पूजा श्रीवास्तव
लोकतंत्र का पहरेदार, चौथा स्तम्भ-प्रेस भविष्य में क्या रूप इख्तियार करेगा इस बात ने हर किसी को अपने पाष में बांध रखा है। मीडिया के हितों की चिंता करने वालों में एक वर्ग ऐसा भी है जो वर्तमान स्थितियों में समाचार पत्रों के अस्तित्व को संकट में मानता है तो दूसरा वर्ग मीडिया में भावी संकट की आकाषवाणी कर रहा है। भविष्य का मीडिया, इसे सुनकर दो तरह की बातें ज़हन में आती है एक ये कि भविष्य का मीडिया कैसा होगा, दूसरी ये कि भविष्य का मीडिया कैसा होना चाहिए?
भविष्य का मीडिया कैसा होना चाहिए इस बात का अनुमान हम वर्तमान और भूतकाल में हुई घटनाओं के द्वारा लगा सकते हैं। यह तो सब को विदित है कि पत्रकारिता जिस उद्देश्य को लेकर शुरू हुई थी आज उसका वह स्वरूप नहीं रह गया है। विज्ञापनों की अधिक संख्या में समाचार तत्व का गुम हो जाना, एक तरफा समाचारों के प्रकाशन के लिए दबाव, समाचार चयन और उनके प्रकाशन में प्रबंधन, मार्केटिंग, प्रसार आदि विभागों का हस्तक्षेप अन्य समाचार माध्यमों जैसे टी वी, इंटरनेट आदि के प्रभाव में समाचार पत्रों की ताज़गी पर सवाल खड़े उठते हैं।
भावी मीडिया का रूख किस तरफ होगा, इस बात की पुष्टी आज के अखबार एवं मीडिया हाउस स्पष्ट करते नज़र आ रहे हैं। आज सहज देखा जा सकता है कि बड़े समाचारपत्रों की दिलचस्पी गंभीर साहित्यिक, संस्कृतिक व राजनीतिक पत्रिकाओं के प्रकाशन में लगभग न के बराबर है। कई पत्रों ने तो अपने पृष्ठ से साहित्य, संस्कृति, पुस्तक-समीक्षा आदि मसलों को बाहर कर दिया है। खबरों को रोचक बनाना, शीर्षक दिलचस्प होना आदि समाचार प्रस्तुति की शर्त बना दी गई है। समाचार पत्रों में अब फैशन, फिटनेस, सौंदर्य, खाना पीना, ज्वेलरी, मॉडल आदि के कवरेज ज्यादा दिखाए जा रहे है। आज यह हालत है तो कल भविष्य में टीवी चैनलों से गंभीर आर्थिक, राजनीतिक सांस्कृतिक व साकाजिक बहस लगभग लुप्त हो जाएंगे। समाज से जुड़े सभी जरूरी मसले तब मीडिया की प्राथमिकता -सूची में नहीं रहेंगे। दूसरी और जहां तक बात की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तो इनका ये हाल होगा की ये क्राईम, अश्लीलता, मनोरंजन, धर्मदर्शन दिखाने के साथा-साथ कम से कम एक ख़बर दिखाने का वादा करते नज़र आएंगे। खबर की प्रस्तुति की जाए तो मीडिया चैनल गलाकाट प्रतिस्पर्धा व टी आर पी बढाने के उददेश्य से अपने मूलर् कत्तव्यों से विमुख हो जाते है। इसी का प्रतिफल है कि वर्ष 2008 में मुंबई में घटी आतंकवादी घटना ने पूरे देश के सामने भारत का मीडिया कटघरे में खड़ा हो गया। खासतौर पर टीवी चैनलों ने 60 घंटो का रियलिटी शो या टेरर रियालिटी शो दिखाकर दहशत फैलाने के साथ-साथ सेना व सुरक्षा बलों के काम में भी गंभीर रूकावटे पैदा की। अगर इस बिना लगाम वाले मीडिया पर पाबंदी न लगाई गई तो भविष्य में भयानक परिणाम के साथ मीडिया का रूप दिखाई देगा।
दूसरी ओर जहां तक बात की जाए सामाजिक सरोकार के मुद्दे पर तो पिछले दो दशक में भूमंडलीयकरण की तेज चल रही प्रक्रिया के कारण भारतीय मीडिया के स्वरूप व चरित्र में गुणात्मक बदलाव आया है। जो मीडिया पहले देशी सरोकारों और राष्टीय भावनाओं से ओत-प्रोत था वह अब विदेषी पूंजी के लोभ में सारी मर्यादाएं तोड़ देने को उदधत है। मीडिया के दो घटक महत्तवपूर्ण हैं-पूंजी और समाज। दोनों ही आवष्यक तत्व है पर इसका अर्थ यह नहीं की मीडिया दोनों में संतुलन ही भूल जाए। भूतकाल में मीडिया में जो समाज और दुनिया की बातें होती थी, वो आज मतलब की चाश्नी में लपेटकर पेश की जाती है। बडी सेलिब्रिटी हो या राजनेता हर कोई मीडिया का इस्तेमाल स्वार्थ सिद्धि के लिए ही करता नजर आता है। उदाहरण प्रस्तुत है कि अभी हाल ही में थ्री इडियट फिल्म के अभिनेता आमिर खान चंदेरी के कारीगरों से मिलने आए पर ठीक उसी वक्त जब उनकी फिल्म रिलीज होने की कगार पर थी। अगर यही हाल रहा तो मीडिया में सामाजिक सरोकारों की कल्पना भविष्य में इस प्रकार ही होगी कि सेलिब्रिटियों द्वारा किये गये समाज उत्थान के लिए किए गए दिखावे ही मीडिया में अपनी जगह दिखा पाएंगे।
जब आज वर्तमान में ही कुछ गिने चुने को छोडकर कोई पत्रकार सामाजिक विषयों पर काम करना नहीं चाहता तो भविष्य में इसकी हम क्या आषा कर सकते हैं। उदाहरण प्रस्तुत है एक बार जाने माने पत्रकार पी. साईनाथ ने बताया था कि ”जब मुंबई में (वर्ष 2007) लेक मे फैशन वीक में कपास से बनी सूचती कपड़ों का प्रदर्शन किया जा रहा था लगभग उसी दौरान विदर्भ में किसान कपास की वजह से आत्महत्या कर रहे थे। ” इन दोनों घटनाओं की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि फैशन वीक को कवर करने 512 पत्रकार पहुंचे पर उन किसानों की आत्महत्या को कवर करने के लिए पूरे देश से मात्र 6 पत्रकार ही पहुंचे।
भविष्य के मीडिया में कई दोष नजर आ रहे हैं। वजह यह है कि मीडिया के कई घोडों ने सत्ता की घास से गहरी दोस्ती कर ली है जिसका सार्वजनिकर प्रदर्षन व बड़ी एंठ के साथ करते हैं। अत: कई बार जिसे चैनल या पत्र विषेष जिसे सत्यकथा कहकर प्रचारित कर रहा है। वह हो सकता है की किसी मित्र दल या संस्थान विशेष के स्वार्थों से जुड़ा कोई उपक्रम भर हो। पूंजी और लालच के दलदल में मीडिया दिन-प्रतिदिन धंसता जा रहा है। पेड पत्रकारिता का परचम आज ही षिखर पर है तो भविष्य में इसका असर अत्यधिक दुष्कर होगा। उदाहरण प्रस्तुत है कि मार्च 2003 में देश के सबसे बड़े मीडिया समूह ने मीडिया नेट नाम की पहल की। जिसमें दावा किया गया कि, यह तेजी से बदलते समय में पत्रकारीय रूझानों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का प्रयास है, पर दरअसल ये पहल पत्रकारों द्वारा निजी स्तर पर इस उद्योग को बढ़ाने का प्रयास था ताकि भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप दिया जा सके । एक और उदाहरण यह है कि 1999 से ही छोटे पैमाने पर पैसे के बदले समाचार छापने का चलन शुरू हो चुका है। 2004 और उसके बाद उत्तार प्रदेश, उत्तराखण्ड आदि के विधानसभा चुनावों के दौरान ये बीमारी बढ़ चुकी है।
भावी मीडिया अपने साथ कई नई-नई तकनीकियों को समाहित करके आएगा। तकनीकी क्रांति, मीडिया की बढ़ती ताकत संचार के साधनों की गति समुचित दुनिया को एक स्वप्न लोक में तब्दील कर दिया। भविष्य समाचारपत्रों की टेबलॉयड रूप में हमारे हाथों में आएंगे। इसकी वजह यह है कि भविष्य में समाचारी कागज़ों की कीमत घटेगी नहीं बल्कि और बढ़ेगी। अत: अगर समाचारपत्र निकालना है तो उसके आकार से समझौता करना पड़ेगा। इसके अलावा मोबाईल और इंटरनेट पर समाचार प्राप्ति शुरू होने के साथ ही मीडिया अन्य क्षेत्रों में भी प्रसारित होने लगेगी। भावी मीडिया, टेलीकम्युनिकेषन और कम्प्यूटर उद्योगों के साथ मिल-जुल कर काम करने से यह भूमंडलीय अर्थव्यवस्था का ऐसा क्षेत्र हो जाएगा जो सबसे तेज काम करने वाला और सबसे अधिक विषाल उद्योग बन जाएगा। बिना आर्थिक लाभों और मुनाफाखोरी के यह उद्योग विषुध्द सामाजिक सरोकारों का कोई उपक्रम नहीं कर सकता । आज के अखबार हो या भविष्य के ये उसी प्रकार बिक रहे हैं जैसे साबुन टूथपेस्ट या षेविंग क्रीम। जब आज के समय में तेजस्वी पत्रकारों के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है तो भविष्य में क्या स्थिति होगी? पूरे तंत्र पर मार्केटिंग शक्तियां हावी हैं।
आज मीडिया आम आदमी की आजादी का सहारा लेकर हर तरह के बंधनों को तोड़ने को तैयार है। व उन मूल्यों और आदर्शों को भी नहीं मानता जिसकी बाँह पकड़कर उसने समाज में अपनी विश्वसनीयता बनाई है।
मीडिया का यह कृष्ण पक्ष है, किन्तु असीम विसंगतियों के बावजूद मीडिया का अपना एक शुक्ल पक्ष भी है। इस मीडिया के द्वारा ही देष में राजनेताओं और प्रभावशाली लोगों द्वारा किए गए घोटालों का पर्दाफाष किया है। स्टिंग ऑपरेशन की नैतिकता पर भले ही कितने ही प्रष्न चिह्न खड़े हुए हो, किन्तु इसके जरिए उस वर्ग पर अंकुष लगने पर अवष्य सहायता मिलेगी जो अपने को देष के कानून से बड़ा समझते हैं। इसलिए इस तथ्य को नहीं नकारा जा सकता कि मीडिया ने इस के प्रकरणों को उजागर कर सामाजिक चिन्ताओं के प्रति अपनी भूमिका का परिचय दिया है।
सामाजिक सरोकारों से जुड़े मीडिया के अच्छे प्रयासों की बात करे तों वो भी जरूर आगे बढ़ेंगें पर किस रूप में ये पता नहीं। वर्तमान में कई मीडिया संरचनाएं समाज व जनता के हित हेतु कार्य कर रही है उदाहरण के लिए जल सत्याग्रह, पक्षी बचाओं अभियान के साथ साथ मध्यप्रदेश शासन द्वारा प्रस्तावित भास्कर प्लान की असलियत बताते हुए मीडिया ने जलहित में अपना योगदान दिया है। समाज के लिए कार्य करने के लिए मीडिया को प्रोत्साहन देना जरूरी है कई मीडियाकर्मी सामाजिक मुद्दों पर काम तो करना चाहते हैं पर जनता द्वारा उन्हें समर्थन नहीं मिलता। मीडिया के साथ साथ जनता को भी अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। अगर जनता की तरफ से प्रोत्साहन मिलता है तो भावी मीडिया समाज के लिए कार्य करने के लिए विवश हो जाएगा। पर अगर इसके विपरीत हुआ तो इसका दोष सिर्फ मीडिया पर ही मढ़ा नहीं जा सकता। अत: ज़रूरत है आज जनता के समर्थन की ताकि भविष्य में भी मीडिया में सामाजिक मुद्दों को जगह मिल सके।
पूजा श्रीवास्तव जी साहित्य जोग ….
आपका लेख प्रसंसनीय है आपको हार्दिक शुभकामनाएँ …..
अच्छा लेख है। निरंतर और बेहतर लिखें। मेरी बहुत शुभकामनाएं।