गांधी, लोहिया के रास्ते चला नेपाली माओवाद : गौतम चौधरी

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nepal-maoएक बार फिर नेपाली माओवादियों ने नेपाल को अस्थिर करने की योजना बनाई है। सुना है इस बार चरमपथीं आन्दोलन का नेतृत्व बाबूराम भट्टराई कर रहे हैं। हालांकि माओवादी आन्दोलन की रूप रेखा लोकतंत्रात्मक ही दिखाया जा रहा लेकिन माओवादी इतिहास को देखकर सहज अनुमान लेगाया जा सकात है कि आन्दोलन की दिशा हिंसक होगी। इस बार के आन्दोलन में माओवादी चरमपंथियों ने दो मिथकों को तोडा है। यह पहली बार हो रहा है जब माओवादी आन्दोलन का नेतृत्व पुष्पकमल दहाल (प्रचंड) नहीं कर रहे हैं। इसके पीछे का कारण क्या है और पुष्पकमल की आगामी योजना क्या है यह तो मिमांशा का विषय है लेकिन इस बार के माओवादी घेरेबंदी से साफ जाहिर होता है कि नेपाल के माओवादी गिरोह में पुष्पकमल की ताकत घटी है। माओवादियों ने इस बार बुलेट के स्थान पर जन समर्थन और गांधीवादी रवैया अपनाने की योजना बनाई है। नेपाल में यह भी माओवाद का एक प्रयोग ही माना जाना चाहिए। इसलिए एक तरह से देखा जाये तो नेपाल का माओवाद अब एक नई धारा पर काम करना प्रारंभ कर दिया है। हालांकि इस विषय पर तुरत मन्तव्य देना जल्दबाजी होगी, क्योंकि माओवादी अतीत के जानने वाले माओवाद के इस नवीन संस्करण पर भरोसा नहीं करते। वैसे नेपाल का माओवादी संगठन लगातार भट्टराई के नेतृत्व में कुछ इसी प्रकार का करने की योजना बनाता रहा है लेकिन चीनी दबाव और ईसाई मिशनरियों के कारण नेपाल का माओवाद नवीन संस्करण में अभी तक नहीं ल पाया। भट्टराइवाद कितना प्रभावी होगा और कब तक प्रचंड चुप बैठेंगे यह तो समय बताएगा लेकिन जो प्रयोग नेपाल के घुर वामपंथी कर रहे हैं उससे कुछ सकारात्मक होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकात है।

विगत दिनों नेपाल के राष्ट्रपति डॉ0 रामबदन यादव की सूझबूझ के कारण नेपाल की राजनीति पर प्रचंडवादी या इसे चीनी अधिनायकवाद भी कहा जा सकता है हावी नहीं हो सका। लाख चाहने के बाद भी माओवादी सरकार सेना प्रमुख को हटाने में कामयाब नहीं हो पाये और नेपाल, अधिनायकवादी चरम साम्यवादी चुगुल से मुक्ति पाने में सफलता हासिल कर ली। इसके पीछे नेपाल की जनता की सकि्रयता और नेपाली समाज में सांस्कृति संवेदना की महत्वपूर्ण भूमिका को माना जाना चाहिए। आखिर नेपाल की जनता ने प्रचंडवादी चरमपंथ को क्यों नहीं स्वीकारा, इसकी मिमांश से स्पष्ट हो जाता है कि प्रचंडवादी चरमवाद नेपाल की नियती नहीं है। आज चीन में भी इस प्रकार के चरमपंथ का विरोध हो रहा है और चीन ने तो डेग के समय से ही पूंजी के केन्द्रीकरण की छूट दे दी थी। आज चीन में साम्यवाद नहीं अपितु पूंजवादी साम्यवाद है। चीन के साम्यवाद को परिभाषित करने के लिए इतना कहना ठीक होगा कि चीन में अन्य जातियों के लिए साम्यवाद है लेकिन हानों के लिए चीन में पूंजीवाद है।

नेपाल में जब प्रचंड ने सत्ता सम्हाला तो दो प्रकार का अन्तरविरोध सामने आया। नेपाल की बहुसंख्यक जनता ने यह सोचना प्रारंभ कर दिया कि अब नेपाल निरीश्वरवादी हो जाएगा। यहां भी मठमंदिरों पर पर साम्यवादी सेना आक्रमण करेगी और सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर नेपाली सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का गला घोट दिया जाएगा। देखते देखते नेपाल चीनी रंग में रंग जाएगा और नेपाल की स्थिति या तो उत्तर कोरिया जैसी होगी या फिर तिब्बत की तरह नेपाल चीन का गुलाम हो जाएगा। दुसरे प्रकार के जो लोग जिन्होंने प्रचंड के सत्तारोहन में प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका निभाई थी उन्होंने यह मान लिया कि अब नेपाल भी देखते देखते परिवर्तित हो जाएगा। यहां परिवर्तन की हवा वहने लगेगी। यहा विकास का नया कीर्तिमान स्थापित होगा। नेपाल अपने पुराने वैभव में लौटेगा। यहां की गरीबी समाप्त हो जाएगी। यहां के लोगों को छोटे मोटे काम के लिए भारत नहीं जाना पडेगा। लेकिन इन दोनों प्रकार के चिंतन करने वाली नेपाली जनता को प्रचंड ने निराश कर दिया। प्रचंड नेपाल में चीनी नीति पर काम करने लगे। उन्होंने नेपाली राजनीति को अपने पक्ष में करने के लिए मलाइदार पदों पर अपने संबंधियों को बैठाने का प्रयास किया। नेपाल की दसा बिगडने लगी, नेपाल की आर्थिक स्थि्ति खडाब होने लगी। यही नहीं प्रचंडपंथियों के आर्थिक शोषण से नेपाली जनता त्रस्त होने लगी। कई प्रकार के आर्थिक व्यभिचार का आरोप प्रचंड के उपर लगा। इन तमाम गतिरोधों का सामना करने और माओवादी गिरोह के गुरिल्लों को अपने पक्ष में करने के लिए प्रचंड ने कई चाल चली लेकिन सब में असफल होते गये। तब प्रचंडपंथियों ने चीन तथा ईसाई मिशनरियों के इसारे पर एक नयी चाल चली और बाबा पशुपत्तिनाथ मंदिर पर आक्रमण कर दिया। यहां भी प्रचंड को मुह की खानी पडी। अब प्रचंड सेना पर माआवादी गुरिल्ला गिरोह को समायोजित करने का दबाव डालने लगा। इसपर सेना ने अपनी संरचना में छेडछाड से साफ इन्कार कर दिया। तब प्रचंड ने बिना किसी संवैधानिक कारण के सेना प्रमुख को हटाने की घोषणा कर दी। अब सर से उपर पानी बहता देख देश के सर्वोच्च नेता राष्ट्रपति डॉ0 यादव ने हस्तकक्षेप किया और प्रधानमंत्री प्रचंड की इस घोषणा को गैरसंवैधानिक बताया। अबतक इस बात का पता प्रचंड को भी हो गया था कि नेपाल में चीनी शासन बरदास्त नहीं किया जा सकता।

अब नेपाली माओवादी चरंपंथी गिरोह को यह आभास हो गया है कि महज मुट्ठीभर लुटेरों और सिरफिरे हुडदंगियों से सत्ता पर कब्जा तो जमाया जा सकता है लेकिन सत्ता का सही ंग से संचालन तथा देश की स्थिरता जनता की स्वीकृति के बाद ही संभव है। वर्तमान आन्दोलन से यह लग रहा है कि नेपाल का माओवाद एक नया स्वरूप ग्रहण कर रहा है। हालांकि यह नेपाली माओवाद के पीछे काम करने वाली शक्ति की साजिस भी हो सकती है लेकिन प्रचंडपथ का कमजोर होना और भट्टराइपथ की मजबूती इस बात का सबूत है कि नेपाली माओवादी गिरोह को अब यह एहसास हो गया है कि गिरोहबंदी से काम चलने वाली नहीं है। खैर नेपाल का माओवाद यदि भारतीय ाचां ग्रहण किया और नेपाल में भट्टराइवाद सफल रहा तो यह केवल नेपाल के लिए ही नहीं अपितु पूरे दक्षिण एशिया के लिए शुभ होगा। नेपाली माओवाद में लोहिया और गांधी का समावेश सचमुच नेपाल ही नहीं भारत के लिए शुभ संकेत है। इस परिवर्तन की आहट को भारतीय माओवादियों को भी समझना चाहिए। साथ ही यह मान लेना चाहिए कि विदेशी पैसे से चलाया जा रहा आन्दोलन कभी सफल नहीं हो सकता है। अभीतक भारत और नेपाल का माओवाद चीन और ईसाई मिशनरियों के इशारे पर चल रहा है। बाबूराम भट्टराई ने माओवादियों को रास्ता दिखाया है। नेपाल या भारत में माओवादियों को जनकल्याण के लिए कुछ करना है तो अपनी योजना में लोहिया,गांधी दीनदयाल को भी शमिल करना होगा।

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