नरेन्द्र मोदी जम्मू कश्मीर में विकास के मुद्दे को राजनीति की मुख्यधारा में लाना चाहते हैं। धारा 370 पर बहस का केंद्र भी वे कश्मीरियत और कश्मीर की प्रगति को बनाना चाहते हैं। इस प्रकार अलगाववाद या कथित आजादी के आंदोलन के विरोध में कश्मीर की स्वायतत्ता की जगह कश्मीर के विकास के लिए भारत के साथ एकीकरण को वे मुख्य संघर्ष में बदलना चाह रहे हैं। मोदी की यह नीति सांप्रदायिक नहीं बल्कि राष्ट्रवाद के आधार पर है। कश्मीर में आजादी या स्वायत्तता का संघर्ष पहले ही बैक फुट पर है। वहां मिलिटिएंसी और अलगाववाद को हाशिए पर धकेला जा चुका है और चुनावों के माध्यम से लोकतंत्र की मुख्यधारा में नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ही नहीं हुर्रियत के भी कई धड़े आते जा रहे हैं। इन स्थितियों में अलगाववादियों के जो लोग पाकिस्तान के समर्थन या उनके सहयोग पर आश्रित हो गए हैं वे कश्मीरियत या कश्मीर की आजादी की अपनी मांग से हट चुके हैं। यही वजह है कि जम्मू-कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट धीरे-धीरे प्रभावहीन हो गया है और इस्लामी फंडामेंटलिज्म वहां बल पकड़ता जा रहा है। अफगानी आतंकवादियों और उनके प्रभाव का जम्मू-कश्मीर की राजनीति में प्रवेश कश्मीरियत के लिए घातक सिद्ध हुआ है और पाकिस्तान की राजनीति के तहत कश्मीर समस्या को सांप्रदायिक रंग देने के प्रयास ने कश्मीर की मुक्ति की आवाज में निहित लोकतांत्रिक तत्व को निरूशेष कर दिया है। दमन और तुष्टीकरण, अत्याचार अथवा कमजोरी ये दोनों ही नीतियां गलत रही हैं और कश्मीर समस्या इससे सुलझाने की जगह लगातार जटिल होती गई। वाजपेयी ने लोकतंत्र की बहाली के बाद विकास की नीति का रास्ता प्रशस्त किया था और कश्मीरियों के दिल में जगह बना ली थी। सांप्रदायिकता का आधार ही उन्होंने कमजोर कर दिया था।
मोदी ने वाजपेयी की नीति पर आगे बढ़ने का ऐलान जम्मू की चुनाव सभाओं में किया था। मोदी वाजपेयी की नीति को जहां तक वाजपेयी लाए थे वहां से आगे बढ़ा रहे हैं। इतिहास की विरासत को ग्रहण ही नहीं करना होता उसकी हिफाजत और उसे आगे विकसित भी करना होता है। कश्मीर समस्या के दो ही समाधान हैं। एक समाधान है कश्मीर की आजादी। लेकिन हरिसिंह के प्रयत्नों के बावजूद 1947-48 में आजादी की यह अभिलाषा कामयाब नहीं हो पाई। जनमत संग्रह के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ का प्रस्ताव इसलिए कामयाब नहीं हो पाया कि प्रस्ताव के अनुसार पाकिस्तान की सेनाएं अधिकृत क्षेत्र से नहीं हटीं। इस प्रकार अब जनमत संग्रह का विकल्प खत्म हो चुका है। धारा 370 वैसे ही काफी हद तक घिस कर अप्रभावी हो चुकी है। मूल संघर्ष रह गया है अलगाववाद को अलग-थलग कर एकीकरण की दिशा में आगे बढ़ना। बेशक यह राजनीतिक संघर्ष है। सेना या दमन अथवा सांप्रदायिक उन्माद के जरिए नहीं बल्कि लोकतंत्र और राष्ट्रवाद की राजनीति के जरिए ही यह लड़ाई जीती जा सकती है। यह एक नई परिस्थिति विकसित हो रही है जिसमें कश्मीर समस्या ही नहीं भारत-पाक रिश्तों को भी नई दिशा मिलेगी।
सारी समस्याओं का समाधान. अखंड भारत. उस स्थिति में कश्मीर सारे भारत का होगा. जिसमे पाकिस्तान, बांग्लादेश, बर्मा,श्रीलंका भी शामिल होंगे.