ऋतु परिवर्तन का सन्देश वाहक पर्व गंगा दशहरा

ganga dussehraअशोक “प्रवृद्ध”
[पुण्यसलिला भगवती भगीरथी गंगा]
(14 जून 2016 , गंगा दशहरा पर विशेष)
भारतीय नदियों में देवताओं के रूप में संपूजित, तीर्थों में सर्वाधिक महिमा प्राप्त तथा भारतीय सभ्यता-संस्कृति के निर्माण में अत्यंत सहायता प्रदान करने वाली पुण्यसलिला भगवती भगीरथी गंगा इहलौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के श्रेय और प्रेय का सम्पादन कराने वाली हैl हिन्दुओं का विश्वास है कि भगवती गंगा के दर्शन-भज्जन एवं पान से आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक दुःख-द्वन्द्व नष्ट हो जाते हैं तथा हिन्दुओं में सभी श्रेणी के लोग गंगा के प्रति अपूर्व श्रद्धा रखते हैं और कवि से लेकर साधारण जन तक इसे माँ अर्थात माता के रूप में देखते हैं l आर्य-संस्कृति के प्रारम्भिक काल से ही गंगा की तटवर्ती भूमि साधु-संतों की तपोभूमि रही है l गंगा के जल में अमृत का गुण माना-समझा जाता है l
लोक विश्वास के अनुसार, मरनोन्मुख व्यक्तियों के मुख में गंगा जल डालने से मृत्यु कष्ट से ही नहीं वरन अन्यान्य पापों से भी मनुष्य को मुक्ति मिल जाती है l यह एक निर्विवाद सत्य है कि गंगा जल चाहे कितने दिनों तक किसी वर्तन में क्यूँ न रखा जाए, उसमें कीड़े नहीं होते,जबकि संसार के अन्य नदियों के जल में, जब वह आदिस्त्रोत से पृथक कर किसी अन्य छोटे पात्र में बन्द कर रखा जाता है तो उसमें कीड़े पड़ जाते हैं l यही कारण है कि भारतीय एकता के प्रबल समर्थक हमारे पुरातन धर्माधिकारियों ने तथा संस्कृत के उच्चकोटि के कवियों ने नदियों की महिमा को श्लोकबद्ध करते हुए तथा पूजा जल में जिन सरिताओं के जल की सन्निधि की माँग की है, उनमे गंगा का नाम प्रथम है –
गंगेश्च यमुने चैव गोदावरी सरस्वतीl
नर्मदे, सिन्धु कावेरी, जलेस्मिन सन्निधिं कुरूंl l

हिमालय के उत्तरी भाग गंगोत्री से निकलकर नारायण पर्वत के पार्श्व से अनेक नामों में व्यक्त होती हुई ऋषिकेशा हरिद्वार, कान्यकुब्ज, कानपुर, प्रयाग, विन्ध्याचल, वाराणसी, बक्सर, पाटलिपुत्र, मुद्गगिरि, अंगदेश (भागलपुर), बंगदेश आदि को पवित्र करती हुई गंगासागर में मिल जाने वाली भगवती भगीरथी गंगा का इस पृथ्वी पर प्रादुर्भाव पापियों की सद्गति एवं पृथ्वी को पवित्र करने के लिए हुआ हैl वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रन्थ,रामायण,महाभारत, पुराण,इतिहास, निबन्ध,काव्य-ग्रथ सभी ने गंगा के महात्म्य क वर्णन किया हैl ऋग्वेद के नदी सूक्त में एक ही स्थान पर सर्वाधिक उन्नीस नामों का उल्लेख करते हुए गंगा का नाम भी लिया गया है-
इमं मे गंगे यमुने सरस्वति शतुद्रि स्तोमं सचता परूष्णया l
असिकन्या मरूद्धये वितस्त्याऽर्जीकये श्रुणुह्यासुषोमयाl l
-ऋग्वेद – 10/75/5
ऋग्वेद में तीस नदियों के नाम आये हैं, उनमे गंगा प्रमुख है l तैतिरीय आरण्यक तथा कात्यायन श्रौतसूत्र में गंगा का नाम का उल्लेख हैl वेदोत्तर काल में गंगा को अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई तथा पुराणों में गंगा के प्रति अतिशय पूज्यभाव प्रकट किया गया हैl महाभारत काल में गंगा को त्रिपथगामिनी, रामायण में त्रिपथगा तथा रघुवंश और कुमारसम्भवम एवं शाकुन्तलम नाटक में त्रिस्त्रोता कहा गया है-
गंगा त्रिपथगा नाम दिव्या भागीरथीति च l
त्रीन् पथो भावयन्तीति तस्मात् त्रिपथगा स्मृता ll
-बाल्मीकि रामायण 1/44/6
यह त्रिपथगा स्वर्गलोक,मृत्युलोक और पाताललोक को पवित्र करती हुई प्रवाहित होती है l
विष्णुधर्मोत्तर पुराण में गंगा को त्रैलोक्यव्यापिनी खा गया है –
ब्रह्मन् विष्णुपदीगङ्गा त्रैलोक्यं व्याप्य तिष्ठतिl
शिवस्वरोदय में इडा नाड़ी को गंगा कहा गया है l पद्मपुराण में गंगा को लोकमाता कहा गया है –
पापबुद्धिं परित्यज्य गंगाया लोकमातरिl
स्नानं कुरुत हे लोका यदि सद्गति मिच्छथl l
-पद्मपुराण 7/9/57
स्कन्द पुराण में इनकी उत्पति गंगा दशहरा हैl
पुराणादि ग्रंथों में गंगा को विष्णुपादोद्भवा, शिवशीर्षनिवासिनी, शन्तनु की पत्नी, भीष्म एवं अष्ट वसुओं की माता, जह्नु के द्वारा पान किये जाने के कारण जाह्नवी के नाम से प्रसिद्ध होने की कथा भी विस्तृत रूप से अंकित हैl तीनों लोकों में रहने से आकाश-गंगा, स्वर्ग-गंगा, पाताल-गंगा, त्रिपथगा, हेमवती आदि नामों से और भगीरथ के द्वारा लाये जाने के कारण भगीरथी नाम से विख्यात हैl गंगा के नामों एवं विषयों से सम्बद्ध अनेक कथाएँ पुराणों में वर्णित करते हुए कहा गया है कि लोकमाता एवं विश्वपावनी गंगा जल शारीरिक एवं मानसिक क्लेशों का पूर्णतः विनाश करती है और गंगा के आश्रय से मानव भौतिक उन्नति ही नहीं अपितु मानवता को उपकृत और जनकल्याण हेतु आध्यात्मिक उन्नति भी कर सकता हैl गंगा के महात्म्य एवं आविर्भाव की कथा स्कन्दपुराण, ब्रह्मपुराण, भविष्य पुराण, मत्स्यपुराण आदि पुराणों में अंकित हैंl स्कन्दपुराण काशीखण्ड में तो यह भी कहा गया है कि समस्त भाग यज्ञों से अधिक पुण्य गंगा-स्नान से होता हैl गंगा का यह महात्म्य शैव, वैष्णव, गाणपत्य एवं सौर सम्प्रदाय सभी समान रूप से मानते हैं l सच ही गंगा, गौ और गीता हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के तीन प्रधान प्रतीक (चिह्न) हैंl
गंगा के महात्म्य पर ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विचार करने पर यह पत्ता चलता है कि गंगा के द्वारा भारतीय संस्कृति के निर्माण मे बहुत बड़ी सहायता मिली हैl गंगा तट के वनों-उपवनों,आश्रमों, प्राचीन तीर्थों एवं नगरों में ही हमारी आर्य-संस्कृति का उद्भव एवं विकास हुआ हैl अधिकांश संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश तथा देश के अधिकाँश भाषाओं के साहित्य वैदिक काल से लेकर आज तक गंगा तट पर ही निर्मित हुए हैंl इस प्रकार भारतीय सभ्यता-संस्कृति के उद्भव एवं विकास में गंगा के स्थान का पत्ता स्वतः ही चल जाता है l हरिद्वार, प्रयाग, काशी,गया आदि गंगा तट पर अवस्थित स्थल सिर्फ तीर्थ ही नहीं वरन प्रभावशाली विद्या-केन्द्र भी रहे हैंl गंगा के उपकूलों पर ही धर्म, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य एवं कला-कौशलों की श्रीवृद्धि हुईl उत्तर भारतवर्ष के अधिकाँश व्यापारिक नगर एवं औद्योगिक केन्द्र गंगा-तट पर ही अवस्थित हैंl भारतीय सभ्यता-संस्कृति को निरन्तर प्रवाहमान बनाये रखने के निमित हिन्दुओं के संग्रह केन्द्र अर्थात जमावड़े के रूप में निर्मित चार कुम्भ स्थलों में से दो कुम्भ स्थल प्रयाग और हरिद्वार गंगा के किनारे हैंl हरिद्वार का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में नहीं है, फिर भी स्कन्दपुराण और एवं मत्स्यपुराण में हरिद्वार का उल्लेख हैl कालिदास ने मेघदूत में कनखल का उल्लेख किया है, लेकिन हरिद्वार का नहीं l इतिहासज्ञ इससे मिलते-जुलते अथवा निकटस्थ नामों का उल्लेख मायापुर, गंगा-द्वार आदि के रूप में करते हैंl आमेर के रजा सवाई मानसिंह ने सर्वप्रथम यहाँ एक छोटा सा घाट, शिवालिक की पहाड़ी को काटकर उन्हीं पत्थरों से बनाया था तथा घाट का नाम ब्रह्मकुण्ड रखा थाl पीछे यह तीर्थ बसता तथा प्रसिद्ध होता चला गयाl परन्तु गंगाद्वार नाम अत्यंत प्राचीन प्रतीत होता है, क्योंकि यहीं पर गंगा सर्वप्रथम मैदानों में उतरी है तथा यहाँ से ही हिमालय जो हरि का देश कहलाता है, प्रारम्भ होता हैl यही कारण है कि इस स्थान का नाम हरिद्वार प्रसिद्ध हुआ हैl पुराणादि ग्रन्थों के अनुसार कनखल में दक्ष के यज्ञ में सतीदाह हुआ था तथा दक्ष का यज्ञ शिव ने विध्वंस कर दिया थाl प्राचीन काल में मायापुरी एक संपन्न नगरी थीl पुराणों के अनुसार यहीं पर वेन राजा की गढ़ी थीl यह गढ़ी हरि की पेड़ी के पास कुश्यवर्त्त घाट के पास थी l जहाँ पर मेष की संक्रान्ति पर पिण्डदान होता हैl स्कन्दपुराण में इस स्थल का महात्म्य अंकित हैl कूर्मपुराण में कनखल की महिमा गई गई हैl महाभारत तथा वामनपुराण में भी गंगाद्वार का उल्लेख है l पद्मपुराण में अंकित है कि बैशाख शुक्ल सप्तमी को जह्नु मुनि ने गंगा-जल का पान किया थाl इस तिथि को गंगा सप्तमी अथवा गंगा जयन्ती के नाम से जाना जाता है और इस दिन स्नान का बड़ा महत्व हैl जब बृहस्पति वृष राशि को संक्रमण करता है तब हरिद्वार में कुम्भ का पर्व होता हैl प्रयाग में गंगा-यमुना का संगम होने तथा सरस्वति के गुप्त प्रवाह होने के कारण प्रयाग के कुम्भ का महात्म्य अन्य तीर्थों के कुम्भ से अत्यधिक बढ़ गया हैlपुराणादि ग्रन्थों में गंगा के कवच, स्तोत्र, शतनाम, सहस्त्रनाम आदि अनेकानेक स्तुतियाँ पूजा-पद्धतियाँ अंकित हैंl पुराणों में गंगा के प्रति अतिशय पूज्य-भाव प्रकट किया गया है l

बाल्मीकिय रामायण में अंकित है कि गंगा की उत्पति हिमालय पत्नी उमा से हुई ।गंगा ऊमा की ज्येष्ठ बहन थी ।पूर्वजों के उद्धार के लिए भगीरथ ने अत्यधिक कठोर तप किया ।ब्रह्मा जी भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न हो गये और गंगा को पृथ्वी पर लाने का वरदान दिया ।गंगा को धारण करने के लिए भगीरथ ने अपनी तपस्या से शंकर को प्रसन्न किया । तपस्या से प्रसन्न हो शंकर ने गंगा को पृथ्वी पर आने से पूर्व धारण करने का भगीरथ को आश्वासन दिया तथा अपने जटा में गंगा धारा को धारण कर पृथ्वी पर छोड़ा ।देवनदी गंगा भगीरथ के पीछे-पीछे कपिल मुनि के आश्रम में गई तथा सगर पुत्रों को उद्धार किया ।
देवी भागवतपुराण के अनुसार भगवान विष्णु की तीन पत्नियाँ थीं ।परस्पर कलह के कारण शापवश गंगा और सरस्वती को नदीरूप में आना पड़ा ।गंगा अवतरित होकर पतितपावनी बनी ।
गंगे यास्यसि पश्चात्वमंशेन विश्वपावनी ।।
भारतं भारती शापात पापदाहाय पापिनाम ।
भगीरथस्य तपसा तेन सुकल्पिते ।।
-देवीभागवतपुराण 9/6/49-50
ऋतु परिवर्तन के संदेशवाहक के रूप में पूजित तीन पर्व मकर संक्रान्ति, बैशाखी और गंगा दशहरा मुख्य हैं ।इसीलिए इस पर्व के दिन पावन तीर्थों और नदियों में स्नान करने के महत्व पर बल दिया जाता है ।कृषि प्रधान भारतवर्ष का ऋतु-पर्व कृषि के प्रसंग से प्रकाशमान है ।
सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के वंश में आठवीं पीढ़ी में सागर का जन्म हुआ था ।काशी में गंगा के घाट पर (वर्तमान हरिश्चन्द्र घाट) पर राजा हरिश्चन्द्र ने चाण्डाल का दास्य-कर्म किया था ।स्कन्द पुराण में कहा है
त्रयाणामपि लोकानां हिताय महते नृपः ।
समानैषीत्ततो गंगा यत्रासिन्मणिकर्णिका ।।
प्रागेव मुक्तिः संसिद्धि गंगा संगात् ततोऽधिका ।
यदा प्रभृति सा गंगा मणिकर्ण्या समागता ।।
-स्कन्द पुराण , काशीखण्ड 30/3,9

तीनों लोकों के महान कल्याण के लिए राजा भगीरथ गंगा को पृथ्वी पर लाये, जहाँ सबको मुक्ति प्रदान करने वाली मणिकर्णिका पूर्व से ही विराजमान थी ।अब गंगा एके आ जाने से उसका प्रभाव और बढ़ गया है ।इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि वाराणसी में गंगा के आ जाने के पूर्व मणिकर्णिका अवस्थित थी ।
श्रीमद्भागवत पुराण के पंचम स्कंध के अनुसार राजा बलि से तीन पग पृथ्वी दान के समय भगवान वामन का बायाँ चरण ब्रह्माण्ड के ऊपर आ जाने पर ब्रह्मा के द्वारा भगवान के पाद-प्रच्छालन के उपरांत उनके कमण्डलु में बचा जल भी वामन के चरण-स्पर्श से पवित्र होकर ध्रुवलोक में गिरकर चार चरणों में विभक्त हो गया सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा ।सीता ब्रह्मलोक से चलकर गन्धमादन के शिखर पर गिरती हुई पूर्व दिशा में चली गई ।अलकनन्दाअनेक पर्वत शिखरों को लांघटी हुई हेमकूट से गिरकर दक्षिण में भारत चली आई ।चक्षु नदी माल्यवान शिखर से केतुमाल वर्ष के मध्य से होकर पश्चिम में चली गई ।भद्रा नदी गिरी शिखरों से गिरकर उत्तर कुरू वर्ष के मध्य से होकर उत्तर दिशा में चली गई ।विन्ध्य गिरी के उत्तर भाग में इन्हें भगीरथी गंगा तथा दक्षिण भागा में गौतमी गंगा (गोदावरी) कहा जाता है ।
भारतीय साहित्य में गंगावतरण की दो तिथियों का उल्लेख है- प्रथम बिशाख शुक्ल की तृतीय (आदित्य पुराण) तथा द्वितीय ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की हस्त नक्षत्र सहित बुधवा से युक्त दशमी तिथि (स्कन्द पुराण)।द्वितीय तिथि गंगा दशहरा की है, जो भगीरथी से सम्बद्ध प्रतीत होती है ।पुराणादि ग्रंथों में अनेक स्थलों पर गंगा की महिमा का उल्लेख हुआ है तथा कहा गया है कि लोकमाता एवं विश्वपावनी गंगा जल शारीरिक एवं मानसिक क्लेशों का पूर्णतः विनाश करती है । गंगा के आश्रय से मानव सिर्फ भौतिक उन्नति ही नहीं अपितु मानवता को उपकृत, जनकल्याण हेतु आध्यात्मिक उन्नति भी कर सकता है ।लोक बिश्वास के अनुसार अविलम्ब सद्गति के इच्छुक नर-नारियों के लिए गंगा ऐसा तीर्थ है जिसके दर्शन मात्र से सारा पाप नष्ट हो जाता है।गंगा के नाम स्मरण से पातक, कीर्त्तन से अतिपातक और दर्शन मात्र से महापातक भी नष्ट हो जाते हैं ।

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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