वानर से मित्रता : एक अनुभव

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                                                                 तनवीर जाफ़री

 पिछले दिनों सूर्योदय से पूर्व पार्क में सैर कर रहा था। तभी एक बन्दर पार्क में उछल कूद मचाने लगा। कई लोग उसकी ओर आकर्षित हुये। परन्तु वह सबको अपने ‘वानरीय अंदाज़’ में डराने लगा। फिर वह एक पेड़ पर ख़ामोशी से जा बैठा। जैसे ही मैं उस पेड़ के क़रीब से गुज़रा वह छलांग मार कर मेरे कंधे पर आ बैठा । चूंकि किसी बंदर के संपर्क में आने का मेरे जीवन का यह पहला अनुभव था इसलिये सिर पर सवार उस बन्दर से भयभीत होना भी स्वाभाविक था। चूँकि उस समय मेरी सैर की शुरुआत थी इसलिये मैं सोच में पड़ गया कि इन  ‘महानुभाव’ को कंधे पर बिठाये बिठाये मैं आगे डेढ़ दो घण्टे तक घूमता फिरूं या इनसे पीछा छुड़ाने का कोई उपाय करूँ।

                         मैंने निर्णय लिया कि अपनी सैर पूरी की जाय और इन्हें इनकी मर्ज़ी पर छोड़ दिया जाये कि यह जब तक चाहें कंधे पर सवार रहें और जब चाहें कूद भागें। यह निर्णय कर मैं लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़ा। उधर दिल में डर भी पैदा हो रहा था कि कहीं यह हज़रत कान या गर्दन पर काट न खायें  दूसरी तरफ़ इन्हें कंधे पर सवार देख रास्ते में मिलने वाले कुत्ते भोंकते हुये मेरे पीछे पड़ गये। बहरहाल ‘भय’ और ‘कुत्ता विरोध’, सभी बाधाओं को पार कर मैं जैसे ही स्टेशन के क़रीब पहुंचा यह वहां की रोशनी व रौनक़ देख कंधे से कूद किसी दीवार पर फिर छत पर कूदते फांदते अपने वास्तविक ‘अवतार ‘ में आ गये और अदृश्य हो गये।

                         बन्दर के जाने के बाद मैंने राहत की सांस ली और अख़बार देखने चला गया। दस मिनट बाद जब मैं वापस स्टेशन की तरफ़ आया तो स्टेशन पर पलने वाले 5 हट्टे कट्टे कुत्ते उसी अकेले बन्दर को चारों तरफ़ से घेरे हुये उसपर भौंक रहे हैं और अकेला होने के बावजूद वह बन्दर अपने डरावने दांत दिखाकर उनसे संघर्षरत है। दोनों पक्ष केवल एक दूसरे को ‘गालियां ‘ ही दे रहे थे। और कई लोग ‘अपने पूर्वज ‘ के प्रति हमदर्दी दिखाते हुये उसे बिस्कुट,ब्रेड पकोड़ा आदि का ‘ऑफ़र ‘ दे रहे थे। परन्तु वह चूंकि पूरे ग़ुस्से में ‘युद्धरत ‘ था इसलिये किसी से खाने की कोई सामग्री स्वीकार नहीं कर रहा था। आख़िर कार कुत्तों ने जैसे ही बन्दर को अपनी पीठ दिखाई बड़ी ही फुर्ती से इसने एक कुत्ते के पीछे उछल कर उसे दांत काटा और लड़ाई फ़तेह कर बिजली की तरह फुर्ती से वापस ऊँची बाउंड्री पर चढ़ गया और फिर दीवार छतों से होता हुआ भागने लगा। मैं भी इस ग़लतफ़हमी में कुछ दूर उसे पुचकारता हुआ उसके पीछे गया कि मेरे साथ यह लगभग आधे घण्टे रहा है इसलिये मुझे पहचान कर शायद मेरे पास आ जायेगा। परन्तु मेरा यह सोचना ग़लत था। क्योंकि वह युद्ध करके आया था उस समय उसका ब्लड प्रेशर हाई था। इसलिये वह उछलता कूदता दूर भागता चला गया। और मैं फिर सैर करने लगभग एक किलोमीटर दूर चला गया।

                          लगभग एक घंटे का समय सैर और एक्सएरसाइज़ में बिताने के बाद जब मैं पुनः उसी स्थान पर आया जहाँ वह बन्दर मुझे छोड़ कर कूद भागा था उस क्षण मैंने देखा कि वह बन्दर एक टीन शेड पर बैठा है और नीचे चार कुत्ते उसकी तरफ़ देखकर भोंक रहे हैं। बन्दर भी ऊपर बैठा बैठा उन्हें ‘ जवाबी गलियां’ दे रहा है। शायद कुत्ते बन्दर से कह रहे हों- अबे हिम्मत है तो नीचे उतर के दिखा। तो जवाब में बन्दर भी कहता होगा – अबे कूतो ऊपर आओ तो बताऊँ। इसी वार्तालाप के बीच जब मैं पहुंचा तो मैं ने अपने पूर्वज ‘मित्र ‘ का पक्ष लेते हुये कुत्तों को दूर तक दौड़ाया। और बाद में जैसे ही बन्दर के पास आया वह पुनः छलांग मारकर मेरे कंधे पर विराजमान हो गया। इसबार आत्मीयता पहले से अधिक थी। क्योंकि एक तो मुझसे मिलना दूसरी बार हुआ था दूसरे उसके दुश्मन कुत्तों को भागने में मेरी भूमिका उसने देखी थी।

   वह मेरे साथ  फिर लगभग एक किलोमीटर तक मेरे काँधे पर सवार होकर आया। रास्ते भर फिर वही कुत्तों का पीछे पड़ना और परिचित-अपरिचित लोगों का बन्दर को लेकर तरह तरह का सवाल करना। मैं उसे फिर उसी पार्क में लेकर आया जहाँ से वह सुबह मेरे साथ हो चला था। वहां वह कूद कर भाग तो गया परन्तु थोड़ी ही देर बाद वह तीसरी बार मेरे काँधे पर आ बैठा और मेरे साथ मेरे घर तक आ गया। यहाँ मेरे परिजन उसे साथ देख हैरान हुये। मेरी धर्मपत्नी ने उसे केला लाकर दिया। उसने आधा अधूरा केला खाया। और केला खाते ही मेरे सिर पर रखी कैप लेकर उछल कर दीवार पर चढ़ गया। फिर मैं उससे अपनी टोपी वापस मांगता रहा परन्तु उसके अंदर का ‘वानर ‘ जाग चुका था। वह टोपी लेकर भाग गया। फिर आज तक न वह बंदर दिखाई दिया न ही टोपी वापस मिली।

                           कथा सार – पशु, जहाँ मनुष्य की प्रेम व सहयोग की भाषा समझता है वहीं वह अपने ‘पशुत्व ‘ से भी बाज़ नहीं आता।  

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