सुबह से शाम तक

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सुबह से शाम तक
सूर्य की रक्ताभ किरणें
फैली -पसरी रही धरा पर
जीवन का सुख- दुख
हर क्षण हम आत्मसात करते रहे
केवल नहीं मिली हमें प्रेम कलिकाएं…
वह प्रेम
जिसको पाने के लिए भ्रमर दिन भर गुंजार करता है
चातक देखता रहता है चंद्रमा के आने की राह…
वह प्रेम, जो नश्वर है सचमुच
जो बिंथा है /बिंधा है स्वार्थ के सांसारिक डोर से ;
जिसका टूटना- बिखरना सुनिश्चित है…
और जिस को पाने के लिए हम
न जाने कितनी लक्ष्मण रेखाएं पार करते जाते हैं
स्वार्थ और परमार्थ, सत्य और असत्य,
रामत्व और रावणत्व -को अपने में झेलते- जीते हुए… अंततोगत्वा जीतता कौन है?
कौन बता सकेगा ?
जीवन जो नश्वर है और जो क्षणभंगुर भी है;
जिसके निर्मित लोक-परलोक, पाप- पुण्य,स्वर्ग- नरक, आस्तिक- नास्तिक, साक्षरता- निरक्षरता, यश-अपयश, हानि -लाभ, जय- पराजय, आशा- निराशा– सब- कुछ व्यर्थ है ।
वह प्रेम, जिसे पा लेने की हमारे भीतर भी स्वार्थलिप्सा- हमें कितनी आशातीत सफलता की स्वप्निल रेखाएं–
दिखलाया करता है।
हम भूल जाते हैं बार-बार अपना गंतव्य–
जिस हेतु इस धरा पर लाए गए हैं
हमारा इतिहास और भूगोल,
समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र,
साहित्य और संस्कृत,
धर्म और अध्यात्म, चिंतन और आस्वाद —
सब भूत के क्रोड़ में दिवंगत हो गए हैं ।
काल की अमित रेखाएं
चक्रवातीय तूफान के साथ
हमारे अंतःकरण को
बार-बार सचेत किया है।
हम जीवन की सावधानी भरी उलझन में
जीवन के सत्य को अंततः स्वीकार करते हैं।
मेरा यह आत्म स्वीकार– आत्म- पराजय नहीं है।
मेरा यह स्वीकार —
जीवन के सत्य से साक्षात्कार है ।
जीवन के बोझिल तत्व से
एकमेव होना
जीवन के सत्य से
समन्वय स्थापित कर लेना– अवांतर नहीं है।
मेरे जीवन का सूनापन —
जीवन के सत्य के काफी करीब है।
जीवन में, जहां प्रेम है ,वहीं घृणा है ,
जहां आशा है ,वही निराशा है, जहां विश्वास है,
वहीं विश्वासघात है
लेकिन यही सच है !
सुबह से शाम तक– जीवन का यही सत्य है;
जिसे हर कोई अपने कंधे पर उठाए ढो रहा है
हम गलत नहीं सोचें
तो यही हमारी
मुकम्मल चिंतन की लंबी फेहरिस्त है ।

पंडित विनय कुमार

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