गांधीजी और ग्राम स्वराज्य के मायने

नीरेन कुमार उपाध्याय

images (3)भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों में बहुत से वीरों ने अपने प्राणों की आहुति देकर देश को यह सोचकर स्वतंत्र कराया था कि आने वाली पीढ़ी इस देश को विश्वगुरू पद तक अवश्य ले जायेगी। जेल के भीतर अमानवीय यातनाओं को झेलने वाले लाखों क्रांतिकारियों ने एक स्वप्न देखा था – स्वतंत्र और समर्थ भारत का। किसी ने भी यह नहीं सोचा था, कि आज वे जिस भारत को स्वतंत्र कराने की बात कर रहे हैं, कल का सूरज उगने के बाद से ही वह टुकड़ों में बंट जायेगा। जो हमारी साझी संस्कृति व विरासतों को संजोने की बात कर रहे है, कल वे ही नदी के दो किनारों की तरह कभी न मिलने का दंभ भरेंगे। ग्राम स्वराज, स्वरोजगार, छुआ-छूत विहीन भारत, अखंड भारत, औद्योगीकरण, एक देश एक विधान और एक पताका आदि अनेकों ऐसे स्वप्न थे जो न केवल गांधीजी ने बल्कि सरदार पटेल, सुभाष बोस, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पं0 नेहरू, सावरकर, आजाद, भगत सिंह जैसे अनेकों स्वातंत्रय वीरों ने स्वतंत्र भारत के भविष्य को सुदृढ़ और अखंड स्वरूप के निर्धारण के लिए देखे थे। आजादी की सुगंध अभी पूरी तरह से मिल भी न पायी थी, कि भारत की एकता-अखंडता के स्वप्न टूट गए। टुकड़ों में मिली आजादी से भयंकर दुर्गंध उठने लगी। जिन्हें कल तक हम अपना भाई समझते थे उन्होंने घर को बांटने में कोई कसर न छोड़ी। विवशता की श्रेणी तक झुकने वाले नेतृत्व ने खुली आंख से टूटते सपने का दृश्य देखा। सपने टूटने का यह जो क्रम शुरू हुआ वो आज तक लगातार टूटता ही जा रहा है। निस्संदेह 1947 के बाद से आज तक भारत विकासशील देश की श्रेणी से ऊपर उठकर विकसीत देशों की श्रेणी में शामिल होने की ओर अग्रसर है। किंतु, आज गांव, गरीब, गाय, गंगा, गीता, किसान, खेत-खलिहान, चैपाल, समुदाय, शिक्षा, संस्कार, संस्कृति आदि सब उपेक्षित है। महात्मा गांधी ने जिस ग्राम्य स्वराज्य की बात की वो आज घोर उपेक्षा का शिकार हैं। आजादी के बाद दो भूले भाई फिर मिलेंगे की उनकी अंतिम इच्छा धूमिल हो चुकी है। हिन्दू-मुसलमान को भारत माता की दो आंखें बताने वाले गांधी को शायद इसका आभास भी नही रहा होगा कि एक आंख दिशा भ्रमित हो जायेगी। गाय, गंगा और गीता देश के लिए सांप्रदायिकता की बातों में शामिल हो चुकी है। जातिवाद, भाषावाद, भ्रष्टाचार चरम पर है। गांधीजी ने जिस भारत की कल्पना की थी, जिस भारत का सपना देखा था उनकी हत्या के साथ ही रात के टूटे सपने की तरह वह समाप्त हो गए। किंतु कभी हार न मानने वाले महात्मा की इच्छा एक दिन अवश्य पूरी होगी। क्या इसका प्रयास गांधीगीरी करने वाले या गांधी के पथ पर चलने वाले अपने कंधों पर जिम्मेदारी लेकर कर सकेंगे।

अफ्रीका से बैरिस्टरी पढ़ने के बाद भारत लौटे मोहनदास करमचंद गांधी का मन भी हजारों स्वतंत्रता सेनानियों की तरह गुलाम भारत की दुर्दशा देख कर तड़प उठा। 1916 से राजनीतिक आंदोलनों में भाग लेना शुरू कर गांधी जी ने एक काम और किया, और वह था – भारतीय समाज का मानसिक अध्ययन। अंग्रेज शासक किसानों, मजदूरों, तथा स्वतंत्रता आंदोलनकारियों का उत्पीड़न कर रहे थे। भारत की सीधी-साधी जनता अंग्रेजों के जुल्मों को या तो चुपचाप सह ले रही थी। या जैसे को तैसा की कहावत को चरितार्थ करते हुए अंग्रेजी अफसरों को निशाना बना रहे थे। क्रांतिकारियों ने भारत को स्वतंत्र कराने का व्रत ले रखा था। जिसे पूरा करने केे लिए वे हंसते हुए फांसी के फंदे पर झूल जाते थे। गांधीजी सनातनी परंपरा के संवाहक थे। उन्होंने विरोध करने का नया तरीका निकाला- अहिंसक विरोध, असहयोग। जनता पर इसका व्यापक असर देखने को मिला। गांधीजी के नेतृत्व में हुए सभी आंदोलनों में उमड़ी अपार भीड़ गांधीजी की लोकप्रियता को दर्शाते हैं। गांधीजी ने समाज का सूक्ष्मता से अध्ययन किया। छुआ-छूत, ऊंच-नीच, जातिवाद, नशाखोरी, जैसी सामाजिक बुराइयों को जड़ से समाप्त करने की बात गांधी जी ने कई बार अपने भाषणों में कही। स्वयं के जीवन में उन्होंने इसका उदाहरण भी प्रस्तुत किया, जिसका लोगों के मन पर गहरा असर पड़ा। हरिजन नाम देकर गांधीजी ने सभी को समान माना। गांव, गरीब, खेत-खलिहान, सब अंग्रेजी सरकार और उनके पिैट्ठुओं के कब्जे में थे। गांधी आजादी के साथ साथ भावी भारत की रूपरेखा अपने मन में संजोते रहे। जिसे उन्होंने आपसी चर्चा या सार्वजनिक भाषणों में भी व्यक्त किया। स्वावलंबन, ग्राम स्वराज, स्वदेशी, शिक्षा, संस्कृति, कृषि और कानून को भारतीय परिप्रेक्ष्य में और भारत के लोगों के हित में लागू करने की लड़ाई गांधीजी ने अंतिम दम तक लड़ी। चरखा पर सूत कात कर खादी के बने कपड़े पहनने का उनका आहवान गांव-गांव तक पहुंचा। विदेशी वस्त्रों की होली जलाने और खादी पहनने का उनका आग्रह लोगों ने माना। इसके द्वारा गांधीजी ने लोगों में स्वाभिमान और स्वावलंबन की भावना का बीजारोपड़ किया। गांव मजबूत होंगे देश मजबूत होगा, ऐसा चिंतन उनका था। जगह-जगह चरखे पर बापू के द्वारा दिये गये मंत्र की तरह सूत कातने का क्रम एक आंदोलन बन गया। प्रार्थना सभा में श्रघुपति राघव राजा राम …..श् भजन गाना गांधी जी द्वारा लोगों को धर्म, समाज, संस्कृति के साथ समरस करने का अनूठा प्रयास था। आज भी लोग रामधुन गाते हैं। साबरमती आश्रम की स्थापना कर गांधी जी लोगों को क्या संदेश देना चाहते थे ? यह विचारणीय है । उनका स्पष्ट मंतव्य था कि इस देश का आम नागरिेक भी देश के बारे में सोचे। आजादी की बयार जब गांव से उठेगी तभी देश में परिवर्तन आयेगा। आजादी का मतलब केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं होती, बल्कि आर्थिक, वैचारिक, सामाजिक, धार्मिक सभी। गांधी जी के जीवन काल में तो अनेको ऐसे प्रसंग हैं जो कि यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि वे देश और समाज के साथ समरस दिखते हंै। ऐसा कैसे सम्भव हुआ ? नेहरू और गांधी कांग्रेस के दो बड़े नेता हुए। दोनों में वैचारिक मतभेद उनके संस्कारों के कारण जान पड़ता है। बचपन के संस्कार बड़े होने तक अपना प्रभाव रखते हैं। गांधीजी के एक हाथ में गीता होती थी तो दूसरे हाथ से वो गाय की सेवा भी किया करते थे। गांधीजी के सपने भी शुद्ध रूप से भारतीयता से ओत-प्रोत थे। वो विभाजन के विरोध में थे। एक बार उन्होनें कहा था कि विभाजन उनकी लाश पर होगा। किन्तु, नियती को कुछ और ही पसंद था। थक चुके लोगों ने भारत की आजादी की आस छोड़ दी थी। किसी तरह से, किसी भी कीमत पर आजादी लेने की जिद पर अड़े बूढ़े नेतृत्व ने गांधी की उपेक्षा करनी शुरू कर दी। यह गांधी जी के उन विचारों की हत्या थी जो कि गोडसे की गोली से कहीं ज्यादा असर कारक रही।

भारतीय राजनीति में सर्वमान्य नेता गांधी जी थे। स्वतंत्रता के बाद का भारत कैसा हो इस पर उनका चिंतन आज भी प्रासंगिक है। कांग्रेस को राजनीतिक पार्टी के रूप में न रह कर सेवा का काम करने के लिए उन्होेंने कई बार कहा। किन्तु गांधी की एक न चली। भारत की आजादी के बाद के दशकों में गांधी जी के विचारों को लेकर कांग्रेस असहज अनुभव करने लगी। गांधी मात्र सजावट के लिए रह गए। अब न गांधी रहे और न उनके विचारों की आवश्यकता। गांव, गरीब, खेत-खलिहान, तभी याद आतें हैं जबकि चुनाव का वर्ष निकट होता है। गांव भुला दिये गये। फलस्वरूप ग्रामीण संस्कृति समाप्त होती गई। चारो ओर शहरीकरण की हवा चल रही है। विकास और आधुनिकता के नाम पर भारतीय जीवन शैली को परम्परावादी और धकियानूसी कहा जाने लगा। गांव हेय दृष्टि से देखे जाने लगे। या फिर कभी कभार मन बहलाने के लिए फार्म हाउस संस्कृति को महत्व दिया जाने लगा। आज विकास की दौड़ में गांव मीलों पीछे छूट गए है। क्यों ? सड़क, बिजली, पानी, रोजगार, स्वास्थ्य, जैसी मूलभूत चीजों के भी वे हकदार क्यों नहीं हैं ? देश का पेट भरने वाला भूखों मर रहा है, कर्ज, गरीबी, सरकारी उपेक्षा, से तंग आकर आत्म हत्या कर रहा है ? शर्मनाक है। देश के नेता अब ऐसे अवसरों की तलाश में रहते हैं जब कोई ऐसी घटना हो जाये और वे विपक्षी की गद्दी छीन लें। मानवता की बातें अब कुछ रूपयों से तोल ली जाती हैं। किसानों, मजबूरों, दलितों, अगड़ों, पिछड़ों की बातें करने वाले प्रोफेशनल राजनीतिज्ञ हैं। इनका जनता से नाता वोट और सपोर्ट का है। आजादी के 60 वर्षों के बाद भी गांव और किसान दोनों उपेक्षित किए गए। जिनको गांधी देश की आवाज बनाना चाहते थे, उनकी आवाजें ऊंची मीनारों और फैक्ट्रीयों के शोर में कहीं गुम हो गई। गाय, गंगा व गीता को गांधी सनातन संस्कृति की आत्मा मानते थे। आज यह सब साम्प्रदायिकता की बातें हो गई हैं। वोट बैंक की राजनीति ने वैचारिक शून्यता को बढ़ावा दिया। गो हत्या पर आज प्रतिबंध लगाने की बात की जाती है तो मुसलमानों के नाराज हो जाने का डर और चुनाव पर प्रभाव का आंकड़ा भारी पड़ जाता है। देश के बहुसंख्यकों के मान बिंदुओं का अपमान कर किस भारत का निर्माण करना चाहते हैं। तथाकथित सेक्युलर नेता देश हित की बलि पर निज हित को अधिक महत्व देते दिखते है। गांधीजी ने जिस स्वतंत्र भारत का स्वप्न देखा था उसकी याद को अब धूमिल किया जा रहा है। गांधी के सपनों की बातें अब मंचीय भाषणों की शोभा बढ़ाती हैं। उसका कितना क्रियान्वयन होता है यह हम सब के सामने है। विभाजन गांधीजी के जीवित रहते हुआ। उसके पहले अंग्रेजों ने भारत के कई खंड किए। आज भारत की हजारों किमी0 भूमि चीन और पाकिस्तान के कब्जे में है। लाखों बंग्लादेशियों को राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए भारत का नागरिक बनाया गया। आतंकवादियों के प्रति लचीला व्यवहार। तथा धर्मांतरण जैसे मुद्दे पर मौन साध लेना आदि अनेकों ऐसे विषय हैं जिन पर आज की कांग्रेस पार्टी गांधीजी के विचारों से कोसों दूर भटक गई है। गांधी के सपने का भारत आज रक्तरंजित अवस्था में कराह रहा है। गांधी के नाम की रोटी खाने वाले तथाकथित समाजसेवी भी अब गांधी के नाम को एक ब्रांड के रूप में ही उपयोग करते है। गांधी और उनके स्वप्न का क्या होगा, क्या होगा गांधी के ग्राम्य स्वराज का, स्वदेशी, शिक्षा, संस्कृति, धर्म, गौवंश, आदि का। इन सबका संरक्षण और संवर्धन, करने का यत्न अब होगा भी या नहीं यह तो समय ही बतायेगा। निस्सन्देह आज महात्मा गांधी हमारे बीच स्थूल रूप में नहीं हैं। किंतु गांधी के विचार और दर्शन उनकी उपस्थित दर्शाते हैं। गांधी के विचार, उनके स्वप्न भारत के निर्माण को नई दिशा देंगे। आधुनिक प्रौद्योगिकी के साथ-साथ ग्रामीण विकास में सामंजस्य बैठाना होगा।

1 COMMENT

  1. अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन और उससे उत्पन्न आम आदमी पार्टी ने बहुतों को गांधी के विचार धारा के पुनर्वलोकन के लिए प्रेरित किया है. ऐसे तो साठ के दशक में आई हुई पंडित दीन दयाल उपाध्याय की दो पुस्तकें ,१; भारतीय अर्थ नीति,विकास की एक दिशा और २.मानव एकात्म वाद भी इसी और इंगित करती है. गुरु गोलवरकर ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक के आर्थिक विचार धारा के बारे में पूछे जाने पर एक बार कहा कहा था कि इसके बारे में प्रश्न मुझसे नहीं पंडित जी से पूछे जाने चाहिए. तो ऐसे थे,पंडित दीन दयाल उपाध्याय.पर एक प्रश्न जो बार बार उभड़ता है,वह यह है कि पहले कांग्रेस ने और बाद में जनसंघ/बीजेपी ने क्यों नहीं उन मनीषियों का अनुसरण किया.
    महात्मा गाँधी ने दो बातें कही थी.,१.सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए बीस लोग नहीं चला सकते.सत्ता के केंद्र बिंदु दिल्ली,बम्बई और कलकत्ता जैसी राजधानियों में हैं.मैं उसे सात लाख गाँव में बांटना चाहूँगा.
    २.“तुमने सबसे गरीब और सबसे कमजोर जिस व्यक्ति को देखा है, उसका चेहरा याद करो और अपने आप से पूछो कि जो कदम तुम उठाने जा रहे हो क्या उसका उस आदमी के लिए कोई उपयोग है?क्या उससे उस आदमी को कोई लाभ होगा?क्या इससे उसकी जिन्दगी और किस्मत में कोई बदलाव आयेगा?दूसरे शब्दों में ,क्या इससे करोड़ों भूखे और निर्वस्त्र लोगों के लिए स्वराज (अपनी किस्मत तय करने का अधिकार) आयेगा?”
    पंडित जी ने भी अपनी पुस्तक द्वय के माध्यम से यही कुछ बताना चाहा है.अफ़सोस यह यह कि न कांग्रेस महात्मा गाँधी के बताये हुए मार्ग पर चली न जनसंघ और बाद में बीजेपी ने पंडित जी का अनुसरण किया. नानाजी देशमुख ने गावों की उत्थान का बीड़ा उठाया और उन्होंने अपने बल पर बहुत कुछ किया,पर क्या भाजपा ने नीतियों में उनको कोई स्थान दिया?
    आज सकल घरेलू उत्पाद की बात होती है और उसमें क्रमशः वृद्धि भी दिखाई जाती है,पर क्या यह वैसा ही नहीं है,जैसा उस गणितग्य के साथ हुआ था,जिसने नदी की औसत गहराई मापकर अपने पूरे परिवार को नदी पार करने को कहा था और सब डूब गए थे. जहाँ देश के सकल घरेलु उत्पाद का चौथाई हिस्सा १०० घरानों के पास हो ,वहां आम आदमी की क्या हालत होगी यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. इसके लिए आज दोषी किसको माना जाए? कांग्रेस को भाजपा को या उस सम्पूर्ण भ्रष्ट व्यवस्था को, जिसमे तंत्र लोक से अलग हो गया है? गांघी जी ने ग्राम सभाओंके माध्यम से ग्राम स्वराज की कल्पना की थी अगर उसी को आगे बढाया जाए तो शहरों में मुहल्ला सभा की बात आ जाती है. मेरे विचार से तो पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने भी कुछ इसी तरह की परिकल्पना की थी. क्या कोई बता सकता है कि इसको आगे क्यों नहीं बढ़ाया गया ? क्या उम्मीद करनी चाहिए कि अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के गर्भ से निकली पार्टी ,जो दिन रात स्वराज (अरविन्द केजरीवाल की पुस्तक) की कसमे खाती है ,उन दो मनीषियों के विचातों के अनुसार चलेगी? क्यों की स्वराज में वर्णित सिद्धांत उन दो महा पुरुषों के बताये हुए मार्ग से तनिक भी हट कर नहीं है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here