गांधी अपरिहार्य हैं भारतीय समाज के लिए

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मनोज कुमार

कैलेण्डर के पन्नों पर हर दिन तारीख बदल जाती है। इसके साथ ही साल में भी बदलाव आता है लेकिन बदलती तारीख और साल देशकाल के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। 26 जनवरी इस बात के लिए हम अपने स्मरण में रखते हैं कि इस दिन देश का संविधान बना था तो 30 जनवरी शहीद दिवस के रूप में हमारे स्मरण में रचा-बसा है। इस तारीख पर महात्मा गांधी की निर्मम हत्या कर दी गई थी और उनके मुख से अंतिम वाक्य हे? राम उच्चारित हुआ था।  इन तारीखों को स्मरण में रखना इसलिए भी जरूरी है कि ये तारीखें हमारा मार्गदर्शन करती हैं। हमें बताती हैं कि हमारे पुरखों की हैसियत क्या थी? और हम उनके बताये रास्ते पर चलकर कैसे विश्व विजेता बन सकते हैं। पुण्यतिथि या जन्मदिवस पर सुमिरन करना केवल औपचारिकता नहीं है बल्कि उस नई पीढ़ी को अपने इतिहास और वैभव से परिचय कराना है जिससे भारत का शीश पूरी दुनिया में ऊंचा है। महात्मा गांधी भारत के गुजरात प्रदेश से आते हैं लेकिन उनका कद एक राज्य का ना होकर वैश्विक है। उनका जीवनकर्म से लोगों के लिए आदर्श बना और पूरी दुनिया उनकी अनुयायी है। विचारों की सहमति-असहमति के बावजूद महात्मा गांधी को अपनी जिंदगी से खारिज करना आसान नहीं है। एक नयी सोच के लोगों के लिए गांधी अप्रासंगिक हो चले हैं लेकिन वही लोग जब सत्य और अहिंसा की चर्चा करते हैं तो महात्मा के रूप में मोहनदास करमचंद गांधी का उल्लेख करना नहीं भूलते हैं। वे इस बात को भूल जाते हैं कि उन्होंने तो गांधी को खारिज कर दिया था लेकिन जब स्वच्छता की बात आती है तो गांधी आदर्श के रूप में हमेशा हमेशा मौजूद रहते हैं। जब वर्गभेद, रंगभेद और जातियता की चर्चा होती है तो एक बार फिर महात्मा गांधी हमारे बीच उपस्थित मिलते हैं।  गांधी का गांधी बने रहना बहुत मुश्किल नहीं है लेकिन गांधी का महात्मा बन जाना कठिन ही नहीं असंभव सा है। मोहनदास करमचंद गांधी एक सम्पन्न परिवार से थे और वे और परिवारों की तरह बैरिस्टर की शिक्षा हासिल करने विदेश गए थे। उनके लिए बहुत सहज था कि वे बैरिस्टर बनकर सच और झूठ की वकालत कर धन कमाते और एक आम आदमी की तरह गुम हो जाते। फिर कोई उन्हें खारिज नहीं करता क्योंकि वे बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी की हैसियत से जीते और उसी हैसियत से दुनिया से फनां हो जाते लेकिन उनसे गलती हो गई। वे परपीड़ा को खुद की पीड़ा मान बैठे। वे महंगे वस्त्रों को निकाल कर एक सादी धोती को अपना वस्त्र बना लिया। उनकी यह दिनचर्या कब उन्हें गांधी से महात्मा की तरफ ले गई, उन्हें खुद भी स्मरण नहीं होगा। हां, जब पहली बार कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें महात्मा कहकर पुकारा तब लोगों को लगा कि हां, ये तो महात्मा गांधी हैं।  यह भी क्या कम हैरानी की बात नहीं है कि जिस गांधी का जन्म भारत में हुआ हो और वही गांधी भारत के बारे में नहीं जानता हो लेकिन जब जानना शुरू किया तो पूरे भारत की खाक छान ली। गांधीजी पहली दफा चम्पारण के प्रवास पर पहुंचे। यहां नील खेती के लिए चल रहे आंदोलन में हिस्सेदारी की। यहां आकर उन्होंने भारत भूमि को जाना और तभी उन्होंने कहा था कि- ‘भारत भाव भूमि है, उपयोग करने की नहीं।’ इसके बाद उनका मन पलटा और वे उन अनगिनत भारतीयों में खुद को समाहित कर लिया जिनके लिए उन्हें जीना था।  इतिहास गवाह है कि बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी से महात्मा बनने तक की सारी प्रक्रिया में उन्होंने हर उस बात को पहले अपने ऊपर आजमाया जिसको वे बदलना चाहते थे। उन्होंने किसी से नहीं कहा कि वे उसी तरह की जिंदगी जियें, जैसा वे स्वयं चाहते थे। इतना जरूर है कि वे उन बुराईयों के बारे में लोगों को जागरूक करते रहे। वे लोगों को नशे के खिलाफ जागरूक करते रहे। नशे से होने वाले दुष्परिणामों के बारे में बताते रहे। उन्होंने भारतीय समाज की जीवनशैली में आमूलचूल परिवर्तन की बात कही। वे दूसरों से स्वच्छता की उम्मीद करने से पहले स्वयं स्वच्छता के पक्षधर रहे। पैखाना साफ करने में भी वे पीछे नहीं हटे। सत्य के प्रति उनका आरंभ से अनुराग रहा। वे कहते थे कि हम मनुष्य हैं तो गलतियां होंगी लेकिन गलतियों को मानना और उन्हें सुधारना हमें आना चाहिए। अपनी किताब ‘सत्य के प्रयोग’ में उन्होंने अपने अनुभवों को बेबाकी से लिखा है। गांधीजी की जीवनशैली एवं उनके आचरण से प्रभावति होकर लोग उनका अनुसरण करने लगे। यह अपने आपमें परिघटना है। भारतीय इतिहास में गांधीजी के अलावा कई अन्य महापुरुष हुए। सबने समाज को दृष्टि दी लेकिन वे भी गांधीजी से प्रभावित रहे। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में गांधीजी की भूमिका को अविस्मरणीय है। हालांकि आज उनके जन्म के डेढ सौ वर्ष पर जब उनकी मीमांसा करते हैं तो लगता है कि गांधीजी ने अनेक गलतियां की हैं। अब इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि जिन्हें हम गलतियां कह रहे हैं, वास्तव में वह गलतियां थी या  उस समय की आवश्यकता थी। हमारे बीच महात्मा गांधी नहीं हैं। वे होते तो निश्चिय ही हमारे संदेह का निराकरण करते। उन पर एक आरोप हमेशा से लगता रहा है कि वे चाहते तो भगतसिंह को फांसी के फंदे से बचा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया या कि किसी समय में वे आंदोलन को स्थगित कर दिया। यह बात गलत है, यह कहना भी अनुचित होगा लेकिन जस का तस इस बात को मान लेने की भी कोई अनिवार्यता नहीं दिखती है। समय, काल और परिस्थितियों के मद्देनजर कई बार, कई निर्णय ऐसे होते हैं जिनका दूरगामी परिणाम हमें नहीं दिखता है लेकिन उनके परिणाम हम सबको प्रभावित करते हैं।  थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि अब समय आ गया है कि हम गांधी को खारिज कर दें। गांधी अब हमारे फ्रेम में फीट नहीं बैठ रहे हैं। हमारी वर्तमान परिस्थितियों में गांधी अप्रासंगिक हैं तो फिर हम समय-समय पर उन्हें सामने रखकर क्यों आगे बढऩे की चेष्टा करते हैं? क्यों हमें सत्य और अहिंसा की लड़ाई में गांधी मार्ग का सहारा लेना होता है? क्यों हम अछूतोद्धार के लिए गांधी के बताये रास्ते पर चलने को मजबूर हैं? क्यों हम गांधी के स्वच्छता को श्रेष्ठ मानते हैं? क्यों हमें लगता है कि कुटीर और लघु उद्योग के लिए गांधी का बताया रास्ता इसलिए मुकम्मल है कि हम बेरोजगारी को दूर कर सकते हैं? महिला सम्मान के प्रति गांधी की सोच को हम क्यों खारिज नहीं कर देते हैं? मांसाहार को लेकर गांधी की विरक्ति से हम क्यों खुद को जोड़ लेते हैं? ऐसे अनेक प्रश्र है जो गांधी को खारिज करने से हमें रोकते हैं। हमें इस बात के लिए प्रयत्न करना होता है कि गांधी को समक्ष रखकर देश को यह बताना है, भारतीय युवा वर्ग को इस बात की सीख देनी है कि एक धोती के सहारे भी जीवन में बड़ी उपलब्धि हासिल की जा सकती है। उन्हें हम आदर्श मानने से इंकार नहीं कर सकते हैं।  गांधी को मानने या खारिज करने के लिए सबके अपने तर्क और असहमतियां हैं। हमने पढऩा छोड़ दिया है। हमने संवाद करना छोड़ दिया है। हम तर्क की बुनियाद को छोडक़र स्वयं के द्वारा गढ़े गए असहमतियों को ही श्रेष्ठ बताकर गांधी को खारिज करने का झूठा उपक्रम कर रहे हैं। एक बार हम सबको गांधी की तरफ लौटना होगा। गांधी साहित्य को पढऩा पड़ेगा। उन पर बहस का लम्बा सिलसिला चलेगा क्योंकि ऐसा नहीं किया गया तो हम इतिहास को बदरंग कर देंगे। इस बात का अहसास भी हमें होना चाहिए कि जिस गांधी के नाम पर संयुक्त राष्ट्र्रसंघ अग्रज की भूमिका में है तो हम उन्हें कैसे और किस आधार पर खारिज करने का मन बना रहे हैं। यह भी तय हो जाना चाहिए कि हम अपने द्वारा गढ़े गए नीति को ही श्रेष्ठता के पैमाने पर नापेंगे लेकिन गांधी उस श्रेष्ठता के आसपास भी नहीं होंगे। हम गांधी की चर्चा किए बिना अपनी नीति और नियम लागू करेंगे। क्या ऐसा संभव है कि गांधी के बिना भारत और भारत के बिना गांधी की कल्पना की जा सके?{लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं }

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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