बशीर अहमद पीर
मेरा नाम मंसूरा बानो है। मैं पश्चिम बंगाल के हुगली की रहने वाली हूं। हमारा परिवार बहुत गरीब था। हमारे घर की हालत ऐसी नहीं थी कि हमारी मर्जी से हमारे हाथ पीले किए जा सकते थे। पिता की सिर्फ इतनी आमदनी होती थी कि घर में दो वक्त का मुश्किल से चुल्हा जल पाता था। हम तीन बहनें और एक छोटा भाई था। बड़ी बहन की शादी अपने ही इलाके में हुई थी। मुश्किल के दिन गुजर रहे थे कि वर्ष 2002 में एक दिन कष्मीर के सीमावर्ती इलाका कुपवाड़ा के शोलरा गांव से कुछ लोग मेरे पिता के पास मेरी बड़ी बहन का रिश्ता लेकर आए। उन्होंने मेरे पिता को हर तरह से आश्वस्त किया कि अगर वह अपनी बेटी की शादी उनसे करवा दें तो वह काफी खुशहाल जिंदगी गुजारेगी। उन्होंने मेरे पिता को शादी के सारे खर्च उठाने का भी वादा किया। इसके अलावा उन्होंने मेरे गरीब पिता को बीस हजार रूपए अलग से भी दिए। उन्होंने बताया कि वह कश्मीर से जरूर आए हैं परतुं अच्छे घर से संबंध रखते हैं। बेटी के उज्जवल भविष्य और अपनी गरीबी को देखते हुए मेरे पिता ने इस रिश्ते को मंजूरी दे दी।
अगले ही वर्ष मेरे कश्मीरी जीजा एक अन्य लड़के के साथ हमारे गांव आए और इस बार उसकी शादी के लिए मेरे पिता से मेरा हाथ मांगा। उस समय मेरी उम्र सिर्फ 17 वर्श थी। इस बार भी उन्होंने शादी के सारे खर्च वहन करने का न सिर्फ वादा किया बल्कि मेरे पिता को शादी के बाद एक बार फिर बीस हजार रूपए दिए। गरीबी और बदहाली से जुझते अपने कमजोर कंधों पर बेटियों का बोझ उठाने वाले मेरे पिता एक बार फिर उनके सामने झुक गए और मेरी शादी उस लड़के से करवा दी। शादी के बाद मेरे पिता और भाई कश्मीर तक मुझे छोड़ने आए थे, लेकिन वापस गए तो आज तक न तो आए और न ही हमारा हालचाल जानना चाहा। अब हम दोनों बहनें ही आपस में एक दूसरे का सुख-दुख बांट लेती हैं। हम दोनों बहनों की शादी को सात-आठ साल गुजर चुके हैं लेकिन इसके बावजूद हमारे ससुराल वाले हमसे गैर कश्मीरी होने के कारण नफरत करते हैं। न तो उनकी भाषा हमें समझ में आती है और न ही हमारी जुबान उनके पल्ले पड़ती है। वह हमसे हमारे रंग, हमारी बदसूरती और गरीबी का ताना देते हैं। अक्सर छोटी-छोटी बातों के लिए वह हमें गालियां देते हैं। अब हमें खुद से ज्यादा अपने बच्चों की चिंता रहती है जो यहां के वातावरण में स्वंय को एडजस्ट नहीं कर पा रहे हैं। हमारी जिंदगी किसी कैदी की तरह होकर रह गई है। जहां हम अपनी मर्जी से सांस तक नहीं ले सकते हैं।
ये कड़वी सच्चाई कश्मीर के कई ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिल जाएंगी। दरअसल जिन लड़कों की शादी गरीबी, बेरोजगारी अथवा विकलांगता के कारण नहीं हो पाती है, वह दूसरे राज्यों के गरीब परिवार की लड़कियों से शादी कर लेते हैं। हालांकि इसमें काफी हद तक परिवार वालों की रजामंदी होती है परंतु इसके बावजूद वह कभी भी दिल से गैर कश्मीरी दुल्हनों को परिवार का हिस्सा नहीं बना पाते हैं। (चरखा फीचर्स)
बशीर जी को साधुवाद, इस लेख द्वारा एक वास्तविकता पर प्रकाश डालने के लिए।
(१) कुछ महिला सहायक संस्थाएं नहीं है, जिनसे कुछ सहायता प्राप्त हो सके?
कुछ कानून की सहायता या भय दिखाकर समस्याएं सुलझाई जा सके?
(२) दूसरा तथ्य, पहले ही, तो कश्मिर को शासन ने ही एक स्वदेशांतरित परदेश बना दिया है। देशके अंदर परदेश?
(३) तीसरा, विवाह में, कॉम्पेटेबिलीटी (अनुरूपता) को देखने की रीति, भाषा, रीतियां, रूढियां, इत्यादि ३२ या ३६ प्रकारकी समानताएं देखी जाती (थी) है। कुछ समझौता निश्चित हुआ करता था।पर भाषा का सबसे बडा प्रभाव माना जाता था-है।
(४) और अन्य पाठक भी विचार रखें।
(५) क्या, सामाजिक स्वयंसेवी संस्थाएं कुछ कर सकती हैं?
(६) अरुंधती के लिए यह अवस्था एक चुनौती है।
कुछ ठोस कार्य करने की, और अपनी पश्चिम बंगाल की, बहनों के जीवन में कुछ अच्छा करनेका अवसर है। साथमें उसका अपना कश्मिर से अच्छे सम्बंधों का उचित उपयोग करने का भी अवसर निश्चित ही है। अरुंधती को इस विषय की जानकारी दी जाए। यही एक प्रभावी धागा प्रतीत होता है।
ऐसे सारे समाचार किसी धर्म-मज़हबसे उपर उठकर ही देखें जाने चाहिए, और राजनीति से भी परे।
अरुंधती राय को वहां भेजा जाए।
यह एक काम उसकी गिरती साख को सही करने में सहायक होंगी।