एक आंदोलन में बदलता मैला मुक्ति अभियान

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प्रमोद भार्गव

मध्यप्रदेश से मैला ढोने की प्रथा को समूल नष्ट करने की दृष्टि से एक अच्छे अभियान की शुरूआत हुर्इ है। इसे राष्ट्रीय गरिमा अभियान नाम दिया गया है। इस अभियान की शुरूआत केन्द्रीय पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश और प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने की। इस या़त्रा में देश के विभिन्न प्रांतों की वे महिलायें शामिल हैं जिन्होंने मैला ढोने की प्रथा से मुक्ति पा ली है। इनमें मध्यप्रदेश की 11 हजार महिलायें हैं। यह यात्रा 30 नवंबर को भोपाल से शुरू हुर्इ है और 31 जनवरी 2013 को 18 राज्य तथा 200 जिलों से होती हुर्इ दिल्ली पहुंचेगी। यात्रा में शामिल महिलायें संदेशवाहक बनकर 50 हजार महिलाओं को इस प्रथा से मुक्ति दिलाने की मुहिम में जुटेंगी।

हालांकि मैला ढोने और खुले में शौच करने की मजबूरी में जबरदस्त विरोधाभास है। आज भी देश में 11.29 करोड ग्रामीण परिवार खुले में शौच के लिए जाते है। जो देश की आबादी के करीब 15 फीसदी हैं। यह जानकारी राज्यसभा में पेयजल और स्वच्छता राज्यमंत्री भरत सिंह सोलंकी ने दी है। यह शर्मसार कर देने वाली हकीकत है कि आजादी के 65 साल बाद भी 16.78 करोड़ ग्रामीण परिवारों में से महज 5.14 करोड़ परिवारों के पास ही शौचालय की सुविधा उपलब्ध है। उत्तरप्रदेश के हालात सबसे खराब है जहां 1,96,49,918 ग्रामीण परिवार खुले में शौच के लिए जाते है। अन्य प्रदेशों में भी स्थिति बेहतर नही।

घर घर में शौचालय निर्माण अभियान को केंद्र में लाने का श्रेय केंद्र्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश को जाता है। हालांकि उनके मंदिर से शौचालय की तुलना करने वाले बयान से सहमति नहीं जतार्इ जा सकती, लेकिन उन्होंने बेटियों से जिस घर में शौचालय न हो, उस परिवार की दुल्हन नहीं बनने की जो अपील की है, उसकी सराहना की जानी चाहिए। यहां वधू पक्ष भी दहेज देने के संकल्प की शर्तों में शौचालय निर्माण की बाघ्यकारी शर्त जोड़ सकता है। घर – घर में शौचालयों का निर्माण हो जाता है तो औरत की आबरू भी सुरक्षित होगी। क्योंकि ग्रामीण परिवेश में बलात्कार की सबसे ज्यादा घटनांए दिशा मैदान जाने के दौरान ही धटती हैं। इधर देश के सबसे बड़े खुले शौचालय रेल को जैविक शौचालयों में बदलने की मुहिम भी जयराम रमेश की प्रेरणा से रेलवे ने चला दी है। अब 12वीं पंचवर्षीय योजना में इसे निर्मल भारत अभियान नाम दिया गया है।

जयराम रमेश सबसे पहले रेलवे को देश का सबसे बड़ा खुला शौचालय बताकर, शौचालयों को केंद्र में लाए। इसके बाद उन्होंने शौचालयों की तुलना मंदिर से कर डाली। इससे उनका आशय था कि मंदिर की साफ सफार्इ और पवित्रता का जितना ख्याल रखा जाता है, यदि उतना स्वच्छ और पवित्र पूरे घर को बनाना है तो घर – घर में शौचालय का होना जरूरी है। इससे स्त्री भी उस तनाव और संकट से मुक्त होगी, जो उसे शौच को जाते समय गिद्ध दृष्टि लगाए बैठे बहषियों से बनी रहती है। राजस्थान के कोटा में रमेश ने बेटियों से कहा था कि उस परिवार में शादी न करें, जहां शौचालय न हो। यानी शौचालय नहीं, तो दुल्हन नहीं। इस मौके पर रमेश ने वघू पक्ष से अपील की थी कि जिस तरह आप जन्म पत्रिकाओं के मिलान के समय ग्रह मैत्री और राहू – केतू की दशा देखते हैं, उसी तर्ज पर घर में शौचालय की उपलब्घता भी देखें। उन्होंने मघ्यप्रदेश के बैतूल की अनीता नैरे की मिसाल देते हुए कहा था कि ससुराल में शौचालय न होने के कारण दो दिन में उसने ससुराल छोड़ दी थी। वैसे भी स्वच्छता महिलाओं की मर्यादा एवं सुरक्षा से जुड़ा मुददा है और इस दिशा में ‘निर्मल भारत अभियान एक जन आंदोलन का रुप ले रहा है। इसका लक्ष्य 10 सालों में खुले में शौच करने की प्रथा का उन्मूलन करना है। बड़ी संख्या में शौचालय बन जाएंगे तो हाथ से मैला ढोने की प्रथा का भी उन्मूलन भी हो जाएगा।

दरअसल देश के ग्रामीण इलाकों में हालात बहुत बदत्तर हैं। करीब 67 फीसदी परिवारों के लोग खुले में शौच के लिए जाते हैं। यह आंकड़ा दुनिया में सबसे ज्यादा है। हालांकि बीते संसद सत्र में जयराम रमेश ने ही संसद में जानकारी दी थी की 60 फीसदी परिवारों को शौचालयों की सुविधा मिल गर्इ है। लेकिन 2011 की जनगणना के आंकड़ो को सही मानें तो फिलहाल 30 फीसदी ग्रामीण परिवारों को यह सुविधा हसिल हो पार्इ है। इस विसंगति का कारण है कि कर्इ राज्य केंद्र से धन ऐंठने के लिए शौचालय निर्माण हो जाने के झूठे आंकडे़ पेश कर देते हैं। इसलिए इस शर्मनाक हालात से 2022 तक भी छुटकारा पाना मुश्किल है। हालांकि केंद्र सरकार इस योजना पर पांच साल के भीतर 45 हजार करोड़ रूपये खर्च कर चुकी है और एक लाख करोड़ रूपये और अभी इस योजना पर खर्च किए जाने हैं। 2012-13 का अनुमानित बजट 3500 करोड़ कर दिया गया है।

हालांकि शौचालयों के निर्माण में तेजी आर्इ है। सिकिकम ऐसा राज्य बन चुका है, जहां अब खुले में शौच करने कोर्इ नहीं जाता है। नवंबर 2012 तक केरल भी इस समस्या से छुटटी पा लेगा। इसके बाद मार्च 2013 तक हिमाचल और मार्च 2014 तक हरियाणा शौचालय निर्माण के लक्ष्य को पूरा कर लेंगे। लेकिन अन्य राज्यों में समस्या का अंत होता दिखार्इ नहीं दे रहा है। इसीलिए भारत सरकार निर्मल भारत अभियान चलाएगी। इसके तहत शौचालय निर्माण के लिए अब तक जो 3500 रूपय दिए जाते थे, उन्हें बढ़ाकर 10 हजार रूपये प्रति शौचालय कर दिया गया है। हालांकि पंजाब सरकार इस धन राशि को कम बता रही है। उसका तर्क है कि पंजाब के गांवों में निर्माण सामग्री की लगत ज्यादा है, जिसके चलते 10 हजार में शौचालय बनाना मुमकिन नहीं है। लेकिन भारत सरकार पंजाब सरकार को अतिरिक्त धन राशि नहीं दे रही, क्योंकि फिर लागत सामग्री महंगी हो जाने का बहाना जताकर सभी राज्य सरकारें अतिरिक्त धन राशि मांगने लग जाएंगी।

बाहर शौच के लिए जाने में सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं को उठानी पड़ती है। सरकारी आंकड़ों को ही सही मानें तो प्रत्येक 10 में से 6 महिलाओं को विभिन्न रूपों में परेशानी भुगतनी होती है। इस परेशानी से मुक्ति के लिए ही मघ्यप्रदेश के बैतूल जिले के गांव झीतूढाना की अनीता नैरे ने विद्रोही तेवर दिखाए और आंदोलन की राह पकड़ ली थी। शादी के दो दिन बाद ही वह यह कहकर मायके चली गर्इ कि जब तक घर में शौचालय नहीं बन जाता, वह ससुराल नहीं आएगी। उसके इस विरोध का असर यह हुआ कि अनिता के धर में तो शौचालय बना ही, गांव के हर एक घर में शौचालय बना दिए गए, जिजसे कोर्इ और नर्इ दुल्हन शौचालय के कारण ससुराल से पलायन न करने पाए। अब अनीता भारत सारकार के गा्रमीण विकास मंत्रालय की ‘आदर्श है। सुलभ इंटरनेशनल ने अनीता को पांच लांख का नगद पुरूस्कार भी दिया है। महारज नगर की प्रियंका ने और संत कबीर नगर की ज्योती ने भी ससुलाल छोड़कर शौचालय बनवा लिए। जाहिर है दुल्हनों की पहल छोटी जरूर है, लेकिन सामाजिक बदलाव की दिशा में महत्वपूर्ण है।

इधर रेलवे ने भी डिब्बों में जैव शौचालय लगाने में तेजी दखार्इ है। ग्वालियर से वरणासी चलने वाली बुंदेलखण्ड एक्सप्रेस के सभी डिब्बों में जैव शौचालय लगा दिए गए हंै। जल्दी ही रेलवे कपूरथला में एक जीवाणु उत्पादन संयंत्र लगाने जा रहा है। इन जीवाणुओं का इस्तेमाल जैव शौचालयओं में किया जाएगा। हवा के अभाव में पनपने वाले इन जीवाणुओं को ‘एनरोबिक बैक्टीरिया कहते हैं। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन ने जैव शौचालयों की सरंचना तैयार की है और 2500 डिब्बोंमे शौचालयों लगाने का लक्ष्य रखा है। कपूरथला के बाद चेन्नर्इ और नागपुर में भी संयंत्र लगाए जाएंगे। इन अवायवीय जीवाणुओं की विषेशता होती है कि ये मल को पानी और गैस में बदल देते हैं। क्लोरीन टंकी से होकर गुजारने वाला पानी साफ होकर निकलता है और गैस वायुमण्डल में चली जाती है। यह संयंत्र 10 दिनों में लगभग 10 हजार लीटर जीवाणुओं का उत्पादन करता है। एक षैचालय को 10 दिन के लिए 150 लीटर जीवाणुओं की जरूरत पड़ती है। जैव शौचालयों की कीमत करीब एक लाख रूपये बैठेगी। इसके इस्तेमाल से बदवू तो दूर होगी ही रेल पटरियों की जंग और क्षरण को भी रोका जा सकेगा। जो अपषिश्ठ पदार्थों के पटरी पर गिरने से होता है। रेलवे को इस लिहाज से तकरीबन एक साल में 350 करोड़ का घाटा होता है। जाहिर है निर्मल भारत अभियान चहुंओर गति पकड़ रहा है। कर रही है और शौचालय निर्माण की दिशा में गति आ रही है। यदि घर-घर शौचालयों का निर्माण हो जाता है तो सिर पर मैला प्रथा ढोने की प्रथा भी आप से आप समाप्त हो जाएगी। इसके लिए केंनद्र और राज्य सरकारों को इच्छाशकित भी मजबूत करने की जरुरत है।

 

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