खाद्य सुरक्षा कानून देशभर में लागू

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foodदेशभर में मिला गरीबों को सस्ते अनाज का हक
प्रमोद भार्गव
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्शा कानून पूरे देश में लागू हो गया है। इस कानून के तहत अब देशभर के 80 करोड़ लोगों को 2 रुपए किलो गेहूं और 3 रुपए किलो चावल मिलेंगे। गरीबों अथवा भूखों को मिले इस सस्ते अनाज के अधिकार को इस कानून का उज्जवल पक्ष माना जा सकता है। लेकिन इतनी बड़ी संख्या में देश के लोग भूखे हैं, तो यह हमारी आजादी के बाद की सरकारों का वह काला पक्ष है कि नीतियां कुछ ऐसी बनाई जा रही हैं कि बड़ी संख्या में लोग रोटी या आजीविका के हक से वंचित होते जा रहे हैं। पूंजी और संसाधनों पर अधिकार आबादी के चंद लोगों की मुट्ठी में सिमटता चला जा रहा है। इस लिहाज से भूख की समस्या का यह हल सम्ममानजनक व स्थाई नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में अब देश के नीति-नियंताओं की कोषिषें यह हानी चाहिएं कि लोग श्रम से आजीविका कमाने के उपायों से खुद जुड़ें और आगे भूख सूचकांक का जब भी नया सर्वेक्षण आए तो उसमें भूखों की संख्या घटती दिखे ?
खाद्य सुरक्शा अधिनियम पूरे देश में लागू होना केंद्र सरकार की उत्साह से भरी पहल हैं। खाद्य सुरक्शा का दायरा अब बढ़कर कुल आबादी का करीब 67 फीसदी हो जाएगा, मसलन करीब 80 करोड़ लोगों को रियायती दर पर अनाज देना होगा। इसके दायरे में षहरों में रहने वाले 50 प्रतिशत और गांवों में रहने वाले 75 फीसदी लोग आएंगे इस कल्याणकारी योजना पर 1 लाख 40 हजार करोड़ रुपए का खर्च सब्सिडी के रूप में होंगे। लोगों तक इसका लाभ पहुंचाने के लिए पीडीएस की 1,61,854 दुकानों पर इपीओएस मशीनें लगाई गई हैं, जिससे अनाज की तौल सही हो। सही लोगों को इसका लाभ मिले, इसके लिए राशन कार्डों को आधार नंबर से भी जोड़ा जा रहा है। अब तक 71 प्रतिशत राशन कार्डों को आधार से जोड़ भी दिया गया है। खाद्य आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने खाद्य सुरक्शा कानून लागू होने के बाद कहा है कि सरकार का ध्यान अब सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुधारने में रहेगा।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्शा अधिनियम को 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में लागू कर दिया गया है। सबसे आखिर में केरल और तमिलनाडू ने इसी माह 1 नवंबर से इसे लागू किया है। इन राज्यों ने यह कानून तब लागू किया जब केंद्र सरकार द्वारा कई बार चेतावनियां दी गईं। ग्रामीण गरीबों को बड़ी राहत देने के नजरिए से इस कानून को डाॅ मनमोहन सिंह सरकार ने 5 जुलाई 2013 को लागू किया था। इस कानून का लागू होना इसलिए जरूरी था, क्योंकि देश के 68 फीसदी किसान व खेती-किसानी पर निर्भर मजदूर भूखे पेट सो रहे थे। इसीलिए वैश्विक भूख सूचकांक में आने वाले 118 देशों में भारत 97वीं पायदान पर था। 1 दषक पहले जब इस सूचकांक की षुरूआत हुई थी, तब भारत 96वीं पायदान पर था। जाहिर है, भारत की भुखमरी लगातार बढ़ती रही हैं।
हालांकि पूंजीवाद के समर्थक अर्थशास्त्री और बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस कानून को लागू करने के विरोध में थीं। विष्व व्यापार संगठन की भी यही मंशा थी। दरअसल किसी भी देश के राश्ट्रप्रमुख की प्रतिबद्धता विष्व व्यापार से कहीं ज्यादा देश के गरीब व वंचित तबकों की खाघ सुरक्शा के प्रति होनी चाहिए। लिहाजा जेनेवा में 2014 में आयोजित हुए 160 सदस्यों वाले डब्ल्यूटीओ के सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने समुचित व्यापार अनुबंध ;टेªड फैलिसिटेशन एग्रीमेंटद्ध पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था। इस करार की सबसे महत्वपूर्ण षर्त थी कि संगठन का कोई भी सदस्य देश,अपने देश में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के मूल्य का 10 फीसदी से ज्यादा अनुदान खाद्य सुरक्शा पर नहीं दे सकता है। जबकि भारत के साथ विडंबना है कि नए खाद्य सुरक्शा कानून के तहत देश की 67 फीसदी आबादी खाद्य सुरक्शा के दायरे में आ गई है, इसके लिए बतौर सब्सिडी जिस धनराषि की जरूरत पड़ेगी वह सकल फसल उत्पाद मूल्य के 10 फीसदी से कहीं ज्यादा बैठती है। इस लिहाज से मोदी ने करार पर हस्ताक्षर नहीं करके यह मंशा जता दी थी कि उनकी सरकार गरीबों के हक में है। इस कानून में गरीब गर्भवती महिलाआंे और स्तनपान कराने वाली माताओं तथा बच्चों के लिए अलग से पौष्टिक आहार की व्यवस्था भी है।
अब सरकार को सबसे बड़ी चुनौति अनाज की खरीद और उसके उचित भण्डारण की रहेगी। अनाज ज्यादा खरीदा जाएगा तो उसके भण्डारण की अतिरिक्त व्यवस्था को अंजाम देना होगा। क्योंकि उचित व्यवस्था की कमी के चलते 2013 में हमारे गोदामों में करीब 168 लाख टन गेहंू खराब हो गया था। यह भारतीय खाद्य निगम के कुल जमा गेहूं का एक तिहाई हिस्सा था। इस अनाज से एक साल तक 2 करोड़ लोगों को भरपेट भोजन कराया जा सकता था। लेकिन अनाज की यह बर्बादी भण्डारों की कमी की बजाय अनाज भण्डारण में बरती गई लापरवाही के चलते हुई थी। पंजाब सरकार ने तो इस दौरान भारतीय खाद्य निगम ने कुछ गोदाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों को किराए पर भी उठा दिए थे। इन कारणों से कंपनियों का माल तो सुरक्षित रहा किंतु गरीबों का निवाला सड़ता रहा।
देश में किसानों की मेहनत और जैविक व पारंपारिक खेती को बढ़ावा देने के उपायों के चलते कृषि पैदावार लगातार बढ़ रही है। अब तक हरियाणा और पंजाब ही गेहूं उत्पादन में अग्रणी प्रदेश माने जाते थे, लेकिन अब मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तरप्रदेश और राजस्थान में भी गेहूं की रिकार्ड पैदावार हो रही है। इसमें धान, गेहूं, मक्का, ज्वार, दालें और मोटे अनाज व तिलहन शामिल हैं। इस पैदावार को 2020-21 तक 28 करोड़ टन तक पहुंचाने का सरकारी लक्ष्य है। जिससे बढ़ती आबादी के अपुपात में खाद्यान्न मांग की आपूर्ति की जा सके। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए कृषि उपज 2 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ाने की जरूरत है। यह एक बढ़ी चुनौती है। इससे मुकाबला करना तब और मुश्किल है जब हम उच्च गुणवत्ता वाली कृषि भूमि को औद्योगिक विकास के लिए भेंट चढ़ाते जा रहे है और अनाज भण्डारण के सुरक्षित उपाय नहीं कर पा रहे हैं। लिहाजा अनाज बड़ी मात्रा में सड़ कर हर साल बर्बाद हो रहा है।
साठ के दशक में हरित का्रंति की शुरूआत के साथ ही अनाज भण्डारण की समस्या भी सुरसा मुख बनती रही है। एक स्थान पर बड़ी मात्रा में भडंारण और फिर उसका सरंक्षण अपने आप में एक चुनौती भरा और बड़ी धनराशि से हासिल होने वाले लक्ष्य है। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आनाज की पूरे देश में एक साथ खरीद, भंडारण और फिर राज्यवार मांग के अनुसार वितरण का दायित्व भारतीय खाध निगम के पास है। जबकि भंडारो के निर्माण का काम केंदी्र्रय भण्डार निगम संभालता है। इसी तर्ज पर राज्य सरकारों के भी भण्डार निगम है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आजादी के 70 साल बाद भी बढ़ते उत्पादन के अनुपात मे केंद्र्र और राज्य दोनों ही स्तर पर अनाज भण्डार के मुकम्मल इतंजाम नहीं हुए।

अनाज वितरण की विसंगतियों के चलते राज्य सरकारें आबंटित कोटा वक्त पर नहीं उठातीं हैं। क्योंकि पीडीएस के अनाज का ढुलाई खर्च उन्हें उठाना होता है। दरअसल अब सरकारों को भण्डारण के इंतजाम पंचायत स्तर पर करने की जरूरत है। यदि ऐसा होता है तो अनाज का दोतरफा ढुलाई खर्च तो बचेगा ही, इस प्रक्रिया में अनाज का जो छीजन होता है उससे भी निजात मिलेगी। लेकिन नौकरशाही ऐसा करने नहीं देगी ? क्योंकि ढुलाई और छीजन दोनों ही स्थितियों में उसकी जेबें गरम होती हैं। वैसे पंचायत स्तर पर ऐसे भवन उपलब्ध हैं जिनमें सौ-सौ, दो-दो सौ क्विंटल अनाज रखा जा सकता है। यह सुविधा ग्राम स्तर पर दी जाती है तो इससे मिलने वाले किराये से ग्रामीणों की माली हालत में भी इजाफा होगा और सरकार का परिवहन खर्च भी बचेगा। अनाज का छीजन भी नहीं होगा।

 

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