भारत में उच्चतर माध्यमिक शिक्षा का मौलिक अधिकार

-डॉ. कौशलेन्द्र मिश्र-

A tribal schoolgirl at the local tribal school in Kalahandi district, Orissa © Sam Strickland (Concern Worldwide)-भारत में शिक्षा के अधिकार का संक्षिप्त इतिहास :-

मानव समाज के सम्यक विकास के लिये आवश्यक आधारभूत तत्वों में से एक तत्व है शिक्षा । जीने के अधिकार की तरह ही शिक्षा का अधिकार भी हमारी मौलिक आवश्यकता है । ईसवी उन्नीसवीं शताब्दी एवं उसके पश्चात् का काल भारतीय शिक्षा का अन्धकारमय काल कहा जाना उचित होगा । अठारहवीं शताब्दी में भारत में प्रति चार सौ की जनसंख्या पर एक प्राथमिक विद्यालय का होना यद्यपि भारत के लिये गौरव का विषय था किंतु यही गौरव भारत के तत्कालीन अंग्रेज़ शासकों के लिये आँख की किरकिरी बन गया । तत्कालीन सर्वेक्षणों में इन तथ्यों के प्रकाश में आने के पश्चात् मैकाले द्वारा एक दीर्घकालीन षड्यंत्रकारी योजना बनायी गयी जिसने भारत में शिक्षा की आत्मा को नष्ट कर दिया । तत्कालीन विदेशी शासकों द्वारा भारतीय आश्रमों, पाठशालाओं और मदरसों की शिक्षा अमान्य घोषित कर दी गयी । दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत में भी उसी छद्मशिक्षा प्रणाली का अनुकरण अद्यावधि किया जा रहा है । अठारहवीं शताब्दी में भारतीयों की अपनी शिक्षाप्रणाली की व्यापकता और सुलभता प्रशंसनीय थी जिसका सबसे बड़ा कारण यह था कि तब प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा के लिये भारतीयों को अघोषित रूप से मौलिक अधिकार प्राप्त था । वहीं स्वतंत्र भारत की जनता को प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त होने में साठ वर्ष से भी अधिक का समय लग गया । अर्धशताब्दी से भी अधिक काल की दीर्घ प्रतीक्षा के पश्चात् अंततः 26 अगस्त 2009 को स्वतंत्र भारत की जनता को प्राथमिक स्तर की शिक्षा का मौलिक अधिकार “Right of children to free and compulsory education act- 2009” के रूप में प्राप्त हुआ ।

शिक्षा का गुणात्मक स्तर :-

 

भारत में ब्रिटिश शासकों द्वारा शिक्षा में किये गये शोषणमूलक परिवर्तनों ने व्यावहारिक ज्ञान को समाप्त कर दिया । शिक्षा की दोषपूर्ण मूल्यांकन पद्धति ने विद्यार्थियों को रटकर परीक्षा में अधिक से अधिक अंक अर्जित करने के लिये बाध्य किया । विद्यार्थियों को पढ़ाये जाने वाले विषयों के असंदर्भित एवं अप्रासंगिक चयन ने शिक्षा के स्तर को पतन की ओर मोड़ दिया जिससे शिक्षा व्यावहारिक एवं जनोपयोगी न होकर अव्यावहारिक एवं स्तरहीन होती चली गयी । आज के विद्यार्थियों में अच्छे और बुरे विद्यालयों में प्रवेश की स्थिति, अध्ययन की सुविधाओं में पक्षपात और परीक्षा परिणामों की विसंगतियों के कारण अवसाद और आत्महत्या की घटनाओं का प्रतिफलन इसी दोषपूर्ण शिक्षा की देन है । ब्रिटिश शासकों द्वारा किये गये इन परिवर्तनों से पूर्व तक अनौपचारिक किंतु व्यावहारिक शिक्षा के प्रति लोगों में स्वाभाविक रुचि थी और इसकी सुविधायें भी उन्हें उपलब्ध थीं । इससे यह ध्वनित होता है कि उस काल तक भारतीयों को शिक्षा के मौलिक अधिकार अघोषित रूप से स्वतः ही प्राप्त थे जो ब्रिटिश शासकों द्वारा अपने राजकाज के उद्देश्य से एकांगी शिक्षा पद्धति लागू करने के बाद समाप्त हो गये । अब, स्वतंत्र भारत के इस कालखण्ड में यह पुनः निर्धारित करना होगा कि हमारी शिक्षा का स्तर और उसकी दिशा क्या हो । यदि हम ऐसा कर सके तो शिक्षा का मौलिक अधिकार लागू किये बिना ही हम प्राचीन भारत की शिक्षा के गौरव को पुनः प्राप्त कर सकेंगे ।

भारत में शिक्षा के मौलिक अधिकार की प्रासंगिकता एवं औचित्य :-

 

मनुष्य ने पृथिवी के सभी प्राणियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विवेकशील प्राणी स्वयं को स्वीकार किया है । रहस्य अनावरण की प्रवृत्ति, जिज्ञासा, उत्कंठा और निरंतर कुछ नवीन करने के स्वभाव ने मनुष्य को विकास के पथ पर अग्रसर होने की क्षमता प्रदान की है । निरंतर प्रयोग, त्रुटि, सुधार और सीखने की प्रवृत्ति मनुष्य की मौलिक प्रवृत्ति है जिसके लिए एकसमान साधन और अवसर प्राप्त करना उसका प्रकृतिप्रदत्त मौलिक अधिकार है । प्राचीन भारत में यह मौलिक अधिकार अप्रतिबन्धित था इसलिये जनता को यह अधिकार प्रदान किये जाने या इसके लिये कोई संवैधानिक व्यवस्था करने का कोई औचित्य ही नहीं था । बारहवीं शताब्दी में जब भारत के शीर्ष विश्वविद्यालयों को विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट किया गया तब भी भारत की जनता को शिक्षा का मौलिक अधिकार स्वाभाविक रूप से प्राप्त था । ब्रिटिश भारत में जब शिक्षा के उद्देश्यों में मूलभूत परिवर्तन किये गये तब न केवल शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन हुआ अपितु शिक्षा के विषयों और माध्यम में भी परिवर्तन किये गये । इन सारे परिवर्तनों का उद्देश्य भारतीय संस्कृति और क्षेत्रीय भाषाओं को समाप्त करना तो था ही साथ ही भारतीयों की ऐसी पीढ़ी तैयार करना भी था जो ब्रिटिश शासकों के हित में कार्य करने के योग्य हो । उनके द्वारा तत्कालीन शैक्षणिक संस्थानों को अमान्य घोषित कर दिये जाने से भारत की पराधीन जनता ने शिक्षा के अपने स्वाभाविक मौलिक अधिकार को भी खो दिया ।

 

भारत में शिक्षा के मौलिक अधिकार का स्वरूप :-

योरोमरीकी देशों में प्रचलित शिक्षा का स्वरूप वहाँ की देशज परिस्थितियों के अनुरूप विकसित किया गया जिसमें वहाँ की पारिवारिक शिथिल संरचना, विवाह संस्कार का अविकसित स्वरूप एवं परित्यक्त बच्चों के प्रति चर्च एवं शासन के उत्तरदायित्वों की भूमिका महत्वपूर्ण है । कौमार्यावस्था में संतानोत्पत्ति एवं विवाह सम्बंधों में अतिशय शिथिलता के दुष्परिणामस्वरूप उन देशों में अनाथ हुये बच्चों के पालन-पोषण एवं भविष्य की सुनिश्चितता का दायित्व अभिभावकों से अधिक शासन का होता है । वहाँ की समाज व्यवस्था के लिये ऐसा करना आवश्यक है किंतु भारत में संतान के पूर्ण आत्मनिर्भर होने तक उनके सारे दायित्वों का निर्वहन माता-पिता द्वारा किया जाता है । भारत में ऐसा करना धार्मिक एवं नैतिक दायित्व माना जाता है । इसलिये भारत की संस्कारित पारिवारिक संरचना एवं सुदृढ़ सामाजिक व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में योरोमरीकी शिक्षा व्यवस्था औचित्यहीन है । दुर्भाग्य से स्वाधीन भारत न तो अपनी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रख पा रहा है और न अपने देश के लिये उपयुक्त समाज व शासन व्यवस्था की पुनर्रचना कर पा रहा है । दीर्घकालीन पराधीनता ने देश को विचारशून्य एवं दिशाविहीन कर दिया है । भारत की परिस्थितियों, समाजपरम्पराओं और आवश्यकताओं के अनुरूप अभी तक सुव्यवस्थित शिक्षा नीति बना सकने में हम असफल रहे हैं । ऐसी स्थिति में यह विचारणीय है कि भारत में शिक्षा के मौलिक अधिकार का स्वरूप क्या हो ? विशेषकर तब और भी जबकि भारत में बौद्धिक आरक्षण का स्वरूप निरंतर विकृत होता चला जा रहा है एवं कई स्तर के शासकीय और निजी विद्यालय संचालित किये जा रहे हैं ।

योरोप के कई देशों में निःशुल्क शिक्षा शासन के दायित्वों में सम्मिलित है । कुछ स्कैंडेनेवियन देशों में तो वैश्विक स्तर की गुणवत्तायुक्त उच्चशिक्षा भी निःशुल्क प्रदान की जा रही है । भारत के संदर्भ में, जहाँ शिक्षा मानवीय श्रेष्ठगुणों के विकास और संस्कारों से सम्बद्ध मानी जाती रही है वहाँ उच्चतर माध्यमिक स्तर तक निःशुल्क शिक्षा के मौलिक अधिकार पर गम्भीर विचार मंथन की आवश्यकता है ; विशेषकर इसलिये और भी कि सार्वजनिक शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर गिरते स्तर, पतित होते नैतिक मूल्यों और विद्यार्थियों के गुणात्मक विकास के स्थान पर मात्र सांख्यिकीय अभिलेख तैयार किये जाने की वंचनापूर्ण प्रवृत्ति निरंतर बढ़ती जा रही है । पश्चिमी देशों में परिवार और समाज की संरचना एवं व्यवस्था भारत से भिन्न है, उनकी आवश्यकतायें और उन्हें पूर्ण करने के दायित्व भी भिन्न हैं । हमें हर बात के लिये पश्चिमी देशों का अन्धानुकरण करने से पूर्व उनकी युक्तियुक्तपूर्ण गवेषणा कर लेनी चाहिये ।   वर्तमान परिदृष्य में मौलिक अधिकारों के संरक्षण से आगे उनके व्यावहारिक एवं सकारात्मक उपयोग की प्रवृत्ति को सुस्थापित किया जाना एक गम्भीर चिंतन का विषय है जिसके विभिन्न पक्षों पर देशव्यापी परिचर्चा का आयोजन किया जाना प्रासंगिक होगा ।

 

शिक्षा के मौलिक अधिकार के व्यावहारिक स्वरूप की भौतिक बाधायें :-

 

हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि शिक्षा के मौलिक अधिकारों का व्यावहारिक क्रियान्वयन अन्य मौलिक अधिकारों की तरह दोषपूर्ण न हो जाय । शिक्षा के मौलिक अधिकारों की अपेक्षा अधिक आवश्यक तो यह है कि अभी जो व्यवस्था है उसी को निर्दुष्टरूप में क्रियान्वयित करने का संकल्प लिया जाय । देश का बुद्धिजीवी शिक्षा के पतन और उसकी गुणवत्ता को लेकर चिंतित है । आज विद्यालयों की संख्या से अधिक आवश्यक है उपलब्ध विद्यालयों में योग्य शिक्षकों की नियुक्ति एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की सुनिश्चितता । जो भारत कभी अपने सुयोग्य, संस्कारवान एवं आदर्श शिक्षकों के लिये सुविख्यात रहा है वही भारत आज अपने संस्कारहीन, अयोग्य एवं छात्राओं के यौनशोषण में लिप्त शिक्षकों के लिये कुख्यात हो रहा है । शैक्षणिक भ्रष्टाचार, उत्तरपुस्तिकाओं के दोषपूर्ण मूल्यांकन, प्रायोगिक परीक्षाओं में पक्षपात और परीक्षाओं में बढ़ते कदाचार जैसी घटनाओं में होती जा रही वृद्धि ने शिक्षा की पवित्रता को समाप्त कर दिया है । आज हमारी पहली आवश्यकता है विद्या के क्षेत्र की पवित्रता को बनाये रखना।

जाति के आधार पर “शिक्षा में आरक्षण” और अल्पसंख्येतर नागरिकों के लिये “शिक्षा के मौलिक अधिकार” ये दोनो व्यवस्थायें परस्पर विरोधी हैं । जहाँ एक ओर जाति विशेष के लिये बौद्धिक आरक्षण की व्यवस्था अनारक्षित जाति के लोगों के बौद्धिक शोषण का आधार है वहीं दूसरी ओर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्राथमिक शिक्षा में अल्पसंख्यकों को शिक्षा के मौलिक अधिकार से मुक्त कर दिये जाने से शैक्षिक विसंगतियों, असमान शिक्षा और वर्गभेद जैसी अप्रिय एवं अलोकतांत्रिक स्थितियों का होना स्वाभाविक है । ऐसी स्थिति में शिक्षा के मौलिक अधिकार का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं रह जाता । हमें पहले शिक्षा की मौलिक विसंगतियों को समाप्त करना होगा । शिक्षा के समान अवसर धर्म-जाति-लिंग निरपेक्ष सभी के लिये तभी सम्भव हो सकते हैं जब जातिगत आरक्षण व्यवस्था को समाप्त कर निर्धनता आधारित आरक्षण व्यवस्था लागू की जाय ।

भारत के उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों एवं सुदूर दुर्गम क्षेत्रों में विद्यालयों की स्थापना अपने आप में एक चुनौती है । शिक्षा के मौलिक अधिकार मिल जाने के बाद भी यदि यह समस्या बनी रहती है तो अन्य मौलिक अधिकारों की तरह यह अधिकार भी निष्फल ही रहेगा ।

 

भारत में शिक्षा के मौलिक अधिकार के नकारात्मक पक्ष :-

यहाँ हमें यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 7 मई 2014 को भारत की अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थाओं को प्राथमिक शिक्षा के मौलिक अधिकार की बाध्यता से मुक्त कर दिया है । इसका अर्थ यह हुआ कि अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थाओं में प्राथमिक शिक्षा के लिये विद्यार्थियों को जाति-धर्म-लिङ्ग से परे निःशुल्क प्रवेश देने, उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करने और उन्हें प्रोन्नत करने की बाध्यता नहीं होगी । यह एक विसंगतिपूर्ण स्थिति है जिसका प्रभाव मौलिक अधिकार की अवधारणा के विरुद्ध होने से शैक्षणिक-सामाजिक विषमता का कारण सिद्ध होगा । दुनिया में लोकतांत्रिक देशों के सभी नागरिकों को समान मौलिक अधिकार दिये जाने की वैश्विक परम्परा रही है । यदि उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में भी मौलिक अधिकारों के ऐसे ही विभेदात्मक स्वरूप को लागू किया जायेगा तो भारत में सामाजिक विषमता की खाइयाँ और भी गहरी होती जायेंगी ।

दूसरी ओर, उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में मौलिक अधिकारों को प्रदान किये जाने से निजी शिक्षा संस्थानों के लिये एक बाध्यतापूर्ण स्थिति निर्मित होगी । ऐसी स्थिति में यह बाध्यता प्रौढ़ शिक्षा अभियान की तरह सांख्यिकीय आँकड़े तो जुटा सकती है किंतु विद्यार्थी का शैक्षणिक विकास नहीं कर सकेगी । वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्राथमिक स्तर की शिक्षा के मौलिक अधिकार के पश्चात् इसे और आगे के स्तरों तक ले जाने का कोई गुणात्मक कारण औचित्यपूर्ण नहीं है । हमें इस वास्तविकता को स्वीकार करना होगा कि भारत में निजी शिक्षा संस्थान एक उद्योग की तरह स्थापित हो चुके हैं जिनका उद्देश्य धन अर्जित करना है । जब हम शिक्षा के मौलिक अधिकार की बात करते हैं तो हमें निजी शिक्षा संस्थाओं के उद्योग को समाप्त करना होगा अन्यथा शिक्षा के मौलिक अधिकार का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं रह जायेगा ।

 

भारत में शिक्षा के मौलिक अधिकार के सकारात्मक पक्ष :-

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, शिक्षा आत्मविकास का एक साधन है जो हर नागरिक के लिये समान रूप से उपलब्ध होना चाहिये । यदि उच्चतर माध्यमिक शिक्षा को मौलिक अधिकार के अंतर्गत लाया जाता है तो उसकी सार्थकता तभी सम्भव हो सकेगी जब इस स्तर की शिक्षा की उपलब्धता अपनी पूर्णगुणवत्ता के साथ सुनिश्चित की जाय । भारत में उच्चतर माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा के लिये विभिन्न पैटर्न लागू हैं जिनके लिये भिन्न-भिन्न स्तर की सुविधायुक्त या सुविधाविहीन शालायें स्थापित की गयी हैं । सरकारी विद्यालयों की दरिद्रता और निजी विद्यालयों के वैभव को आसानी से देखा जा सकता है । इतना ही नहीं, सरकारी विद्यालयों में भी कई तरह के विभेदात्मक स्तर हैं जिनकी साधनहीनता और सम्पन्नता वर्गभेद को स्थापित करती है । शिक्षा का मौलिक अधिकार यदि एक जैसी सम्पन्नता और साधन उपलब्ध कराना सुनिश्चित कर सके तो ही इसका व्यावहारिक औचित्य स्वागतेय होगा ।

 

निष्कर्ष :-

जिस तरह श्वास-प्रश्वास, भोजन और शयन मनुष्य की मौलिक आवश्यकतायें हैं उसी तरह शिक्षा भी मनुष्य की मौलिक आवश्यकता है । इसे मौलिक अधिकार की श्रेणी में लाने का औचित्य भारत की सामाजिक-पारिवारिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में उद्देश्यहीन प्रतीत होता है । विद्वानों की सदाशयता यदि यह है कि लोगों का शैक्षणिक विकास हो तो संसाधनों की उपलब्धता और गुणवत्तायुक्त शिक्षा की सुनिश्चितता के साथ-साथ शिक्षाव्यवस्था में व्याप्त विसंगतियों और भ्रष्टाचार को दूर कर देने मात्र से इस उद्देश्य की प्राप्ति सुनिश्चित की जा सकती है ।

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