गाँधी जी ने सभ्यता के जो रूप बताए है, वे विचारणीय है। संवेदनशील पाठक आत्म-मंथन के लिए विवश होगा और सोचेगा, कि क्या सभ्यता के ये ही नए कँटीले शिखर हैं? गाँधी जी के विचारों का एक लम्बा अंश यहाँ प्रस्तुत करने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूँ. उन्होंने कहा कि सौ साल पहले यूरोप के लोग जैसे घरों में रहते थे, उनसे ज्यादा अच्छे घरों में आज वे रहते हैं। यह सभ्यता की निशानी मानी जाती है। इनमें शरीर के सुख की बात है। इसके पहले लोग चमड़े के कपड़े पहनते थे और बालों का इस्तेमाल करते थे। अब वे पतलून पहनते हैं और शरीर को सजाने के लिए तरह-तरह के कपड़े बनवाते हैं। और बाले के बदले एक के बाद एक पाँच गोलियाँ छोड़ सके, ऐसी चक्करवाली बंदूक इस्तेमाल करते हैं। यह सभ्यता की निशानी है। किसी मुल्क के लोग जो जूते वगैरा नहीं पहनते हों, जब यूरोप के कपड़े पहनना सीखते हैं, तो जंगली हालत में से सभ्य हालत में आये हुए माने जाते हैं। पहले यूरोप में लोग मामूली हल्की मदद से अपने लिए जात-मेहनत करके जमीन जोतते थे। उसकी जगह आज भाप के यंत्रों से हल चला कर एक आदमी बहुत सारी जमीन जोत सकता है और बहुत-सा पैसा जमा कर सकता है। यह सभ्यता की निशानी मानी जाती है। पहले लोग कुछ ही किताब लिखते थे और वे अनमोल मानी जाती थी। आज हर कोई चाहे जो लिखता और छपवाता है और लोगों के मन को भरमाता है (प्रकाशन के मामले में सौ साल बाद भी इसी तरह की बुरी स्थिति है-लेखक)यह सभ्यता की निशानी है।”
गाँधी जी ने बैलगाड़ी और रेलगाड़ी का और हवाई जहाज का भी उदाहरण दिया है कि लोग कुछ ही घंटे में लंबी दूरिया तय कर लेंगे। एक उदाहरण गाँधीजी ने त्रिकालदर्शी के रूप में कुछ इस तरह पेश किया है जो अब सार्थक हो रहा है। उन्होंने लिखा है, ”लोगों को हाथ-पैर हिलाने की जरूरत नहीं रहेगी। एक बटन दबाया कि आदमी के सामने पोशाक हाजिर हो जाएगी, दूसरा बटन दबाया कि उसे अखबार मिल जाएंगे, तीसरा दबाया कि उसके लिए गाड़ी तैयार हो जाएगी। हर हमेसा नये भोजन मिलेंगे, हाथ-पैर का काम नहीं करना पड़ेगा। सारा काम कल से हो जाएगा।…यह सभ्यता की निशानी है।… पहले लोगों को मारपीट कर गुलाम बनाया जाता था, आज पैसों का लालच देकर गुलाम बनाया जाता है। पहले जैसे रोग नहीं थे वैसे रोग आज लोगों में पैदा हो गए हैं और उसके साथ डॉक्टर खोजने में लगे हैंकि ये रोग कैसे मिटाए जाएँ। ऐसा करने से अस्पताल बढ़े हैं। यह सभ्यता की निशानी है।”
प्रस्तुत है गिरीश पंकज जी द्वारा लिखा ’हिंद स्वराज्य’ विषय पर लेख की तीसरी किस्त , पुरा लेख तीन किश्तों में है, जैसा कि ज्ञात रहे प्रवक्ता ने हिन्द स्वराज विषय पर व्यापक चर्चा शुरु किया है। संपादक को अपेक्षा है कि पाठक इस चर्चा में शामिल होकर इस नया आयाम देंगे…
गाँधीजी ने और भी अनेक गहरे कटाक्ष किए हैं लेकिन उनके इतने विचार ही यह समझने के लिए पर्याप्त है कि सभ्यता को मनुष्य कितने हल्के से लेता है। कसाई खाने में अत्याधुनिक यंत्र लगा कर भी कहा जा सकता है कि हम सभ्य हो गए हैं। देखो, कितनी तत्परता के साथ पशुओं का कत्ल करते हैं और मानवश्रम बचाते हैं। दरअसल सभ्यता को कुछ लोगों ने गहराई से समझने की कोशिश ही नहीं की है। कुछ यांत्रिक सुविधाओं को सभ्यता समझ कर इतराने वाले समाज को सभ्यता का असली उत्स समझ में नहीं आता, जिसके लिए गाँधी जी बेचैन रहे। यूरोप की जिस सभ्यता और मानसिकता को गाँधी जी ने समझाने की कोशिश की थी, उस सभ्यता ने आज भारत को अपने कब्जे में बुरी तरह जकड़ लिया है। यह हास्यास्पद स्थिति नहीं है तो और क्या है कि भारत में भीषण गरमी के दौरान भी कुछ लोग सूट-बूट और टाई में नजर आते हैं, क्योंकि ऐसा पहरावा उन्हें सभ्य या कहें कि आधुनिक दर्शाता है। हद तो उस वक्त हो जाती है जब कुछ लोग अपने कुत्ते से भी अँगरेजी में बात करते हैं। सोचिए जरा, वह सभ्यता की किस ऊँचाई पर खड़ा है। पिज्जा-बर्गर या फास्ट फूड एवं ड्रिंक्स की नई संस्कृति को आत्मसात करके लोग खुद की माडर्न समझ रहे हैं। यह सभ्यता की सही निशानी नहीं है। कपड़े, भोजन और पेय आदि को सभ्यता नहीं समझा जा सकता। लोग खुद को सभ्य कहते हैं और अनेक घिनौने किस्म का माँसाहार भी करते हैं। सभ्यता की सीधी-सादी परिभाषा यही है कि आप का व्यवहार कैसा है। खास कर उस मानव से जो आर्थिक, सामाजिक एवं मानसिक रूप से आपसे कमजोर है। वंचितों, दलितों, पिछड़े एवं कमजोर लोगों से मनुष्य अगर नकारात्मक व्यवहार करता है तो वह जितना भी सुदर्शन हो, जितने भी अच्छे कपड़े पहनता हो, जितने भी भव्य घर में रहता हो, सभ्य नहीं कहा जा सकता। ये और बात है कि वह अपने को अकसर सभ्य बताने की काशिश करता होगा। हम खुद सोचें कि कितने सभ्य लोग हमारे इद-गिर्द सलामत हैं।
सच्ची सभ्यता आदमी को इन्सान बनाती है। यांत्रिक सभ्यता सच्ची सभ्यता नहीं हो सकती क्योंकि इसकी चपेट में आकर इंसान इंसानियत ही भूल जाता है। इस तरह नई सभ्यता एक तरह से शैतानी सभ्यता ही है। लोग धर्मस्थलों में जाते हैं और यंत्रवत सिर हिलाते हैं, झुकाते हैं, लोट-लोट जाते हैं, लेकिन मन के पाप जस के तस रहते हैं। माँसाहार सहज प्रवृत्ति बनी हुई है। कटते हुए माँस को लोग भूखे भेडिय़े की तरह देखते मिल जाते हैं। तमाम तरह के दुर्गुणों से भरा यह आधुनिक मनुष्य किस कोण से सभ्य हैं, यह तो मेरी भी समझ में नहीं आता। आज अगर गाँधी जी जीवित रहते तो हिंद स्वराज्य के नए संस्करण में वे यही लिखते कि अरे, इन सब ने राह न पाई। सौ साल पहले मैंने जैसा भारत या समाज देका था, वैसा और उससे भी बदतर समाज आज देख रहा हूँ। सभ्यता हमें अधम बना दे, निर्मम बना दे, जातिवादी, कट्टर धार्मिक बना दें, क्षेत्रवादी बना दे, भाषावादी बना दे, स्वार्थी बना दे तो ऐसी सभ्यता मानव जाति के किस काम की? गाँधी जी ने भी कहा है कि ”मेरी पक्की राय है कि हिंदुस्तान अँगरेजों से नहीं, बल्कि आजकल की सभ्यता से कुचला जा रहा है। उसकी चपेट में फँस गया है।”
गाँधी जी धर्म विरोधी नहीं थे। लेकिन उनका धर्म विवेकशून्यता से भरा नहीं था। वे कहते हैं, कि ” मुझे तो धर्म प्यारा है इसलिए पहला दु:ख मुझे यह है कि हिंदुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ यहाँ मैं हिंदी, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता, इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है, वह हिंदुस्तान से जा रहा है। हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।”
आज हालत यही है। हम असली धर्म भूल गए हैं। धर्म कहीं दिखता नहीं, बस पाखंड या आडंबर ही प्रधान है। ईश्वर के सामने पाप होते रहते हैं। हत्याएँ होती है, बलात्कार होते हैं, धोखाधड़ी होती है, ऊँच-नीच का खेल चलता है। भगवान के घर पर भी वीवीआइपी और गरीबों के साथ अलग-अलग व्यवहार होता है। ये कैसा धर्म, कैसी सभ्यता है? आराधना के नाम पर लोगों की आँखों तो बंद रहती है लेकिन भीतर ही भीतर नए-नए पापों को करने की योजनाएँ भी बनती रहती हैं। ईश्वर का डर खत्म हो गया है। या फिर ईश्वर को इतना सस्ता समझ लिया गया है, कि उसके सामने हाथ-पैर जोडऩे से सारे पाप धुल जाएँगे। मनुष्य जीवन नैतिकता और सदकर्मों की सतत तलाश है। यही सच्ची सभ्यता है। लेकिन अब ऐसी सभ्यता के दीदार कम ही होते हैं। मनुष्य यंत्र हो चुका है।
आधुनिकता या यांत्रिक सभ्यता का तथाकथित ताजा उदाहरण यह भी है कि अब समलैंगिकता को भी सामाजिक स्वीकृति देने की दिशा में व्यवस्था कदम बढ़ा रहा है। कुछ चीजों के लिए तो हमें समाज को जोर-जबर्दस्ती के साथ प्रतिबंधित करना होगा, लेकिन प्रगतिशीलता, और मानवाधिकार के चक्कर में अनैतिकता को भी हरी झंडी दिखाई जा रही है। अगर यही रफ्तार रही तो जिस यांत्रिक सभ्यता के खतरे को गाँधी से ने देखा और महसूस किया था, और हम सबको सावधान भी किया था, वह सभ्यता हमें खाक में मिला देगी। सौ सालों में हमारा समाज और ज्यादा पतित हुआ है। इक्कीसवीं सदी में के इस व्यामोह में और ज्यादा विनाश संभावित है। मंजर सामने है। कुंवारी लड़कियों के माँ बनने की रफ्तार बढ़ी है। अगर यह सभ्यता है तो कुछ भी नहीं कहना और अगर यह सभ्यता नहीं है तो विचार किया जाना चाहिए, कि ऐसा क्यों हो रहा है। कारणों तक पहुँच कर उसे दूर करने की कोशिश होनी चाहिए। गाँधी जी के सपनों का महान भारत तभी बन सकेगा। यह संभव हो सकता है, बशर्र्ते हम सब मिल-जुल कर इस दिशा में वैचारिक प्रयास करें। गाँधी, खादी, नैतिकता, प्रेम, करुणा, त्याग जैसे मानवीय गुणों का विकास करके ही सभ्यता की सच्ची परिभाषा गढ़ी जा सकी है। इसके लिए जरूरी है कि हम यांत्रिकता से बाहर निकल और सही अर्थों में सभ्यता की उस दिशा की ओर कदम बढ़ाएँ, जिसकी ओर चलने का आग्रह गाँधी जी ने किया था। हिंद स्वराज्य की शताब्दी केवल एक पुस्तक की शताब्दी नहीं है, यह उन महान मानवीय विचारों की शताब्दी भी है, जो अभी भी व्यवहार में नहीं उतर पाए हैं। जब हम गाँधी जी के हिंद स्वराज्य में वर्णित सभ्यता को समझ सकेंगे, तभी हम महामानवता के स्वप्न को भी साकार कर सकेंगे। (समाप्त)