विचारों की सान पर गांधी का मूल्यांकन

सिद्धार्थ मिश्र‘स्वतंत्र’

सुबह सवेरे एक गीत ने ‘साथी मुबारक तुम्हे हो जश्न ये जीत का,पर इतना याद रहे एक साथी और भी था’ ने मुझे राम प्रसाद बिस्मिल की ये पंक्तियां याद दिला दी । शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा । सोचता हूं किस आस से लिखी होंगी ये पंक्तियां और कितने बेगैरत निकले हम ? विचारों के इस क्रम मेरी लेखनी से कुछ पंक्तियां फूट पड़ी,ध्यातव्य हो ‘बस्तियों से दूर उजड़ा सा मकां होगा,वतन पे मरने वालों का नहीं बाकी निशां होगा’ । कुछ लोगों को शायद मेरी ये सोच गलत लगे या लोग मुझे सिरे से खारिज कर दें । आपके मानने न मानने से कोई फर्क नहीं पड़ता हकीकत यही है और देर सवेर आपको ये बात स्वीकार करनी ही पड़ेगी । आज सुबह सवेरे लगभग सारे समाचार पत्र गांधी बाबा के जन्म दिवस की सूचना दे रहे थे । खैर इस सूचना के समाचार पत्रों में प्रकाशित होने या न होने का कोई फर्क नहीं पड़ता,क्योंकि दो अक्टूबर या 14 नवंबर के बारे में एक बच्चे को भी पता होता है । वजह है इन दिनों पर होने वाला राजकीय अवकाश । इन दिनों पर प्रायः हर स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयेाजन भी होता है । इन कार्यक्रमों के माध्यम से देश के भावी कर्णधारों को गांधी बाबा के महान त्याग एवं तपस्या से परिचित कराया जाता है । इन छोटे आयोजनों का वैसे तो विशेष महत्व नहीं होता लेकिन फिर भी बाल मस्तिष्क में गांधी वादी सिद्धांत के बीज पड़ जाते हैं । परिणामस्वरूप गांधी बाबा की मौत के 60 से अधिक वर्षों के बाद भी उनकी प्रासंगिकता बनी हुई है ।

देश के इस दोहरे मापदंड को देखते हुए कई बार मैं ये सोचने को विवश हो जाता हूं क्या हमें प्रायोजित इतिहास पढ़ाया जा रहा है? क्या वाकई हमारा इतिहास ऐसा ही होना चाहिए ? यहां शब्दों पर ध्यान देने की बात है प्रायोजित इतिहास, इस शब्द का सीधा सा अर्थ कुछ लोगों द्वारा अपने परिवारों के महीमामंडन के उद्देश्य से लिखाया गया इतिहास । जी हां बिल्कुल ऐसा ही हुआ है,अन्यथा देश में आज भी गांधी नेहरू परिवार का वर्चस्व क्या प्रमाणित करता है? इस इतिहास में देश के अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले क्रांतिकारियों को हाशिये पर ढ़केला गया है । अगर ऐसा नहीं है तो क्यों नहीं मनाया जाता भगत,आजाद,बिस्मिल का जन्म दिवस ? कारण स्पष्ट है ऐसा करने से निश्चित तौर पर इन क्रांतिकारियों के विचारों को पुष्पित पल्लिवित होने का अवसर मिलेगा । स्मरण रहे कि गांधी दिवस से कुछ ही दिनों पूर्व ही 27 सितंबर को भगत सिंह का जन्म दिन था । यहां मेरा प्रश्न है व्यवस्था के ठेकेदारों से,क्यों नहीं मनाया जाता भगत का जन्म दिवस ? क्या उनका त्याग और बलिदान गांधी की तुलना में कम था ? अगर नहीं है तो आजाद भारत में क्रांतिकारियों की वैचारिक हत्या क्यों हो रही है ? इतिहासकारों का ये प्रायोजित इतिहास जहां सिर्फ एक पक्ष को बढ़ावा दिया गया ये देशद्रोह नहीं है? विचार करिये ,जहां तक वैश्विक इतिहास का प्रश्न है जो लिपिबद्ध है तो क्रांति की देवी को रक्त से अभिसिंचित किया जाता रहा है ? पढि़ये विश्व के अन्य देशों का इतिहास । जैसा कि गांधी बाबा ने एक संबोधन में राह से भटके हुए युवा कहा था,क्या सही है? जहां तक अहिंसा का प्रश्न है तो भगत सिंह गांधी की तुलना में कहीं ज्यादा अहिंसक थे । इसके एक नहीं अनेकों प्रमाण मिल जाएंगे । सूक्ष्मता से विश्लेषण करें तो वो निश्चित तौर पर गांधी से प्रखर विचारक थे । अहिंसा और ब्रह्म्चर्य के प्रयोगों से देश को आजादी दिलाने का दम भरने वाले गांधी बाबा जिन दिनों जेल में खाने की गुणवत्ता को लेकर अनशन कर रहे थे,उन दिनों जेल की कोठरी में बंद भगत सिंह अपने जीवन की आखिरी सांसे गिन रहे थे । क्या दुर्भाग्य था इस देश का जिन दिनों भारत का बुढ़ापा जेल में अच्छा भोजन न पाने की लड़ाई लड़ रहा था ठीक उन्ही दिनों भारत का युवा फांसी के फंदे को चूम रहा था । कई इतिहासकारों का ये मानना है कि अगर गंाधी चाहते तो भगत सिंह की फांसी को टाला जा सकता था,लेकिन उन्होने भगत की कीमत पर अपना वर्चस्व बनाये रखने को ठीक समझा । ये और बात है कि बावजूद इसके भगत सिंह उनका सम्मान करते थे । फिर भी अपने और अन्य क्रांतिकारियों के लिए कांग्रेसियों के मन में व्याप्त पूर्वाग्रह से कहीं न कहीं उन्हे ठेस जरूर लगी थी । इस बात को प्रमाणित करती कुछ पंक्तियां ध्यातव्य हों.

‘यह कोई अच्छी बात नहीं हमारे आदर्शों पर कीचड़ उछाला जाता है । आजकल ये फैशन सा हो गया है अहिंसा के बारे अंधाधंुध और निरर्थक बातें की जाएं । महात्मा गांधाी महान हैं और हम उनके सम्मान पर कोई आंच नहीं लाने देना चाहते,लेकिन हम दृढ़ता से ये कहते है कि हम देश को स्वतंत्र कराने का ये ढ़ंग पूर्णतया नामंजूर करते हैं । हमारे लिए महात्मा असंभावनाओं के दार्शनिक हैं । अहिंसा भले ही एक नेक आदर्श है लेकिन इस रास्ते से हम आजादी कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते । हम पूछते हैं कि जब दुनिया का वातावरण हिंसा और गरीब की लूट से भरा हुआ है,तब देश को अहिंसा के रास्ते पर चलाने का क्या तुक है? हम पूरे जोर के साथ ये कहते हैं कि कौम के नौजवान कच्ची नींद के ऐसे सपनों से रिझाये नहीं जा सकते ।’

उपरोक्त वक्तव्य को अगर पढ़े ंतो ये निश्चित तौर पर प्रमाणित हो जाता है कि भगत सिंह के मन में गांधी के प्रति कहीं भी कोई दुराव नहीं था । रास्तों में अंतर होने के बावजूद वो गांधी के देश प्रेम का पूरा सम्मान करते थे । जहां तक गांधी का प्रश्न है तो उनका बर्ताव इसके ठीक उलट था। इसकी बानगी एक नहीं अनेकों बार देखने को मिली है । चाहे भगत सिंह कि फांसी का गंभीर विषय रहा हो या नेताजी के हाथों उनके समर्थित प्रत्याशी पट्टारामाभैया की पराजय का प्रश्न रहा हो,उन्होने विरोधी विचारों का कू्रर दमन किया है । जहां तक प्रश्न अहिंसा का था तो किस अहिंसा के पक्षधर थे गांधी, ऐसी अहिंसा जहां निर्दोष जनता ण् का अंग्रेजों द्वारा बर्बरता पूर्वक दमन कर दिया गया । हिन्दुस्तानी आवाम की मौत हुई तो अहिंसा अगर एक अंग्रेज मारा गया तो आतंकवाद । ये कौन सा मापदंड देशप्रेम को आंकने का ।

गांधी की अहिंसा को याद करता हूं तो बहुत से प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं । ध्यान देने वाली बात है कि जिस अहिंसक आंदोलन के नाम पर लाला लाजपत राय को लाठियों से पीट कर मार डाला गया वैसा गलती से भी महात्मा जी के साथ क्यों नहीं हुआ । क्या वो अंग्रेजों के एजेंट थे ? सोचिये प्रश्न ऐसे भी हो सकते हैं । जहां तक चरीत्र का प्रश्न है तो निश्चित तौर पर ये युवा का्रंतिकारी तथाकथित महात्मा से मीलों आगे थे । एक ओर जहां महात्मा जी को बुढ़ापे में ब्रह्मचर्य परीक्षण की आवश्यकता पड़ती थी तो दूसरी ओर थे ये निष्काम युवा जिन्होने अपना यौवन क्रांति की बलीवेदी पर चढ़ा दिया । वास्तव में अगर सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करना है तो हमें दोनों पक्षों की आवश्यकता होगी न कि सिर्फ एक प्रायोजित पक्ष की । अंततः

जब तलक जिंदा कलम है कम तुम्हे मरने ना देंगे ।

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