आरक्षण का सामाजिक जीवन में महत्व

रमेश पतंगे

समता के विषय में इसाप की एक सुंदर कथा है। एक बार जंगल में शेर, सियार, भेड़िया और जंगली गधा इन चारों ने मिलकर सामूहिक शिकार करने का निर्णय लिया। शिकार के लिए वो चले गए। चारों ने मिलकर एक जंगली भैंसे की शिकार की। शिकार करने के बाद भक्ष्य को चार समान हिस्सों में बांटा जाएगा ऐसा पहले से ही तय था। शेर ने गधे को कहा, “इस शिकार को हम चारों में बांट दो।” गधे ने शिकार को चार समान हिस्सों में बांट दिया। शेर के सामने शेर का हिस्सा रखा गया। इतना छोटा सा हिस्सा देखकर शेर को क्रोध आया और वह बोला, “अबे गधे, तू तो गधे का गधा ठहरा। समानता इस प्रकार की होती है क्या?” ऐसा कहकर उसने गधे के गर्दन पर जोर से तमाचा मारा। शेर के तीक्ष्ण नाखून गधे के गले में घुसने के कारण वो मर गया। फिर शेर ने सियार को कहा, “अब तू इस शिकार का समान बंटवारा कर।” सियार ने चारों हिस्सों को इकट्ठा किया। उसमें से आधे से अधिक शेर को दिया और जो बचा था उसका भी आधे से अधिक हिस्सा भेड़िये को दिया और छोटा सा हिस्सा अपने पास रखा। बंटवारे का यह तरीका देखकर शेर प्रसन्न हुआ। उसने सियार से पूछा, “समता तत्व की इतनी अच्छी सूझ-बूझ तूने कहां से सीखी?” उत्तर में सियार कहता है, “मरे हुए गधे ने समता का सही अर्थ मुझे सिखलाया है।”

इसाप ने जब यह कहानी लिखी होगी तब शायद समता तत्व की चर्चा आज जिस प्रकार चलती है उस प्रकार नहीं चलती होगी। लेकिन इसाप की महानता इसमें है कि उसने समाज जीवन के एक शाश्वत सच्चाई को बहुत सुन्दर ढंग से अधोरेखित किया है। समाज में जो बलवान होता है उसकी समता की परिभाषा शेर जैसी रहती है। सोवियत रशिया में आर्थिक समता का एक प्रयोग किया गया। उसकी परिणति अंत में आर्थिक विषमता में हुई। इस संदर्भ में अंग्रेजी का एक वाक्य बहुत प्रसिध्द है। “All men are equal, but some are more equal” राजर्षि शाहूमहाराज आरक्षण नीति के पुरोधा माने जाते हैं। अपने छोटे से संस्थान में उन्होंने शासकीय सेवा में 50 प्रतिशत आरक्षण का घोषणापत्र प्रकाशित किया। उसकी तिथि थी 26 जुलाई 1902। इसे अब 105 बरस पूर्ण हो चुके हैं। उनके जीवन का एक प्रसंग है। किसी एक समय अभ्यंकर नाम के एक सज्जन महाराजा शाहूजी के साथ विवाद कर रहे थे कि आरक्षण के कारण गुणवत्ता (Merit) को खतरा पहुंचता है। आरक्षण के कारण क्षमतावान व्यक्ति, गुणवान व्यक्ति पीछे रह जाएगा। उसका अवसर (opporiturity) छीन लिया जायेगा। महाराज सब सुनते रहे। उस समय वे कुछ नहीं बोले। श्री अभ्यंकर को अपने साथ लेकर वे अश्वशाला में आए। उन्होंने अश्वशाला के प्रमुख को कहा, “सब घोड़ों के लिए खुराक (चंदी) रखी जाए और सब घोड़ों को छोड़ दो।” खुराक खाने के लिए सभी घोड़े दौड़ पड़े। जो तगड़े घोड़े थे उन्होंने दुर्बलों को खुराक के नजदीक आने नहीं दिया। दुर्बल घोड़े भूखे रह गये। अभ्यंकर की ओर मुड़कर महाराज ने कहा, “समाज में भी ऐसा ही होता है। जो सशक्त है वह कमजोरों को आगे आने नहीं देता। वह सब चीजों पर स्वामित्व निर्माण करने की चेष्टा करता है। इसी कारण दुर्बलों का भी संरक्षण हो, उन्हें भी अवसर मिले ऐसी Positive action करनी पड़ती है।”

समाज में व्यक्ति किस कारण सशक्त बनता है? व्यक्ति को सशक्त करने वाले कारण इस प्रकार हैं-

व्यक्ति की जन्मजाति: व्यक्ति का जन्म अगर उच्च जाति में होता है तो जन्म के कारण ही वह सशक्त बनता है। समाज में उसे मान सम्मान प्राप्त होता है।

धनशक्ति: धनवान व्यक्ति के बारे में एक सुभाषितकार लिखता है, “जिसके पास विपुल धन है वह विद्यावान, कुलवान माना जाता है।” धनशक्ति के कारण सभी चीजें उसे आसानी से प्राप्त होती हैं।

राजशक्ति: व्यक्ति का जन्म किसी राजपरिवार में होता है तो राजसत्ता का बल उसे जन्मना प्राप्त हो जाता है। सत्ता स्थान पर पहुंचने के लिए उसे विशेष प्रयास या संघर्ष करने नहीं पड़ते हैं। इंदिराजी का पुत्र होने के कारण राजीव गांधी आसानी से प्रधानमंत्री बन गए। उनके पुत्र राहुल गांधी बिना प्रयास कांग्रेस के नेता बन गए।

धर्मसत्ता: धर्मसत्ता समाज में बहुत शक्तिशाली होती है। पुरोहित वर्ग धर्मसत्ता का अंग है। उसे मान-सम्मान, धन आदि प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है। मठाधिपति, साधु-संत, प्रवचनकार जनता के आदर और स्नेह के पात्र होते हैं।

ज्ञानशक्ति: व्यक्ति को प्रतिष्ठा देने में ज्ञानशक्ति का योगदान बहुत बड़ा है। सामान्य जीवन में पढ़ा लिखा आदमी आदर का पात्र होता है। अनपढ़ों में एकाध पढ़ा हुआ व्यक्ति बहुत विद्वान समझा जाता है। जिसके पास विज्ञान का, अर्थशास्त्र का, समाजशास्त्र का, Managment शास्त्र का, सूचना तथा प्रौद्योगिकी का, आधुनिक तंत्रज्ञान का, व्यापार का ज्ञान होता है वह आज के जमाने में बहुत शक्तिशाली व्यक्ति समझा जाता है।

Media शक्ति: आधुनिक काल में Print Media तथा Electronic Media शक्तिशाली माना जाता है। उसकी शक्ति से राजनेता से लेकर धर्मनेता तक सभी डरते हैं। इस शक्ति के कारण राजसत्ता भी पलट जाती है। बोफोर्स कांड इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। पिछले साल कुछ विधायकों को घुसखोरी कांड में फंसाया गया। Media जिस के हाथ में है उसकी समाज पर सत्ता होती है। ‘Media rules the world‘ यह आज का मंत्र है।

संघटनशक्ति: अपना समाज जाति तथा पंथों में बंटा है। जिस जाति या पंथ के पास संघटन शक्ति होती है वह जाति या पंथ राजसत्ता को भी झुका देते हैं। ऐसे जाति या पंथ का अंग होने के कारण व्यक्ति के खिलाफ उंगली उठाना आसान बात नहीं होती।

यह सात कारण व्यक्ति को सशक्त बनाते हैं। इन सात शक्तिकेन्द्रों का बंटवारा समाज में समता के तत्तव के अनुसार कभी नहीं होता। जिसके पास शक्ति है वह उस शक्ति को कभी छोड़ना नहीं चाहता। शक्ति का एक समान गुणधर्म है Concentration करने का। राजपरिवार हमेशा यही चाहेगा कि सत्ता उसके परिवार के बाहर कभी न जाए। धनवान व्यक्ति भी यही चाहेगा कि धन उसके परिवार में ही सीमित रहे। डॉक्टर चाहेगा कि अपना बेटा या बेटी ही डाक्टर बने। इंजीनियर भी यही चाहेगा। धर्मसत्ता भी इसके लिए अपवाद नहीं है। जो गृहस्थी धर्माचार्य है वे अपनी बेटी या बेटे को ही उत्ताराधिकारी बनाते हैं। पूज्य पांडुरंग शास्त्रीजी की विरासत उनके बेटी के पास गई। यह स्वभाविक मनुष्य प्रवृत्ति है। इसे दुनिया की कोई भी ताकत या तत्तवज्ञान बदल नहीं सकता।

जिसके पास अल्पमात्रा में भी शक्ति या ज्ञान होता है वह उसे किसी के साथ बांटना नहीं चाहता। इसका एक रोचक उदाहरण मैं देना चाहूंगा। कुछ साल पहले लोनावाला में (पूना के पास) हम बैठक के लिए गए थे। बैठक समाप्त होने के पश्चात् घूमने के लिए एक सुमो चाहिए थी। एक सज्जन ने बताया, फलाने गली में सुमो का अड्डा है, वहां सुमो मिलेगी। उस जगह का पता पूछने के लिए आठ-दस दुकानवालों को हमने पूछा। उनका जवाब था, “हम आपको सुमो देते हैं। सुमो का अड्डा कहां हैं, पता नहीं।” दुकानकार ऐसा इसलिए कह रहे थे कि सुमो पर उसे कमीशन मिलने वाला था। उसे वह गंवाना नहीं चाहता था। यह प्रवृत्ति सभी क्षेत्र में रहती है। मैंने अगर ज्ञान दिया या information दी तो मेरा घाटा होगा। मेरे लिए Competitor खड़ा होगा यह भय रहता है।

व्यक्ति को सशक्त करने वाले केन्द्र तक पहुंचना समाज के दुर्बल और पिछड़े वर्ग के लिए महा कठिन काम है। जन्म के कारण जो विषमता पैदा होती है उसे दूर करना और भी कठिन कार्य है। समाज का कोई भी सशक्त वर्ग समता का तत्वज्ञान पढ़कर उसकी आवश्यकता महसूस कर समतायुक्त व्यवहार नहीं करेगा। समतायुक्त व्यवहार का अर्थ होता है Sharing of power, sharing of benifits of power. वह दयाभाव से दान देगा। पुण्य प्राप्ति के लिए या प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए सेवा कार्य में हाथ बढ़ाएगा लेकिन अपने मर्म की बात वह किसी के साथ Share नहीं करेगा।

शक्ति का दूसरा गुणधर्म है शोषण का और यह गुणधर्म जागतिक (Universal) है। जिसके पास शक्ति है वह जाने या अनजाने में भी शोषण करते रहता है। शोषण विषमता की जननी है। विषमता के 5 प्रकार हैं। (1) सामाजिक विषमता, (2) आर्थिक विषमता, (3) राजनैतिक विषमता, (4) धार्मिक विषमता, (5) सांस्कृतिक विषमता। जातिभेद सामाजिक विषमता को जन्म देता है। जातिभेद के कारण Graded inequality की उपज है। जो जिस जाति में जन्मा है वह अंत तक वही रहता है। डॉ. बाबासाहब जी के शब्दों में कहना हो तो, “हिन्दू समाज अनेक मंजिलों की इमारत है और उसकी कोई सीढ़ी नहीं। आर्थिक विषमता धन के विषम बंटवारे के कारण होती है। मार्क्‍स का Surplus value का सिध्दांत यहां पर काम करता है। श्रमिक का धन श्रम होता है। लेकिन उसका मूल्य धनवान व्यक्ति तय करता है। इसी प्रकार का विश्लेषण अन्य कारणों का भी किया जा सकता है। परन्तु विस्तार भय के कारण हम इन विषयों को यहीं छोड़ देते हैं।

सब प्रकार की विषमता के कारण समाज पुरूष को Cancer जैसी भयंकर बीमारी लग जाती है। Cancer ग्रस्त व्यक्ति का एक ही भवितव्य सुनिश्चित है- मृत्यु! जिस समाज पुरूष के शरीर में सब प्रकार की विषमता का Cancer घुसा है उसकी मृत्यु को कोई टाल नहीं सकता। भारत सहित दुनिया के समाज के इतिहास का अगर हम अवलोकन करे तो इस सत्य को समझने में कठिनाई नहीं होगी। बंगाल के संदर्भ में स्वामी विवेकानन्दजी ने लिखा है कि आप धनिक और उच्चवर्गीय लोग सोने की थाली में खाना खा रहे थे। गरीब, दीनदुखी, भूखे, कंगाल अपने ही बांधवों की ओर ध्‍यान देने के लिए आपके पास समय नहीं था। अन्न के कारण लोग भूखे मर रहे हैं। इस पीड़ा को भगवान को सहा नहीं गया। ईश्वर न्याय किया और आपको सबक सिखाने के लिए मुस्लिम आक्रामकों को भेज दिया। विवेकानंदवाणी ऐसे समय बहुत कड़वी होती है।

पांच प्रकार की विषमता व्यक्ति को दस प्रकार से दुर्बल बनाती है। (1) सब प्रकार के ज्ञान से उसे वंचित रखती है।, (2) उसे निर्धन बनाती है।, (3) उसे अंधविश्वासी बना देती है।, (4) उसका सांस्कृतिक अध:पतन करती है।, (5) निर्धन और गरीब होने के कारण उसका जीवन पशुतुल्य बन जाता है।, (6) सब प्रकार की पराधीनता का वो शिकार बन जाता है।, (7) आत्मविश्वास, आत्मतेज खो बैठता है।, (8) समाज की सभी प्रकार की व्यवस्था में वह उदासीन बन जाता है।, (9) जब परकीय आक्रमण होता है तब उसके खिलाफ लड़ने की उसकी मानसिकता नहीं रहती।, (10) परधर्मियों का वह आसानी से शिकार बन जाता है।

समाज की उदासीनता के संदर्भ में इसाप की कहानी याद आती है। एक धोबी था। उसका एक गधा था। एक दिन उस गांव में परचक्र आया। लोग भागने लगे। धोबी गधे को कहता है, “अरे तू भी भाग जा। आक्रमणकारी तुझे पकड़ ले जाएंगे।” तब गधा कहता है, इसे मुझमें क्या फरक पड़ने वाला है? मालिक बदल जाएगा; बोझा तो वही ढोना है। बोझ ही ढोना है तो मेरे लिए मालिक कौन है, इसका कोई मतलब नहीं रहता। इसाप फिर से विदारक सत्य की बात करता है। पूने के पास कोरे गांव में अंग्रेजों की पेशवा के साथ 1918 में अंतिम लड़ाई हुई। जिसमें पेशवा हार गए। मराठी राज्य की इतिश्री हो गई। अंग्रेजों की फौज यहां के ही अस्पृश्यवर्ग के महार जाति की थी। उत्तर पेशवाई में अस्पृश्य वर्ग पर जो अनन्वित अत्याचार किये गए इसके कारण महारों को यह राज्य अपना राज्य है ऐसा नहीं लगा।

व्यक्ति को दुर्बल बनाने वाले दस कारणों का निराकरण करने की सबसे बड़ी शक्ति राज्य यंत्रणा में (State power) होती है। राज्य का यह काम है कि वह समाज के दुर्बल वर्ग को सबल बनाए। आरक्षण इसका एक तरीका है। आरक्षण के कारण दुर्बल वर्गों को अवसर उपलब्ध होता है। आरक्षण के बिना अवसर उपलब्ध होना असंभव है। आरक्षण के कारण Participatory role बढ़ता है। सहभागिता के बिना समरसता असंभव है। सहभागिता के कारण जो कार्य चलता है उसके विषय में आत्मभाव निर्माण होता है। संस्था जीवन में सहभागिता है तो वह संस्था अपनी लगेगी। गांव के ग्रंथालय से लेकर संसद तक समाज के सभी वर्गों की सहभागिता रहेगी तब इन सभी संस्थाओं के संदर्भ में आत्मीय भाव जगेगा। संस्था व्यक्तियों के कारण बनती है। एरवाद विचार जीवनमूल्य और ध्‍येय संस्था की आधारशिला होती है। आत्मीयता का मतलब होता है व्यक्तियों के प्रति आत्मीय भाव, मूल्यों के प्रति आत्मीयभाव, ध्‍येय के प्रति आत्मीयभाव विशेष अवसर देकर और हर स्थान पर आरक्षण की व्यवस्था कर सहभागिता की भावना को बढ़ावा देना चाहिए।

राजसत्ता को यह काम कैसे करना चाहिए इस विषय में एक पुरानी कहानी है। वह कहानी करूणा सागर भगवान गौतम बुध्द ने बताई है। वाराणसी का एक राजा था। उसके पास थोड़ा धन जमा हो गया। वह यज्ञ करना चाहता था। राजपुरोहित को उसने यज्ञ के बारे में पूछा। राजपुरोहित ने उसे कहा, “महाराज यज्ञ करने के लिए यह समय अनुकूल नहीं है। अपने राज्य में युवक बेकार हैं। खेती की उपज बहुत कम है। राज्य का व्यापार घटता जा रहा है। मेरी सलाह है कि जो धन राजकोष में जमा हुआ है उसका सदुपयोग करना चाहिए। कास्तकारों को उत्तम बीज, खाद तथा खेती के अवसर देने चाहिए। इसके कारण खेती की उपज बढ़ेगी और राजस्व भी बढेग़ा। जो युवा अपना निजी व्यवसाय करना चाहते हैं उन्हे पूंजी देनी चाहिए। सरकारी कामों को बढ़ाकर बेरोजगारों को काम देना चाहिए। उसके कारण भी राजस्व बढ़ेगा। व्यापार के लिए व्यापारियों को धन देना चाहिए। अच्छी सड़कें बनानी चाहिए। सुरक्षा के पुख्ता प्रबंध करने चाहिए। इससे भी राजस्व बढ़ेगा।” राजा ने वैसे ही किया। संपत्ति निर्माण के कारण धन बढ़ गया। लोग खुशहाल हो गए। राज्य का विकास हो गया।

आज के राज्य शासन को इस कथा से सबक सीखना चाहिए। धनपति के लिए सेज निर्माण करने से विषमता बढ़ेगी। दुर्बल वर्गों को प्रशिक्षित कर उनको पूंजीपति बनाने की योजना बनानी चाहिए। शिक्षा के निजीकरण के कारण दुर्बल वर्ग आधुनिक शिक्षा से वंचित रहेगा। आवश्यकता है शिक्षा के वंचितीकरण करने की। वंचित वर्ग के लिए केवल विद्यमान शिक्षा प्रणाली में आरक्षण पर्याप्त नहीं। उनके सक्षमीकरण के लिए विशेष शिक्षण संस्था University बनाने की आवश्यकता है। Banking क्षेत्र, आई.टी. Biotechnology, Hoteling, पर्यटन, Marketing इत्यादि आधुनिक क्षेत्र में प्रशिक्षित कर हमारे पिछडे बंधुओं को प्रगति का विशेष अवसर देना चाहिए। किसी एक जमाने में समाजवादी समाजरचना यह अपना नारा था। उसके कुछ अच्छे-बुरे दोनों पहलू हैं। अब हमारा नारा होना चाहिए समरसतावादी समाजरचना। समाज के सभी शक्ति केन्द्रों में समाज के दुर्बल पिछड़े वंचित वर्गों का सहभाग बढ़ाने की नीति अपनानी पड़ेगी। ऐसी नीति का एक vision document तैयार करना चाहिए और उसे कठोरता से क्रियान्वित करना चाहिए।

जैसा कि हम पहले ऊपर लिख चुके हैं Sharing of power vkSj sharing of benefits of power इसके लिए व्यक्ति तथा व्यक्ति समूह कभी तैयार नहीं होता। जो व्यवस्था बनी रहती है उसमें एक जबरदस्त vested interest lobby तैयार हो जाती है। समाज का उच्चवर्णीय हमेशा आरक्षण का विरोध ही करेगा। समाज का पूंजीपति वर्ग आर्थिक समता को कभी स्वीकार नहीं करेगा। समाज का राजनीतिक वर्ग power sharing के लिए तैयार नहीं होगा। (महिला आरक्षण विधेयक इसका ज्वलंत उदाहण है।) आरक्षण का जिनको लाभ हो रहा है ऐसा वर्ग भी क्रीमी लेअर की संकल्पना को स्वीकार नहीं करता। उसका भी vested interest group बन गया है। सभी के विरोध को पैरों तले दबा कर जिस प्रकार राजर्षि शाहू महाराज ने समाज के वंचितों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया उसी नीति का कड़ाई से पालन करना चाहिए। आरक्षण का प्रश्न केवल मात्र शिक्षा, रोजगार, सक्षमीकरण तक ही सीमित नहीं, आज यह विषय अपने अस्तित्व के साथ जुड़ा है। जब तक हमारे समाज के अंतिम पंक्ति का अंतिम व्यक्ति सबल नहीं बनता तब तक हम किसी भी प्रकार के आतंकवाद से लड़ नहीं सकते। अन्तरराष्ट्रीय Eco-terrorism से नहीं लड़ सकते, अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक आक्रमण से नहीं लड़ सकते; इस तथ्य पर शांत चित्त से हमें विचार करना चाहिए।

(लेखक सुप्रसिध्द चिंतक व ‘विवेक’ मराठी साप्ताहिक पत्रिका के संपादक हैं)

25 COMMENTS

  1. आरक्षण आज के समय का एक ज्वलंत मुद्दा बन गया है । इसमें अभिजात्य वर्ग के अपने कथन हैं और शोषित वर्ग के अपने कथन है । यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर आरक्षण का प्रश्न क्यों और कैसे पैदा हुआ ? इसका इतिहास बहुत ही विशद है ।इसके पीछे एक लंबी कहानी है । कहानी है दासता की और शोषण की।हिंदू समाज दो भागों में बटा रहा है एक शोषित वर्ग और दूसरा अभिजात्य वर्ग। अभिजात्य वर्ग सदैव से साधन संपन्न रहा और पूंजी उसके हाथ में केंद्रित रही ।अभिजात्य वर्ग ने कभी शोषित वर्ग के श्रम का उचित लाभ नहीं दिया और उसके श्रम का शोषण करके पूंजी इकट्ठा करके अपना आर्थिक साम्राज्य तैयार करता रहा। समय बदला जन जागरण काल आया जिसके चलते शोषित समाज ने अपने श्रम के महत्व को समझा। हमारे कुछ चिंतक कार्ल मार्क्स को अप्रसांगिक मानते हैं किंतु यह वही लोग हैं जो पूंजीवाद के समर्थक और शोषण एवं इंसानियत के दुश्मन है । यह लोग समाज में अपना एकाधिकार बनाए रखना चाहते हैं और अपनी उंगली पर समाज के अन्य वर्गों को चलाना चाहते हैं। मार्क्स का साम्यवादी सिद्धांत इसी शोषण की व्यवस्था से निकला है । पूंजी के संबंध में कार्ल मार्क्स ने जो कहा है वही बात हमारे यहां संत कबीर ने आज से 600 साल पहले कहीं है। कबीर साहब ने कहा है–” साईं इतना दीजिए जा मे कुटुम समाय मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाए” कहने का तात्पर्य यह है कि कबीर साहब से बड़ा साम्यवादी तो कोई दूसरा हुआ ही नहीं । सोचने की बात है कि ऐसे विचार संत पुरुष के द्वारा भारतीय समाज के सामने क्यों रखे गए ? कहते हैं कि समाज साहित्य का दर्पण होता है। संत पुरुष या अन्य कोई महापुरुष समाज में जो चलता हुआ देखते हैं उसी पर सोच विचार करके समाज का पथ प्रदर्शन करते हैं ।कहने का आशय यह है कि हिंदू समाज में अनेक वर्जनाएं हैं विषमताएं हैं । विसंगतियां हैं । रूढ़ियां हैं ।कुरीतियां हैं । भेदभाव है और असमानता है जो मानवता के लिए शर्मसार करने वाली हैं। इन विषमताओं वर्जनाओं रूढ़ियों और कुरीतियों को तोड़ने के लिए अनेक आंदोलन चले जिसे हम भक्तिकाल कहते हैं । वह भक्तिकाल नहीं था वह एक सामाजिक आंदोलन था जो सामाजिक विषमताओं जात पात भेदभाव ऊंच-नीच व अनेकानेक रूढ़ियों के खिलाफ था किंतु अभिजात वर्ग या कहें सुख सुविधा संपन्न वर्ग शोषित समाज की समस्याओं के समाधान के लिए आगे नहीं आया। प्रयास बहुत हुए किंतु सफलता नहीं मिली। सवर्ण हिंदू संपत्ति सम्मान शिक्षा पर अपना अधिकार बनाए रहा और दबे कुचले लोगों का अनवरत शोषण करता रहा। उन पर तरह-तरह के अत्याचार और जुल्म भी करता रहा । ऐसा नहीं है कि प्रकृति किसी एक खास वर्ग की मोहताज है । प्रकृति तो सभी की मां है और देर-सवेर वह किसी न किसी रूप में आकर अपना काम करती है । जिन्हें हम आज आरक्षित वर्ग की कोटि में देखते हैं वह हिंदू समाज का शूद्र और शूद्र वर्ण हैं। हिंदू शास्त्रों में इन वर्णों की समाज में हैसियत का वर्णन बखूबी किया गया है । इसलिए हिंदू समाज का अभिजात्य वर्ग या यह कहें सवर्ण लोग या और सरल भाषा में कहें मनुवादी लोग उनको उसी निगाह से देखते हैं जैसा कि मनुस्मृति में चित्रण किया गया है । शूद्र और अति शूद्र ही आज अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति व पिछड़ा वर्ग के रूप में जाना पहचाना जाता है । जब हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी तो यही संभ्रांत वर्ग अंग्रेजों के सामने था । वह अंग्रेजों से राजनैतिकसत्ता की लड़ाई लड़ रहा था। किसी का ध्यान शोषित वर्ग की आजादी की ओर नहीं था जो हजारों साल से हिंदुस्तान के संभ्रांत वर्ग का गुलाम था । यहां का शोषित वर्ग हिंदू समाज के अभिजात्य वर्ग का गुलाम था । ऐसी स्थिति में शोषितों के लिए अंग्रेज और अभिजात्य वर्ग एक समान ही थे जिनसे शोषित समाज के लोगों को आजाद कराना था। और यह काम किया बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने । जो काम रूस में कार्ल मार्क्स ने जारशाही के अत्याचारों से पीड़ित जनता को मुक्ति दिलाने के लिए किया वही काम डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने हिंदुस्तान में हिंदू अभिजात्य वर्ग की गुलामी से दलितों को मुक्त कराने का किया और उनको अधिकार दिलाया अवसर दिलाया । किंतु सवर्ण हिंदुओं को ना तब यह रास आया था और ना अब यह रास आ रहा है । क्योंकि उनको यह पसंद नहीं है कि दलित वर्ग के लोग अधिकार और अवसर का लाभ उठाकर उनकी बराबरी में खड़े हो। वह यही चाहते हैं कि दलित और पिछड़े वर्ग के लोग आगे ना बढ़ पाए । इसलिए तरह-तरह के कुतर्क पेश करके आरक्षण की मुखालफत करते हैं । वह नहीं चाहते हैं कि आरक्षण के अवसर का लाभ उठाकर दलित और पिछड़े वर्ग के लोग आगे बढ़ें । इसलिए आरक्षण को खत्म करने के लिए अपने अपने तरीके से विरोध दर्ज कराते हैं जो दलित और पिछड़ा वर्ग के हित में नहीं है । जब तक हिंदू समाज में दलितों और पिछड़ों का सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन दूर नहीं होता तब तक सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन दूर करने के लिए आरक्षण लागू रहना चाहिए। मैं आरक्षण विरोधियों से यह जानना चाहता हूं कि क्या दलित या पिछड़े वर्ग के किसी व्यक्ति को IAS या IPS या PCS हो जाने पर हिंदू समाज की सामाजिक व्यवस्था के अनुसार समाज में एक ब्राह्मण चपरासी के बराबर की हैसियत मिलती है ? मैं समझता हूं नहीं । इसलिए जब तक सामाजिक हैसियत नहीं बदल जाती है तब तक आरक्षण लागू रहना चाहिए । सवर्ण हिंदुओं ने जाति और वर्ण के जन्मना सिद्धांत के आधार पर अपने लिए सब कुछ आरक्षित कर लिया है जिसमें वह किसी तरह का परिवर्तन या बदलाव नहीं होने देना चाहता है । आखिर क्यों ? क्या इस तरह के सिद्धांत व्यक्ति के प्रकृति प्रदत्त मूलभूत प्रतिभा व गुणों पर कुठाराघात नहीं है ? हिंदू समाज की वर्जनाओं के कारण दलितों और पिछड़ों की उन्नति का दरवाजा ही बंद हो गया क्योंकि उन्नति करने के अवसर ही नहीं दिए गए और जब अवसर मिला है तो इस वर्ग को बहुत बड़ा कष्ट हो रहा है और सभी लोग एक स्वर में इसके विरोध में गर्दभ आलाप कर रहे हैं। मैं पूछना चाहता हूं कि आखिर दलितों का हक़ उनको कौन देगा ? वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था आप खत्म नहीं करना चाहते हैं जो असमानता विभाजन विषमता भेदभाव और नाना प्रकार की कुरीतियों और बुराइयां की जड़ है । हिंदू समाज का यह बहुत बड़ा रोग है । इसका इलाज बहुत आवश्यक है और इसका एक मात्र इलाज आरक्षण ही है अथवा जन्मना सब कुछ खत्म कर दीजिए आरक्षण अपने आप खत्म हो जाएगा । कलेजे में दम है तो अप्राकृतिक जन्मना जाति व्यवस्था वर्ण व्यवस्था का आरक्षण खत्म कर दीजिए । इस प्रकार दलितों और पिछड़ों का आरक्षण अपने आप खत्म हो जाएगा अन्यथा दलितों और पिछड़ों के आरक्षण पर टीका-टिप्पणी करना बंद कर दीजिए।

  2. आरक्षण पर बवाल करने से कथित उच्च वर्ग का कब्जा /आदिपत्य भारत के संसाधनों और एक आरामदायक पदों की स्थिति में है , उस पर बहुसंख्यक वर्ग का ध्यान नहीं जाता |अगर एक निष्पक्ष रायशुमरी करवाई जाये तो साबित हो जायगा कि सामान्य वर्ग के लगभग 90 % उम्मीदार लिखित परीक्षाओं में फिसड्डी होते है लेकिन साक्षात्कर में आरक्षित वर्ग से 150 से 190 अंक ज्यादा लेकर प्रतिभावान बन जाते है | भारतवर्ष से ज्यादा मानवीय गुणों का अपमान अन्य देशों में नहीं है |

  3. just imagine: today india is surrounded by powerful enemies, our army is short of fire power| we need unity + power + brains, irrespective of castes | is it ever possible in the current situation when powerful communities are violating for reservation on caste basis ?

  4. General Colin Powell से किसी व्यक्ति ने कहा की आप अमेरिका के सबसे पहले African American General है तब उन्होने तत्परता से उसका जबाब देते हुए और उस पद के लिए अपनी योग्यता सिद्द करते हुआ कहा की मै हमेशा से सबसे Best General बनना चाहता था |
    समस्त भारत एवं भारतवासियों को इससे सबक लेना चाहिए की आरक्षण के माध्यम से कोइ भी व्यक्ति किसी पद के लिए अपनी सेर्वोच्य योग्यता सिद्ध नहीं कर सकता ,हां अपवाद हो सकते है |
    भारत शब्द उन लोगो के लिए है जो वोट बैंक की राजनीति करते है सत्ता मै बने रहने के लिए, जो जनता के रक्षक नहीं भक्षक है और दूसरे भारतवासी जो सरकार एवं आरक्षण का मुह ताकते रहते है जीवन मै सर्वोच्य योग्य बनने के लिए |
    दुनिया के किसी भी देश मै आरक्षण की व्यस्था नहीं है |आरक्षण एक ऐशा सामाजिक केन्सर है जो कभी भी किसी पद के लिए सर्वोच्य योग्यता वाला व्यक्ती नहीं बना सकता है , हा अपवाद हो सकते है |
    आज पशिम भी कर्म के सिधांत को मानने लगा है good karmaa एंड bed kermaa |हम जिस देश, काल, जाती, धर्म एवं सामाजिक व्यवस्था मै जन्म लेते है हमे उसकी अच्छी बातो को लेकर अच्छे कर्म करना चाहिए परिस्थितिया अनुकूल होती चली जाती है और हम अपने को किसी पद के लिए सर्वोच्य साबित करने मै सफल हूँ सकते है | कड़ी मेहनत और पक्का इरादा होना चाहिए| अमरीका मे सब जगह से लोग आते है और अपनी योग्यता से बहुत कुछ कर पाते है |
    आज के नेता देस सेवा के लिए नेता नहीं बनते, बल्की देश को बर्बाद करने के लिए नेता बनते है , और जनता आलसी होती जा रही है की फटाफट बिना मेहनत के सर्वोच्य योग्यता प्राप्त कर ले |
    आज हम अपनी दवा कराने के लिए विदेश जाना चाहते है क्योकी की आरक्षण सर्वोच्य योग्यता वाला docter को नहीं पैदा कर सकता है और यही बात जीवन के सभी क्षेत्रों मै है |
    यह विषय तो बहुत बड़ा और गंभीर है और बहुत विस्तार से चर्चा हो सकती अगर समय हो तो |

  5. मैं सत्यार्थी जी के विचारों से सहमत हूं . मेरे अपने विचार यह हैं .
    आरक्षण की स्थिति और सामाजिक समीक्षा
    क्षेत्रपाल शर्मा
    आज समाज का हर वर्ग नौकरियों में आरक्षण की मांग करता है.इसे एक आसान रास्ते के रूप में वे चाहते हैं.
    आज आज़ादी मिले 65 वर्ष हो चुके हैं . कभी गूजर तो कभी और वर्ग इस तरह की मांग उठा देते हैं हाल ही का मध्य प्रदेश का किस्सा मालूम ही है. दक्षिण के राज्यों में स्थिति से निबटने लिए वहां के पढे लिखे युवकों ने खाड़ी देशों की राह पकड़ी.
    आन्दोलनों को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय को भी हस्तक्षेप करना पड़ा .
    बाद के सालों में तो इसे वोट बटोरने के लिए एक तरीके के रूप में प्रयोग किया गया . देवी लाल जी का विचार वीपी सिंह ने प्रयोग किया.

    संविधान में इस बाबत कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं हैं हां इतना जरूर है कि दीक्षा भूमि के समझौते के बाद यह तय हुआ कि इस वर्ग के उत्थान के लिए एक प्रशासनिक आदेश दस वर्ष के लिए निकला जो अब हर दस वर्ष बाद नवीनीकरण होता है. यह क्यों माना गया यह भी एक मजबूरी या कहिए एक सूझबूझ वाली बात थी.
    उत्थान इस वर्ग का कितना हुआ यह तो ठीक आंकलन नहीं कर सकते लेकिन इसे जारी रखने से परिणाम अच्छे नहीं निकले न कार्य में दक्षता आई और न इस वर्ग का आत्मविश्वास बढा. बल्कि एक उलट चीज यह और हो गई कि हर चीज में चाहे वह एड्मीसन हो ,प्रमोसन हो आदि में इसका विस्तार मांगा गया. हद तब हो गई कि निजी नौकरियों में भी जब इसकी मांग निहित स्वार्थी लोगों ने उठाई .साठोत्तरी लोगों को पता होगा कि उनके पूर्वज कितने असहाय ,हीन और दीन थे. जो परिश्रम करता था वह गुजर कर लेता था नहीं तो सब समुदाय जमींदार की एक ही लाठी के नीचे था . अब जब आज़ादी का सूरज उग आया, तो इसकी रोशनी सब को बराबर मिलनी चाहिए.
    अंग्रेजी कवि टेनीसन का कथन है कि हर पुरानी चीज की जगह नई चीज लेती है एसा इसलिए कि कहीं वह अच्छी चीज बहुत दिन रहकर जड़ ( खराब ) न हो जाए. और व्यवस्था को चौपट न कर दे.कमोबेश अब इस व्यवस्था की साथ यही स्थिति है. अब इसका दोहन हो रहा है. और वोटों की खातिर युष्टीकरण की नीति अपनाई जा रही है जो अंतत: समाज में असमानता को जन्म दे रही है उससे विक्षोभ पैदा हो रहा है.इसी विक्षोभ को एक व्यंग्य में इस तरह कहा था कि आगे आने वाले समय में दो प्रकार के डाक्टर मिलेंगे एक वो जो डोनेसन देकर आए हैं दूसरे वो जो आरक्षण के कोटे से आए हैं , मरीज को सुविधा पूरी होगी कि वह किसके हाथों मरना चाहेगा.
    यह कहां की सामाजिक समरसता है कि एक जुगाड़ से रोजी-रोटी पाए और दूसरा पसीना बहाकर भी रोटी ही जुगाड़ पाए.विकास हुआ तो वह लोगों के चेहरों पर झलकना चाहिए ,जो कि अभी नहीं देख रहे हैं.
    जब मैं इस लेख को लिख रहा था तब ही मेरे मित्र इस बात से क्षुब्ध थे कि हर किस्म के आरक्षण का विरोध होना चाहिए, चाहे वह पंडों का हो या फ़िर राजनीति में वंशवाद हो ,एक तरह से एक भीड़ की मानसिकता को लेकर एसा लम्बे समय तक नहीं होना चाहिए.
    एक बार जय प्रकाश जी ने एक जन सभा में कहा था कि अब बहुत बरदाश्त किया आगे और बरदाश्त नहीं करेंगे, ….. अब न नसेहों.
    आर्य और अनार्य कहकर जो इतिहास आरक्षित किया गया है ,उसमें भी पारदर्षिता आनीचाहिए कि वे कौन लोग हैंजो एसा कहते हैं और उनके मंसूबे क्या हैं.
    आखिर शिव जी के दिए वरदान की तरह ,दूसरों के लिए कष्टकारी, इन आश्वासनों क
    काट समय अपने आप संभालेगा.कहते हैं जब मानवीय एजेन्सी फ़ेल हो जाती हैं तभी प्रकृति अपना काम करती है.

  6. समता कभी नहीं आ सकती , पशु सामान हो सकते हैं मनुष्य नहीं, एक कुशल सर्जन को आप मजदूर के बराबर बिठाएंगे, तो फिर आर्थिक समता तो आएगी परन्तु कौशल कैसे आएगा, यह घटिया विचार मार्क्स ने दी थी, रैदास अपने गुणों के कारन पूजित हुए , कहाँ तक आरक्छन होगा , जो श्रेष्ठ होगा वाही आगे आएगा

  7. आरक्षण बिलकुल नहीं रहना चाहिए, आरक्षण से सिर्फ कुछ होगो को ही फायदा होता है, उन्हें जो सिर्फ फायदे के फ़िराक में लगे रहते है बहुत से लोग लाभ नहीं ले पाते है

  8. एक प्रश्न है है की आरक्षण से कौन लाभान्वित हुआ है तो मेरा उतर है की राजनीतिज्ञ और उनके पीछ लगुये.आरक्षण से तथाकथित लाभान्वित वर्ग में भी आम जनता वहीं है जहां आजादी के पहले थी.आरक्षण का लाभ उन जातिओं की केवल पहली पीढी उठा पाई है जिनके लिए आरक्षण का प्रावाव्धान किया गया था.यह तो हुई उन दिनों की बात जब देश आजाद हुआ था और आरक्षण का प्रावधान वास्तव में उन लोगों के लिए किया गया था जो सदियों से पीड़ित थे.बाद का आरक्षण तो जिसकी लाठी उसकी भैस वाला आरक्षण है.हमारे पास बहुमत हैं अतः हम आरक्षण ले लेंगे.जब एक बार आरक्षण ताकत के बल पर ले लिया गया तो अब जिनके पास थोड़ी भी ताकत है,वे अपना जोर दिखाने लगे हैं.कोई अगड़ा से पिछड़ा बनना चाहता है तो कोई पिछड़े से अछूत की श्रेणी में जाना चाहता है.एक ज़माना थ की लोग शुद्र कहे जाने पर उसे गाली समझते थे,आज कुछ तथाकथित पिछड़ी जातियां अपने को शुद्र कहलाने के लिए बेताव है.बिहार में मैंने देखा था की एक ऐसा भीसमय था जब सब लोग अपने नाम के आगे सिह लगा कर क्षत्रिय बनने के लिए बेताब थे आज वे हीं सब तरह का हाथ कंडा अपने को पिछड़ा और निम्न जाती का सिद्ध करने के लिए अपना रहे है और चूंकि उनके पास संख्या बल है अतः इसमें सफल भी हो रहे हैं.

  9. पुनश्च
    मेरे विचार से आरक्षण का आधार केवल आर्थिक विपन्नता होना चाहिए

  10. टिप्पणी के आरंभ में मैं स्पष्ट कर देना चाहूँगा की मैंने समाज शास्त्र का कोई भी अद्द्ययन नहीं किया है और मैं जो कहूँगा वह एक साधारण शिक्षित नागरिक के विचार से कुछ अधिक नहीं हैं
    आरक्षण पर बहस बहुत समय से चली आ रही है. स्वाधीन भारत के संविधान लागू हुए ६१ वर्षा से अधिक हो चुके हैं. क्या हम इन ६१ वर्षों के अनुभव का लाभ उठा सकते हैं? एक निष्कर्ष जो स्पष्ट दीखता है वह यह की हमारे लोकतंत्र में आरक्षण वोट प्राप्ति का एक सरल साधन है जो सत्ता प्राप्ति की सीढ़ी है इसलिए देश के विभिन्न वर्ग जिन्हें आरक्षण प्राप्त नहीं है वे स्वयं को आरक्षण का सुपात्र और उच्च वर्ग द्वारा शोषित प्रताड़ित सिद्ध करने में लगे रहते है. हमारे यहाँ विद्वानों की कमी नहीं है और प्रत्येक मांग के समर्थन में विद्वत्ता पूर्ण लेख लिखवाए जा सकते हैं. और सत्तासीन या सत्ता के आकांक्षी नेता गण इन वर्गों को लुभाने के लिए नाना प्रकार के वादे कर लेने में हिचकते नहीं . हम में क्षमता नहीं है यह आपका और आपके पूर्वजों द्वारा विकसित समाज व्यवस्था का दोष है और दंड स्वरुप उच्च वर्णों की संतानों को उनकी योग्यता के अनुसार अवसर दिए जाने से वंचित रखा जाना चाहिए. यह भी स्पष्ट है की जो सुविधा एक बार सर्कार ने दे दी उसको वापस लेना किसी के बूते की बात नहीं.
    विचारणीय है की पिछले ६१ वर्षों से आरक्षण का लाभ मिलने के बावजूद अनुसूचित जाति तथा जन जातियों की स्थिति में कितना सुधर हुआ है और यदि जितना होना चाहिए था उतना नहीं हुआ तो इसके लिए दोषी कौन है. क्या यह सही नहीं है की दोनों वर्गों में आरक्षण का लाभ एक छोटे से गुट तक सीमित है और शेष सदस्य प्रायः जहाँ थे वहीँ हैं. ऐसे भी परिवार हैं जिनकी तीन पीढ़ियाँ आई ए एस में हैं पर वे अभी भी आरक्षण का लाभ ले रहे हैं. ऐसा लगता है की केंद्रीय सिविल लिस्ट में सर्वाधिक पाया जाने वाला जाति परिचायक नाम मीणा है पर क्या कोई यह मानने को तैयार होगा की इस समुदाय को अब आरक्षण की आवश्यकता नहीं है
    इन साठ वर्षों में समाज में अनेक परिवर्तन आए हैं.शहरों में छुआछूत या जातिगत शोषण समाप्त हो गया है अंतरजातीय विवाह साधारण बात हो गई है और ब्राह्मणों की स्थिति समझने के लिए यह पर्याप्त होगा की कुछ समय पहले लखनऔ नगरपालिका द्वारा सफाई कर्मिओं की नियुक्ति हेतु विज्ञापन के उत्तर में २० से अधिक एम् ए डिग्रीधारी ब्राह्मणों के आवेदन आए. दिल्ली के सुलभ शौचालयों में बहुत से कर्मचारी ब्राह्मण जाति के हैं
    मेरे विचार से समाज के सभी वर्गों या सदस्यों को समान स्टर पर ला सकना न संभव है न अभीष्ट है. न ऐसा किसी देश में हो सका है. जो होना चाहिए वह यह है की प्रत्येक प्राणी को जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएं जैसे भोजन,वस्त्र, मकान ,शिक्षा और चिकित्सा उपलब्ध करने का दायित्व सर्कार का होना चाहिए प्रत्येक मनुष्य को उसकी इश्वर प्रदत्त क्षमता और प्रतिभा को विकसित करने का समुचित अवसर मिलना चाहिए . आज कल जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति के असीम अवसर हैं. प्रशासनिक सेवाओं के अतिरिक्त व्यापार,व्यवसाय, उद्योग,कला ,संगीत, नाट्य, चित्रकला तथा खेलकूद में भी अवसरों की कमी नहीं है जहा सफलता के साथ सम्मान तथा वित्त प्रचुर मात्र में मिलते हैं.
    देश की उन्नति के लिए अवश्यक है की प्रत्येक नागरिक की प्रतिभा का पूरा उपयोग हो
    आरक्षण केवल वहीँ दिया जाये जहाँ इसके बिना व्यक्ति अपना जीवन सतूर सुधारने में असमर्थ हो. ध्यान रहे की मूल रूप से आरक्षण समाज में विघटन का कारण होता है

  11. आरक्षण तो होना चाहिए लेकिन आर्थिक स्थिती के आधार पर न की धर्म और जाती के नाम पर.

  12. यहाँ अफ़्रीकी श्याम वर्णी प्रजा भी Independent का अर्थ Dependent से उलटा लगाने लगी है| कभी उन्हींके शब्दोंमे लिखूंगा| उनका कुछ नेतृत्व सिखाने लगा है, कि, जो दुसरोंपर Dependent नहीं है, वह Independent है|
    अर्थात दुसरोंपर अवलंबित रहकर कोई स्वतंत्र (Independent ) नहीं हो सकता|
    हममें फूट पैदा करने वाले हमें Dependent बनने की आदत ड़ाल कर खुद वोट पाकर हमारा दीर्घ कालीन सत्यानाश कर रहें है| हमें सक्षम बनाने के बदले लंगड़ा बनाकर अपनी रोटी सेंककर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं|
    सक्षम बनाने में तो तपस्या चाहिए, सभीको पढाओ, सभी की सामर्थ्य बढाओ, शीलवान बनाओ, इत्यादि इत्यादि| यह कौन करेगा?
    इन्हें तो झट मंगनी पट ब्याह करवाना है| ऐसे छद्म हितैषि से बचके रहो| यह आपको ज्ञान बिना डिग्री दिलवा देंगे| विद्वत्ता बिना, पंडित बना देंगे| ऐसा कपट पूर्ण व्यापार कब तक चलेगा?
    जब खुला कम्पीटीशन होगा| तब मारे जाओगे| तब ये लोग भाग खड़े होंगे| इनका तनिक भी विश्वास ना करें|
    सही रास्ता लंबा है| कभी यहाँ के अफ़्रीकी प्रजा के ऐसे ही अनुभव से उपजे उद्गारों को लिखूंगा| अभी प्रवास पर हूँ| मेरे भारत के पिछड़ों के प्रति मुझे असीम सहानुभूति है| मुझे कोई रोटी सेंकनी नहीं है|
    इसीमे हमारा, आपका, देशका परम हित है|
    ||वन्दे मातरम||

  13. आरक्षण के कुछ पहलू: (१) भारत देश की साझा उन्नति भारत के सारे नागरिकों की, और छोटी बड़ी कंपनियों की, एवं शासन की इकाइयों की; उन्नति का जोड़(योग) यानी सम टोटल है| और क्षमता वाले कर्मचारियों के योगदान से ही यह उन्नति का जोड़ (maximum) महत्तम होना, अधिकाधिक संभव है| (२)आप जानते ही हैं, कि आजका युग स्पर्धा का युग है|और भारत देश विश्व सत्ता के लिए एक अग्रिम पंक्तिका प्रतिस्पर्धी माना जाता है| स्पर्धा जितना चाहते हो ना? तो फिर (३)सोचिए कि, क्या आप, अपनी क्रिकेट की टीम में आरक्षण देकर दुर्बल खिलाड़ी को स्थान देंगे? और जितकर दिखा देंगे? कभी नहीं| (४) यहां अमरीका में यदि गोरों को आरक्षण देते तो हम कबके बेकार हो जाते, सक्षम और कुशल भारतीय सभी कबके बेकार हो जाते| और बड़ी बड़ी कम्पनियां भी बंद पड़ जाती| (५) मुझे, शिक्षक होने के नाते, अगर कोई कहे कि सारे “बी” ग्रेड वालों को “ए” दे दो| और ए वालों को बी दे दो|जैसे ग्रेड ही उन्हें कार्यक्षम बना देगी| मैं कहूँ की, फिर सभी को “ए” ही दे दो ना?तो ग्रेड का झंझट ही बंद करो ना | और हाँ, तो फिर कालेज भी क्यों लगवाते हो? जिन्हें डिग्री चाहिए उन्हें इकठ्ठा करो, डिग्रियां बांट दो| बजट बचाओ| पैसा बचाओ, समय बचाओ; वोट बैंक पक्का करो| देश तुरंत तरक्की कर जायगा| (६) यह सूक्ष्म भ्रष्टाचार ही है| तो फिर भ्रष्टाचार का विरोध भी क्यों करते हो? ऐसे छोटे छोटे भ्रष्टाचार पनपाकर ही हम ६४ वर्षों में देश को उजाड़ चुके हैं |
    (७) सहायता देना अगर है, तो पढ़ाई में तैय्यारी करने में भरपूर सहायता करो|कानून से शिक्षक का श्याम को अलग ट्यूशन और उसकी अलग फीस बंद करवाओ| शिक्षक, अतिरिक्त समय में बच्चों को निःशुल्क पढाए| माता पिता अच्छा अनुशासन सिखाए| वैदिक मुख पाठ करने की विधि, ही, सिखने पर ज्ञान तीव्र गति से बढ़ता है| आकलन करने की भी युक्तियाँ सिखाई जाए| हरेक बालक परमात्मासे सारी क्षमताएं लेकर जन्म ग्रहण करता है| शिक्षकों की एक समिति इसपर सारासार विचार करें| कुछ क्रियान्वयन किया जाए| पिछड़ों की उपेक्षा भी मुझे मान्य नहीं है| शासन की ओरसे पहल हो| पर मुझे आजके कठपुतली शासन से बड़ी निराशा है|
    पिछड़ों का शुभ चिन्तक हूँ|
    (८) उन्हें कुल्हाड़ी दो, लकड़ी काटना सिखाओ, अपने पैरोंपर खडा होने में सहायता जरुर दो| लंगडा बनाकर वोट लेकर शासन पर निर्भर ना रखों|
    ||भारत हितेच्छु||

  14. Kya kha jaye jise mile uske liye malai jise na mile uske liye khatai.
    magr ak bat hai aarkshan ne desh ka kabada kr dala. ab to 60 sal bad
    kuchh sakaratmak pahal taki sarkari tnatra ko gart me jane se bachaya
    ja sake. aissa hi chalta rha to sarkari tantra pura ka pura doob
    jayega.

  15. जब तक हमारे समाज के अंतिम पंक्ति का अंतिम व्यक्ति सबल नहीं बनता तब तक
    आरक्षण चलते रहना चाहिए. अब प्रश्न उठता है कि जो सबल हो चुका है क्या
    उसे आगे भी आरक्षण चाहिए? निर्बल को आरक्षण मिले. इसमें किसी को आपत्ति
    नही होनी चाहिए. परन्तु जब किसी समान सेवा में वरीयता के आधार पर
    पदोन्नति में भी आरक्षित वर्ग के कनिष्ठ कर्मचारी का नाम ऊपर लाकर बैठा
    दिया जाता है. तो आक्रोश स्वभाविक है. क्या उस कर्मचारी को अब भी आरक्षण
    की आवश्यकता है? क्या वह अभी तक समान स्तर पर नहीं आया? इस पर अब बिना
    किसी पूर्वाग्रह के स्वस्थ बहस होना आवश्यक है.

    …श्याम, गोरखपुर

  16. आप बाजार मे सब्जी खरिदने जाते हैं वहान् क्या आप सारी गली सब्जी खरिद्ना पसंद करेङ्गे जहिर है नहि, लेकिन आरक्षन आपको पसंद है—— होना चाहिये लेकिन किसके लिये जो कमजोर है, लेकिन आज हो ये रहा है, पैसेवालोन् ताकत्वर् को इसका लाभ मिल रहा है, आरक्षन जो अब वोत बेइन्क है वो याहि संदेश दे रहि है सवर्न जो आजादि कि लदि मे कुदे वे बेव्कुफ़् थे—-कस उन्हे इस बात कि अन्दाजा अन्ग्रेजो
    के समय चल जाता।।।।

  17. आरक्षण देश को दुर्बल, लोगों को निष्क्रिय, अकर्मण्य और अयोग्य बनाता है। इसलिए आरक्षण अनुचित है। सरकार अन्धी है। आरक्षण सरकार का वोट बैंक तथा देश के पतन का कारण है। सरकार देश को गर्त में डाल रही है।

  18. आरक्षण क्या जब तब भारत वर्ष है तब तक रहेगा? मैं केवल उस आरक्षण के पक्ष में हूँ जो केवल एक सही जरूरतमंद परिवार और उसके सदस्यों को दिया जाता है. आरक्षण लेने वाले व्यक्ति के लिये एक ऐसी नौकरी सही रहेगी जिसके साथ वह इन्साफ नहीं कर सकता. इसके बदले सरकार अपनी जिम्मेवारी से न बचे अनसुचित जाती और
    जनजाति के बचों को हॉस्टल सतुदी तथा स्पेशल प्रशिक्षण दिया जाये ताकि समाज में वेह सर उठा कर चल सकें. आरक्षण का मतलब एक नौकरी पाना है क्या या एक
    अनसुचित जाती के व्यक्ति को उसकी योग्यता पर भी काम करना होगा. दूसरी बात में यह नहीं मानता की स्वरंवंशी पडे लिखे हैं. ब्राहमण पड़ते थे मगर केवल दोहे. इस नज़र से
    देखे तो एक ब्रह्मिन को भी त्रिग्नोमेट्री सीखने में उतनी दिकत आएगी जितनी एक अनसुचित जाती के जातक को आती है. मगर हमारे नेता अपनी जिम्मेधारी को जनता के ऊपर दाल कर
    हमें एक दुसरे से लडने के लिये छोड़ देते हैं.

  19. आरक्षण सदा ही एक व्यापक बहस का मुद्दा बना रहा है. निम्न वर्ग के साथ-साथ आज सभी अल्पसंख्यक बनकर आरक्षण कि चाह रख रहे हैं. जिन्हें आरक्षण पहले से ही मिला हुआ है वे उसका प्रतिशत बढाने पर तुले हुए हैं. महिला आरक्षण को लेकर लालू और मुलायम लाल झंडी लेकर अड़े हुए हैं . जहा आरक्षण आवश्यक है वहा इसका विरोध किया जा रहा है और जहां नही है वहां इसकी जोरदार मांग की जा रही है. जाट आरक्षण हो या मुस्लिम आरक्षण इनमे कोई ये क्यों नही जानना चाहता है कि जहा कौशल चाहिए वहां आरक्षण कि कोई अहमियत नही हो सकती . आगे आने के लिए कुशलता हो आरक्षण नहीं .
    वंदना शर्मा
    ( संवाद सेतु)

  20. हजारों वर्षो से, जब संवैधानिक आरक्षण नहीं था, तब भी जाति के आधार पर आरक्षण था . तब चूँकि लाभ मिल रहा था, किसी को आपत्ति नहीं थी . आज वैधानिक आरक्षण की व्यवस्था है तो कष्ट हो रहा है . लोग प्रतिभा से कम अवसरों से ज्यादा आगे बढ़ते हैं . किसी एक जाति में योग्य और शेष में अयोग्य पैदा नहीं होते हैं . अगर ऊपर से नीचे तक एक जाति के लोग होंगे तो अयोग्यों को भी महान बनाया जा सकता है . किसी को नाराज नहीं होना चाहिए क्योंकि फार्मूला उजागर हो चूका है . अब संवैधानिक तरीके से सबको उनका हक़ मिलेगा .

  21. बेहद रोचक लेख …पर इस पूरे तथ्य में एक महत्वपूर्ण बात पीछे रह जाती है …आरक्षण पिछड़े ओर दुर्बल वर्ग के उन लोगो तक नहीं पहुँच रहा है …जो इसके हक़दार है …यानी उसी जाति के ताकतवर ओर धनी लोग ही इसका फायदा उठा रहे है … उपरोक्त लेख में इक कथा का वर्णन भी है जिसके अनुसार एक राज्य में किसानो को राज्य के खाजाने से बीज मुहैय्या कराये जाते है .यानी हम ऐसा कर सकते है के…इन जातियों में भी परिवार अगर समर्थ है तो उस अधिकार से वंचित कर सकते है …. शहरी ओर विकसित क्षेत्रो के उन जातियों के छात्रों को शिक्षा -किताब मुफ्त दिलवा सकते है ….ओर कोचिग में भी ५०-७० प्रतिशत फीस मुआफ का प्रावधान हो ऐसा कर सकते है ….आरक्षण केवल उन जातियों के लिए नौकरियों या कम्पीटीशन में रखा जाए जो बेहद पिछड़े ओर दूर दराज के क्षेत्रो से आते है …..
    एक ओर अगड़ी जाति कहे जाने वाले निर्धन छात्रों के लिए भी .हमें शिक्षा की सुविधा को मुफ्त रखना होगा ……
    गुजरात में बोहरा समाज के लोग अपनी जाति के निर्धन ओर होनहार छात्रों के लिए सारी सुविधा का वहन करता है यानि समाज को भी अपनी भागीदारी निभानी होगी

  22. दुनिया में कई देश हैं जहां किसी तरह के आरक्षण नही है , हमारे संविधान निर्माताओ ने जिस आरक्षण की कल्पना की थी वह सामाजिक समरसता के लिये था . यह तो वोट की राजनीति का परिणाम है कि लगातार आरक्षण के प्रावधान बढ़ाये गये और आज इस स्तर पर पहुंच गये हैं कि बिना एक बड़ी सामाजिक क्रांति के इसे समाप्त करना कठिन है . आरक्षण का वर्तमान स्वरूप जो जन्मना है , किसी भी सभ्य समाज के लिये बदनुमा दाग है . दुखद पराकाष्ठा है कि कुछ जातीय संगठन ट्रेने रोककर , जलाकर आंदोलन करके स्वयं के लिये आरक्षण मांग रहे हैं …

  23. आरक्षण पर बहस वाकई आग पर चलने जैसा ही है. एक लड़का ट्रेन में मिला. किसी इंजीनियरिंग कालेज में नामांकन के लिए चंडीगढ़ जा रहा था. मामूली सी परिचय के बाद उसका एक सवाल था- अंकल आखिर हम लोगो के साथ ऐसा क्यों होता हैं, हम लोगो का क्या कसूर हैं- मैंने पूछा क्या हुआ- शिकायती लहजे में उसका सवाल था- हम सब एक ही क्लास में पढ़ते हैं, एक ही टीचर हम सब को पढ़ता है,स्कूल से लेकर कॉलेज का माहौल भी एक ही रहता हैं मगर फिर यह भेदभाव क्यों होता है? मेरा ऑल इंडिया रंकिंग ५२ हजार हैं, मुझे कोई ढंग का कॉलेज नहीं मिल रहा हैं मगर मेरे साथी जो क्लास वन से ही मेरे साथ पढ़ा, उसका रंकिंग ५ लाख हैं और उसे सरकारी इंजीनियरिंग कालेज मिल गया. हम दोनों तो सामान सुबिधा और माहौल में साथ- साथ पढ़े, साथ ही AIEE की परीशा भी दिए… फिर ऐसा क्यों? क्या आरक्षण के नाम पर यह भेदभाव नहीं हैं? मेरे मित्र के पिता राज्य सरकार में उच्चाधिकारी हैं. मैं तो गाँव से आता हूँ, मेरे पिता जी खेती करते हैं. अपने परिवार का मैं पहला लड़का हूँ जो राजधानी पटना में रह कर इंजीनियरिंग की तयारी की और AIEE की परीक्षा में यह रैंक लाया.—– फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा हैं? क्या मेरा कसूर यह है की मैं किसी उच्च कूल में पैदा हुआ. इसमें भी भला मेरा क्या कसूर है? …… उस लडके के सवाल पर मै रस्ते भर सोचता रहा…. आरक्षण का समाजशास्त्रीय विश्लेषण भी करता रहा…. मेरे मुंह से कुछ नहीं निकला….क्योंकि मैं भी कथित तौर पर एक उच्च कूल में ही पैदा लिया हूँ……एक अदृश्य भय सताता है कि कंही मुझे भी आरक्षण विरोधी न करार दे दिया जाय…..

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