिया नृत्य, बंगाली समुदाय के गजन, धमाएल सारी और रवींद्र नृत्य और मणिपुरी समुदाय के बसंत रास नृत्य। प्रत्येक समुदाय के अपने पारंपरिक वाद्ययंत्र होते हैं जिनमें से कुछ के नाम हैं-खंब (ड्रम), बांस की बांसुरी, लेबंग, सरिंदा, दोतारा, खेनग्रोंग आदि।
गरिया नृत्य-त्रिपुरी समुदाय अच्छी फसल के लिए चैत मास में भगवान गरिया की पूजा करता है I इस नृत्य के द्वारा अपने देवी-देवताओं को प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता है I इसमें स्त्री–पुरुष सभी शामिल होते हैं I त्रिपुरी समुदाय का जीवन झूम खेती के इर्द-गिर्द घूमता है। जब अप्रैल के मध्य तक झूम के लिए चयनित भूमि के एक भूखंड पर बीज की बुवाई समाप्त हो जाती है तो अच्छी फसल के लिए भगवान गरिया की पूजा-प्रार्थना की जाती है । गरिया पूजा से जुड़े उत्सव सात दिनों तक चलते हैं I गीत और नृत्य के साथ अपने प्रिय देवता को प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता है ।
लेबंग बूमनी नृत्य-गरिया उत्सव समाप्त होने के बाद त्रिपुरी समुदाय के पास मानसून की प्रतीक्षा करने का पर्याप्त समय होता है। इस अवधि में लेबांग नामक आकर्षक रंगीन कीड़े बोए गए बीजों की तलाश में पहाड़ी ढलानों पर जाते हैं। पुरुष अपने हाथ में दो बांस की खपच्ची से एक अजीबोगरीब लयबद्ध ध्वनि निकालते हैं वहीं महिलाएं पहाड़ी ढलान पर ‘लेबंग’ नामक कीड़ों को पकड़ती हैं। बाँस की ध्वनि की लय इन कीड़ों को आकर्षित करती है और महिलाएं उन्हें पकड़ लेती हैं। समय में बदलाव के कारण झूम खेती धीरे-धीरे कम हो रही है। दोनों नृत्यों में त्रिपुरी समुदाय बांस से बने खंब, बांसुरी, सारिंडा, लेबांग जैसे बांस से बने वाद्य यंत्रों का उपयोग करते हैं।
होजागिरी नृत्य-होजागिरी रियांग समुदाय का प्रमुख लोकनृत्य है I इस नृत्य में हाथ अथवा शरीर के ऊपरी अंगो का संचालन नहीं होता है I कमर से पैरों तक के अंगों के संचालन से भावनाएं संप्रेषित की जाती हैं I नृत्य की थीम लगभग अन्य जनजातियों की तरह ही है, लेकिन रियांग समुदाय का नृत्य रूप दूसरों से काफी अलग है। हाथों या यहां तक कि शरीर के ऊपरी हिस्से की गति कुछ हद तक प्रतिबंधित होती है जबकि उनकी कमर से नीचे की ओर उनके पैरों से शुरू होनेवाली हलचल एक अद्भुत लहर पैदा करती है। सिर पर बोतल और उस पर एक रोशन दीपक रख मिट्टी के घड़े पर खड़े होकर जब रियांग नर्तक नृत्य करते हुए लयबद्ध रूप से शरीर के निचले हिस्से को घुमाते हैं तो दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं । रियांग समुदाय के लोग बांस से बने खंब, बांसुरी जैसे बांस से बने वाद्य यंत्रों का उपयोग करते हैं।
बिझू नृत्य-यह नृत्य चकमा समुदाय का लोकप्रिय नृत्य है। बिझू का अर्थ है ‘चैत्र-संक्रांति’। ‘चैत्र-संक्रांति’ बंगाली कैलेंडर वर्ष के अंत को दर्शाता है। इस अवधि में चकमा गीत गाते हैं और बीत रहे वर्ष को विदाई देने के साथ-साथ नए साल का स्वागत करते हैं।
हय-हक नृत्य-हय-हक हलाम जनजाति का प्रमुख नृत्य है I हलाम समुदाय का हई–हक नृत्य कृषि से सम्बंधित है I खेतों में बोआई करने के उपरांत माता लक्ष्मी की अभ्यर्थना में यह नृत्य प्रस्तुत किया जाता है I प्रदेश के अन्य जनजातीय समुदाय की तरह हलाम समुदाय का सामाजिक और आर्थिक जीवन भी झूम खेती के इर्द-गिर्द घूमता है। कटाई के मौसम का अंत होने पर पारंपरिक रूप से देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए इस पर्व का आयोजन होता है। वे लोकप्रिय हय-हक नृत्य के साथ इस उत्सव का आनंद लेते हैं। यह एक सामुदायिक नृत्य है। इस नृत्य में अतीत की विरासत प्रतिबिंबित होती है।
वंगला नृत्य-अच्छी फसल होने के बाद प्रत्येक घर में ‘वंगला’ (प्रथम चावल खाने की रस्म) त्योहार मनाया जाता है। इस त्योहार में समुदायों के प्रमुख हर घर में जाते हैं और कद्दू काटते हैं I कद्दू को काटना इस त्योहार का एक अनिवार्य रस्म है । इस अवसर पर कद्दू की बलि देने की अत्यंत प्राचीन परंपरा है। उसके बाद महिलाएं भैंस के सींग से बने ‘दामा’ और ‘आदुरी’ की धुन पर नृत्य करती हैं। यह युद्ध नृत्य है।
स्वागत नृत्य (वेलकम डांस)-त्रिपुरा की लुसाई जनजाति की बालिकाओं द्वारा अतिथियों के आगमन पर स्वागत नृत्य प्रस्तुत किया जाता I लड़कियाँ रंग–बिरंगे वस्त्र धारण कर और बालों में पुष्प लगाकर विशिष्ट अतिथि के सम्मुख नृत्य करती हैं I इस नृत्य के लिए लुसाई लड़कियां अच्छी तरह से तैयार होती हैं। जब भी कोई आगंतुक उनके घर जाता है तो वे स्वागत नृत्य करती हैं। यह लुसाई जनजाति का रंगीन नृत्य है जिसमें पूरे समुदाय की युवा लड़कियां हिस्सा लेती हैं। उनकी पोशाक इतनी रंगीन होती है कि सुगंधित फूलों के अलावा गहनों की कोई आवश्यकता नहीं होती है।
चेरव नृत्य-डारलोंग समुदाय के लोग पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं । उनका मानना है कि मृत्यु के बाद मनुष्य को स्वर्ग जाना तय है। वे सोचते हैं कि यदि गर्भवती महिला की मृत्यु हो जाती है तो वह स्वर्ग की लंबी यात्रा पर जाने में कठिनाई महसूस करती है। इसलिए उसकी गर्भावस्था के अंतिम चरण में वास्तविक समय में या तुरंत प्रसव से पहले उसके सभी रिश्तेदार दिन-रात समूह में चेरव नृत्य करते हैं ताकि उस महिला के मन में आत्मविश्वास पैदा हो सके। उनका दृढ़ विश्वास है कि भले ही इस मोड़ पर महिला की मृत्यु हो जाए, परंतु साहस और आत्मविश्वास के साथ उसका स्वर्ग जाना संभव होगा।
संगराई नृत्य-बंगाली कैलेंडर वर्ष के चैत्र महीने में संगराई त्योहार के अवसर पर मोग समुदाय के लोगों द्वारा संगराई नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। इस नृत्य में मोग जनजाति के युवा लड़के-लड़कियां शामिल होते हैं और नए साल के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्त करते हैं I

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वीरेन्द्र परमार
एम.ए. (हिंदी),बी.एड.,नेट(यूजीसी),पीएच.डी., पूर्वोत्तर भारत के सामाजिक,सांस्कृतिक, भाषिक,साहित्यिक पक्षों,राजभाषा,राष्ट्रभाषा,लोकसाहित्य आदि विषयों पर गंभीर लेखन I प्रकाशित पुस्तकें :- 1. अरुणाचल का लोकजीवन(2003) 2.अरुणाचल के आदिवासी और उनका लोकसाहित्य(2009) 3.हिंदी सेवी संस्था कोश(2009) 4.राजभाषा विमर्श(2009) 5.कथाकार आचार्य शिवपूजन सहाय (2010) 6.डॉ मुचकुंद शर्मा:शेषकथा (संपादन-2010) 7.हिंदी:राजभाषा,जनभाषा, विश्वभाषा (संपादन- 2013) प्रकाशनाधीन पुस्तकें • पूर्वोत्तर के आदिवासी, लोकसाहित्य और संस्कृति • मैं जब भ्रष्ट हुआ (व्यंग्य संग्रह) • हिंदी कार्यशाला: स्वरूप और मानक पाठ • अरुणाचल प्रदेश : अतीत से वर्तमान तक (संपादन ) सम्प्रति:- उपनिदेशक(राजभाषा),केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड, जल संसाधन,नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय(भारत सरकार),भूजल भवन, फरीदाबाद- 121001, संपर्क न.: 9868200085

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