गांधी का पुनर्जन्म हो

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महात्मा गांधी पुण्यतिथि- 30 जनवरी

– ललित गर्ग –
महात्मा गांधी बीसवीं शताब्दी में दुनिया के सबसे सशक्त, बड़े एवं प्रभावी नेता के रूप में उभरे, वे बापू एवं राष्ट्रपिता के रूप में लोकप्रिय हुए, वे पूरी दुनिया में अहिंसा, शांति, करूणा, सत्य, ईमानदारी एवं साम्प्रदायिक सौहार्द के सफल प्रयोक्ता के रूप में याद किये जाते हैं। वे एक रचनात्मक व्यक्तित्व थे जिन्होंने अपने ही मूल्यों के बल पर देश को आजादी दिलाई, नैतिक एवं स्वस्थ मूल्यों को स्थापित किया। उनके द्वारा निरुपित सिद्धान्त आज की दुनिया की चुनौतियों एवं समस्याओं के समाधान के सबसे सशक्त माध्यम है। लेकिन वक्त की विडम्बना देखिये कि गांधी को हम बार-बार कटघरे में खड़ा करतेे हैं और उनकी छवि को धुंधलाने की कोशिश में कोई कमी नहीं छोड़ते। जो मानसिकता गोली मार सकती है, वह गाली दे तो क्या आश्चर्य? पर महात्मा गांधी भारत के अकेले ऐसे महापुरुष हैं जिन्हंे कोई गोली या गाली नहीं मार सकती।
गांधी के निर्वाण दिवस पर उनकी पावन स्मृति के साथ-साथ जरूरी है कि हम उन्हें पुनर्जीवित करें। क्योंकि गांधी का पुनर्जन्म ही समस्याओं के धुंधलकों से हमें बाहर कर सकता है। क्योंकि गांधी के सिद्धान्तों एवं उनके जीवन दर्शन में यह सामथ्र्य है। ऐसा इसलिये है कि गांधी की राजनीति व धर्म का आधार सत्ता नहीं, सेवा था। जनता को भयमुक्त व वास्तविक आजादी दिलाना उनका लक्ष्य था। वे सम्पूर्ण मानवता की अमर धरोहर हैं। दलितों के उद्धार और उनकी प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया था। उनके जीवन की विशेषता कथनी और करनी में अंतर नहीं होना था। ये आज के ”नव मनु“ बड़ी लकीर नहीं खींच सकते। वे दूसरी को काटकर झूठी हुंकार भरते हैं। पिछले कई दिनों से हमारे नेता उनके राष्ट्रपिता होने के औचित्य पर सवाल उठा रहे हैं। कुछ उनके जीवन दर्शन व उनकी कार्य-पद्धतियांे पर कीचड़ उछाल रहे हैं और उन्हें गालियां देकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। कभी कोई कहता हैं कि गांधी को राष्ट्रपिता नहीं कहा जाना चाहिए। राष्ट्र का कोई पिता नहीं हो सकता। कभी कोई कहता है कि दलितों को गांधीजी ने हरिजन कहकर अन्याय किया है। वे दलितों के दुश्मन थे। उन्होंने अपने आपको हरिजन क्यों नहीं कहा?
जबकि ऐसा कहने वाले नहीं जानते कि गांधीजी अपने आपको शूद्र और हरिजन ही नहीं भंगी कहने में भी गौरव करते थे। इस तरह के भ्रामक कथन कहने वाले तथाकथित राजनेता राजनीति कर सकते हैं और उसके लिए वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। उनका लक्ष्य ”वोट“ है। सस्ती लोकप्रियता है। कभी ठाकरे ने भी गांधी पर आरोप लगाया कि उन्होंने अहिंसा की नीति चलाकर हिन्दुओं को नपंुसक बनाने का कार्य किया हैं। इस मायने में तो बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर, मीरा ने अहिंसा, दया, शांति, करुणा का उपदेश दिया, वे सभी वर्ग-विशेष के अहितकारी हुए? गांधी किसी राजनेता के प्रमाणपत्र का मोहताज नहीं है।
गांधी को कितने सालों से कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। जीते जी और मरने के बाद गांधी ने कम गालियां नहीं खाईं। गोडसे ने गोली से उनके शरीर को मारा पर आज तो उनके विचारों को बार-बार मारा जा रहा है। महात्मा के शिष्यों ने, संत के अनुयायियों ने और गांधी की पार्टी वालों ने उनको बार-बार बेचा है, उनसे कमाया है, उनके नाम से वोट मांगे हैं, सत्ता प्राप्त की है, सुबह-शाम धोखा दिया है और उनकी चादर से अपने दाग छिपाये हैं। यह एक निरन्तर चलने वाला त्रासद क्रम है, अंतिम नहीं है। यह चलता रहेगा। चलना चाहिए भी? कभी-कभी प्रशंसा नहीं गालियां गांधी को ज्यादा पूजनीय बनाती हैं। आज के माहौल में जैसे बद्धिमानी एक ”वैल्यू“ है, वैसे बेवकूफी भी एक ”वैल्यू“ है और मूल्यहीनता के दौर में यह मूल्य काफी प्रचलित है। आज के माहौल में यह ”वैल्यू“ ज्यादा फायदेमंद है। लेकिन अपने फायदे के लिये किसी सिद्धान्त या व्यक्ति कीे बार-बार हत्या का सिलसिला बन्द होना चाहिए।
सचमुच आज विश्व को गाँधीजी के जीवन-मूल्यों की ज्यादा आवश्यकता है । आज धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है। कुछ लोग जेहाद के नाम पर घृणित कृत्यों को अंजाम दे रहे हैं। कहीं दंगे हो रहे हैं तो कहीं महिलाओं और बच्चों के साथ अत्याचार की घटनाएँ हो रही हैं। धर्म और संप्रदाय के नाम पर समाज में विष घोला जा रहा है। दुनिया में शस्त्रों की होड़ चल रही है। आतंकवाद जीवन का अनिवार्य सत्य बन गया है। ऐसे में गाँधी बहुत याद आते हैं। इनके विचारों को फैलाकर ही दुनिया में शांति लाई जा सकती है।
आमतौर पर जन्मदिन या निर्वाण दिवस के दिन आस्था के फूल अर्पित करने की परंपरा है। इस दिन कड़वी बातों को कहने का रिवाज नहीं है। यदि इस रिवाज को तोड़ा जा रहा है, तो मजबूरी के दबाव को समझे जाने की आवश्यकता है। यह देश और उनकी जागरूक जनता नेताओं को महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर कीचड़ उछालने की अनुमति कैसे दे रही है, क्यों दे रही है? यह कैसी सहिष्णुता है जो राष्ट्र की बुनियादी विचारधारा को मटियामेट करने पर आमादा है?
कहते हैं कि जो राष्ट्र अपने चरित्र की रक्षा करने में सक्षम नहीं है, उसकी रक्षा कोई नहीं कर सकता है। क्या परमाणु बम भारतीयता की रक्षा कर पाएगा? दरअसल, यह भुला दिया गया है कि पहले विश्वास बनता है, फिर श्रद्धा कायम होती है। किसी ने अपनी जय-जयकार करवाने के लिए क्रम उलट दिया और उल्टी परंपरा बन गई। अब विश्वास हो या नहीं हो, श्रद्धा का प्रदर्शन जोर-शोर से किया जाता है। गांधीजी भी श्रद्धा के इसी प्रदर्शन के शिकार हुए हैं। उनके सिद्धांतों में किसी को विश्वास रहा है या नहीं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। जयंती और पुण्यतिथि पर उनकी कसमें खाकर वाहवाही जरूर लूटी जा रही है। गांधीजी के विचार बेचने की एक वस्तु बनकर रह गए हैं। वे छपे शब्दों से अधिक कुछ नहीं हैं।
इसलिए ही गांधीजी की जरूरत आज पहले से कहीं अधिक है। इस जरूरत को पूरा करने की सामथ्र्य वाला व्यक्तित्व दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। हर कोई चाहता है कि आदर्श और मूल्य इतिहास में बने रहें और इतिहास को वह पूजता भी रहेगा। परंतु अपने वर्तमान को वह इस इतिहास से बचाकर रखना चाहता है। अपने लालच की रक्षा में वह गांधी की रोज हत्या कर रहा है, पल-पल उन्हें मार रहा है और राष्ट्र भीड़ की तरह तमाशबीन बनकर चुपचाप उसे देख रहा है।
पुण्यतिथि है। गांधी जयंती गुजर चुकी है। गांधी प्रतिमाओं और उनकी तस्वीरों को पिछली पुण्यतिथि के बाद धोने-पोंछने का यह पहला अवसर आया है। प्रत्येक वर्ष ऐसा ही होता है, पुण्यतिथि और जयंती के बीच की अवधि में गांधीजी के साथ कोई नहीं होता है। कड़वी बात तो यह है कि बचे-खुचे गांधीवादी भी नहीं। वे गांधीजी का साथ दे भी नहीं सकते हैं क्योंकि जरूरतों और परिस्थितियों ने उन्हें भी सिखा दिया है कि गांधी बनने से केवल प्रताड़ना मिल सकती है, संपदा, संपत्ति नहीं। वैचारिक धरातल में यह खोखलापन एक दिन या एक माह या एक वर्ष में नहीं आ गया। जान-बूझकर धीरे-धीरे और योजनाबद्ध ढंग से गांधी सिद्धांतों को मिटाया जा रहा है क्योंकि यह मौजूदा स्वार्थों में सबसे बड़े बाधक है।
गांधीजी की प्रतिमा के सामने आंख मूंदकर कुछ क्षण खड़े रहकर अपने आपको बड़ा राजनीतिज्ञ बताने वाले यह कहने का साहस करेंगे कि वे गांधीजी के बताए रास्तों पर क्यों नहीं चल रहे हैं? नहीं, वे यह कतई नहीं बतायेंगे। भले ही हमारे ही लोग गांधी को कमतर आंक रहे हो, पर वे ही दुनिया में शांति की स्थापना के माध्यम बनेेंगे। क्योंकि वे केवल भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के पितामह ही नहीं थे अपितु उन्होंने विश्व के कई देशों को स्वतंत्रता की राह दिखाई। वे चाहते थे कि भारत केवल एशिया और अफ्रीका का ही नहीं अपितु सारे विश्व की मुक्ति का नेतृत्व करें। उनका कहना था कि ‘एक दिन आयेगा, जब शांति की खोज में विश्व के सभी देश भारत की ओर अपना रूख करेंगे और विश्व को शांति की राह दिखाने के कारण भारत विश्व का प्रकाश बनेगा।’ हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रयासों से ऐसा होता हुआ दिख रहा है, न केवल गांधी का पुनर्जन्म हो रहा है, बल्कि समूची दुनिया शांति और सह-अस्तित्व के लिये भारत की ओर आशाभरी निगाहों से निहार रही है।

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