फ़साने की हकीकत:हकीकत का फ़साना

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रामकृष्ण

चेतन आनन्द ने जब हक़ीकत बनाने की योजना बनायी थी तब उनकी जेब में इतने पैसे भी
नहीं रहते थे कि जुहूस्थित अपने आवास से अधोहस्ताक्षरी के लिंकिंग रोडस्थित फ्लैट
तक वह बसों से भी आ जा सकें. हम दोनों ही उन दिनों पूरी तरह कड़के थे और मामूली
खानपान के लिये भी हमें किसी न किसी शुभचिंतक की ज़रूरत पड़ जाया करती थीं.
करेलानीमच़ा की बात यह कि सुकवि नागार्जुन भी उस समय मेरे साथ रह रहे थे जो खुद
अपने कथनानुसार अख्खड़ और फक्कड ही नहीं बल्कि भुख्खड़ भी थे.

तब सांताक्रुज स्टोन के बाजू में एक रेस्त्रां हुआ करता था. नाम था सुरंग. उसमें
भोजनथाल की कीमत थी कुल बारह आने यानी आज के पछत्तर पैसे. छः रोटियां होती थीं उस थाल में, एक प्लेट चावल, उतनी ही दाल और पर्याप्त चटनी अचार के साथ कम से कम दो सब्ज़ियां एक सूखी और दूसरी रसदार. जब भी चेतनजी आते थे तब मैं वहां जाकर उस लंचपैक की दो थालियां खरीद लाता था, और फिर हम तीनों के लिये उसकी मात्रा कम से कम उस समय के लिये पर्याप्त हो जाती थी.

यह उस कालखण्ड की कहानी है जब किन्हीं सैद्घांतिक मतभेदों की वजह से देव आनन्द के साथ चेतनजी के संबंध पूरी तरह टूट चुके थे और इतना पैसा भी उनके पास नहीं बच रहा था कि स्वतंत्र रूप से वह स्वयं अपनी फ़िल्मों का निर्माण भी शुरू  कर सकें. ऐसी अवस्था में उनके लिये नये नये खयाली पुलाव बनाने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं बच पाया था, और उस दिनों  में नागार्जुन के साथ उनका प्रमुख सहयात्री था मैं.उस समय अपनी किसी फ़िल्म को शुरू  करने के लिये चेतनजी को मात्र पच्चीस हज़ार रूपयों की दरकार थी, लेकिन पच्चीस हज़ार तो क्या पूरे पच्चीस रूपए भी हम लोगों के खाते में नहीं थे. फिल्मी दुनिया से संबद्ध कई धन्नासेठों से मिल कर उन्होंने उसकी प्राप्ति के प्रयत्न किये लेकिन कहीं भी उन्हें सफलता नहीं मिल पायी. इस तरह की उनकी कोशिशों  के दरम्यान अनेक बार मैंने उनके साथ खुद विभिन्न वितरकों-फ़ाइनेंसरों के चक्कर लगाये, लेकिन हम लोगों के साथ उनका व्यवहार वैसा ही रहा जैसे सूदखोर बनिए अपने निरीह असामियों के साथ किया करते हैं.

तभी मेरे एक मित्र, वीरेन्द्र पाण्डे का बम्बई आगमन हुआ. वीरेन्द्र दिल्ली स्थित अमरीकी दूतावास में कार्यरत थे, भायद उसके हिन्दी विभाग के प्रमुख के रूप में. उनकी ज़बानी जब यह बात मालूम हुई कि अमरीकी इम्बैसी द्वारा भी फिल्मनिर्माण की दिशा  में वित्तीय सहायता प्रदान करने का कोई प्रावधान है तो हम लोग स्वभावतः ही उछल पड़े. तय हुआ कि हम दोनों वीरेन्द्र के साथ ही दिल्लीयात्रा पर निकल चलें और दूतावास के अधिकारियों से मिलभेंट कर तत्संबंधित अनुदान प्राप्त करने की पहल करें.लेकिन दिल्ली पहुंचने के बाद मालूम हुआ कि वीरेन्द्र की धारणा मात्र उनकी कपोल कल्पना थी और
अमरीकी दूतावास में ऐसा कोई नियम नहीं था जिसके माध्यम से फ़िल्मनिर्माण के लिये वित्तीय सहायता देने का कोई प्रावधान हो.हम लोग पूरी तरह हताश  और निराश  होकर इम्बैसी भवन से बाहर निकल ही रहे थे कि अचानक चेतनजी की मुलाकात श्रीमती बरार नामक एक महिला से हो गयी. श्रीमती बरार चेतनजी की पत्नी उमा की सहपाठी रह चुकी थी और पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरों रिशते में उनके मामा लगते थे. उसी शाम  अपनी गाड़ी से वह चंडीगढ़  के लिये निकलने वाली थीं, और हम दोनों को उन्होंने विवश  कर डाला कि उनके साथ ही हम भी चंडीगढ़ की यात्रा सम्पन्न कर डालें
रास्ते में कुछ चहलपहल ही होती रहेगी.

हम लोग तो प्रायः बेकार ही हो चुके थे, इससे उनके सत्परामार को स्वीकार करने में हमें क्षण भर की भी देर नहीं लगी. चंडीगढ़ पहुंचने के दूसरे दिन अचानक हमारी भेंट हो गयी मुख्यमंत्री कैरों से. कैरों को श्रीमती बरार ने अपने वासस्थान पर रात्रिभोज के लिये आमंत्रित किया था. चेतन का परिचय जब श्रीमती बरार ने कैरों को दिया तो वह बगैर किसी औपचारिकता उनसे पूंछ बैठे थे तू की कर रया है, भाई? चेतन ने जब यह बात बतायी कि वह फिल्मकार हैं और फिल्मों का निर्माण उनका व्यवसाय है तो कैरों एक ठहाका मारते हुए बोल पड़े थे लानत है तेरे पर. मेरे इतने पुत्तर पाकिस्तान की जंग में शहीद  होते
जा रहे हैं, और तू नाचगानों को फिल्माने में अपना वक्त ज़ाया कर रया है?

यह सुन कर चेतन ने उनको हक़ीकत की योजना से अवगत कराया और बोले लेकिन इस तरह की किसी फ़िल्म को बनाने में कौन उनकी मदद के लिये आगे आएगा? कैरों एक बार फिर दहाड़ उठे थे चेतन के सवाल को सुन कर. कहा था उन्होंने ऐसे नेक काम में मदद करने के लिये तो सारा पंजाब तेरे साथ हैगा, पुत्तर.कैरों की इस बात को सुनते ही चेतन उनसे कह बैठे थे अगर सचमुच कोई अपनी पूंजी लगाने के लिये आगे ब़ढता है तो अभी, इसी वक्त, मैं अपनी फ़िल्म भी  शुरू  करने के लिये तैयार हूं.

कैरों ने यह सुन कर सवाल किया था कोई कहानी है गी तेरे पास?चेतन ने फ़ौरन जवाब में कहा था है गी, बिलकुल है गी जी.तो अगली पहली तारीख को मेरे डेरे पर डिनर के लिये आ जा. कैरों चेतन से बोल उठे थे.पहली के मतलब थे सन 1963 की पहली जनवरी. बातें 23 दिसम्बर को हो रही थीं.

चेतन उनके इस निर्देश  को सुन कर सर्वथा आचर्यचकित रह गये. हक़ीकत की कोई कथापटकथा तब तक वह नहीं लिख पाये थे. श्रीमती बरार की गाड़ी लेकर उन्होंने पूरे पंजाब की परिक्रमा भी शुरू कर दी. पंजाब की विविध फौज़ी छावनियों का उन्होंने भ्रमण किया, सैनिकों के परिजनों से भेंटवात्तार्एं कीं, उन सिपाहियों से मिले जो युद्ध के दौरान ज़ख्मी होकर अस्पतालों में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे. इस तरह मात्र एक सप्ताह में उन्होंने बहुतेरी ऐसी सामग्री एकत्र कर ली जिसके आधार पर फ़िल्म का निर्माण किया जा सकता था.

फिर उस सामग्री को अपने दिलदिमाग़ में संजोए हुए पहली जनवरी की शाम  वह कैरों के बंगले पर पहुंच गये. कैरों उस समय अपने शयनकक्ष में थे. उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी भी उसी कमरे में थे रज़ाइयों में आवृत्त होकर वहां पड़ी चारपाइयों पर लेटेबैठे हुक्के की नलियों को अपने मुंह में लगाये वह लोग कैरों द्वारा आहूत कैबिनेट मीटिंग में भाग ले रहे थे.चेतन के हां पहुंचते ही कैरों ने आदेश  के स्वर में उनसे कहा तू भी यहीं
बैठ जा पुत्तर, और फिर अपनी कहानी को सुनाना भी शुरू  कर.लेकिन सतही सामग्री एकत्र करने के बावजूद चेतन कहानी का कोई खाका नहीं खींच पाये
थे तब तक. इसे ईवरीय अनुकम्पा ही कहा जायेगा कि संचित तथ्यों के सहारे उन्होंने उस सामग्री को जब कहानी का रूप देना शुरू किया तो कैरों सहित उनके सभी मंत्रिमंडलीय सहयोगी सहज ही वाह वाह कर उठे.चेतन ने गौर किया, कैरों की आंखें उस कहानी को सुन कर सहसा आंसुओं से सराबोर हो चली थीं. उन आंसुओं को रूमाल से पोंछते हुए वह पूंछ बैठे थे चेतन से की चाहिंदा? क्या चाहते हो तुम?

जवाब में चेतन बोले थे सिर्फ यही कि मुझे फिल्मी सेठियों के चक्कर लगाने की तवालत न उठानी पड़े.इस बात सुन कर कैरों ने कहा था उनसे ऐसा कर तू कि फ़िल्म का पूरा बजट बना कर कल सुबह ग्यारह बजे मेरे आफ़िस में मुझसे मिल ले.दूसरे दिन चेतन दस लाख रूपये का बजट बना कर कैरों से मिले, और कुल दस मिनट के अन्तराल में कैरों ने उस प्रस्ताव को अपनी मंज़ूरी दे दी. फ़ाइनेंस सेक्रेटरी को बुला कर उन्होंने तत्संबंधित रकम फ़ौरन चेतनजी के हवाले करने का निर्दो किया चेक नहीं बल्कि ड्राफ़ट के ज़रिए क्योकि बम्बई पहुंच कर चेक का भुगतान पाने मे देरी भी लगेगी और व्यर्थ में बैंक कमीशन भी देना पड़ जायेगा. फिर बोले थे पेमेन्ट वगैरह की आफ़िशयल खानापूरी बाद में होती रहेगी, उसके मद्दे अभी परेशांन होने की कतई कोई ज़रूरत नहीं.दस लाख की वह राशि  चेतनजी ने अपने बजट में डरते डरते ही डाली थी, अचानक इतने रूपए मिल जायेंगे उनको इस बात की उम्मीद तो वह सपने में भी नहीं कर सकते थे. फिर उस ज़माने के दस लाख रूपये आनुपातिक दृश्टि से वह  राशि आज दस करोड़ से भी ज्यादा हुई !और उस ड्राफ्ट को हासिल करने के बाद जब हम बम्बई वापस पहुंचे तो एक अद्भुद और अव्यक्त आन्तरिक आह्लाद से हमारे पैर ज़मीन पर नहीं पड़ पा रहे थे.

कुल सप्ताहदो सप्ताह पहले जो व्यक्ति पच्चीस हज़ार रूपयों का भी सपना नहीं देख सकता था उसे अचानक दस लाख की  राशि पाकर कैसा लगा होगा इसकी कल्पना कर सकते हैं न आप?लेकिन यही तो ऐसे क्षण होते हैं जब हमें भगवान की सत्ता स्वीकार करने के लिये विवश  होना पड़ जाता है.

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