व्यालोक पाठक
नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी के बारे में इतना कुछ लिखा जा रहा है, इतना कुछ उत्पादित किया जा रहा है कि इस ढेर में अपनी तरफ से कुछ बढ़ाना बारहां मुफीद नहीं लगता है। जुगुप्सा की हद तक उबाऊ और प्रहसन की हद तक हास्यास्पद यह पूरी स्क्रिप्ट इतनी वाहियात हो गयी है कि इस पर किसी तरह की प्रतिक्रिया करना भी एक कष्टसाध्य काम सा लगने लगता है। जब से मोदी को उनकी पार्टी ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है, तब से यह प्रहसन और भी बेढब हो गया है। उनकी हरेक रैली की इतनी ‘क्लोज़ स्क्रूटनी’ की जा रही है, जितनी शायद ही किसी और नेता की हुई हो। नौटंकी चैनल (तथाकथित न्यूज़ चैनल) के जमूरों और भाटों के अलावा सोशल मीडिया के स्वयंभू ज्ञानी, विद्वान और विचारवान भी अपने (कु)विचारों की उल्टी से आपका जी हलकान किए हुए हैं।
पटना की हुंकार रैली को लगभग पूरा एक दिन बीत चुका है और त्वरित प्रतिक्रिया की हड़बड़ी से बचने के लिए ही यह लेखक लगभग 24 घंटों तक पूरे तमाशे को साक्षी भाव से बस देखता रहा है। मीडिया की कड़ी नज़र नरेंद्रभाई की हरेक रैली पर रही है और पटना भी इससे अछूता नहीं रहा। बहरहाल, यहां बात उन स्वनामधन्य विद्वानों की, जो अपने आचरण से खुद ही हास्यास्पद बन जाते हैं।
इसके पहले, दिल्ली में भी मोदी की रैली हुई थी, उसमें विद्वानों के मुताबिक 50,000 से अधिक लोग नहीं थे (भाजपा का दावा कुछ और ही है), तो उसका पोस्टमार्टम भाई लोगों ने इस तरह किया, मानो चुनावी नतीजा बस आ ही गया है। इसके ठीक उलट, पटना की रैली शुरू भी नहीं हुई थी कि भाई लोगों ने बिल्कुल सधे अंदाज में यह भी घोषणा कर दी कि भाजपा के बिल्कुल ज़मीनी कार्यकर्ता को कितने पैसे और कितनी सुविधा इस रैली में भीड़ जुटाने के लिए दी गयी है? अव्वल तो, यह समझ नहीं आता कि भाजपा प्रबंधन समिति के किस नेता या जिम्मेदार व्यक्ति ने भाई लोगों को बिल्कुल कान में ये सारे ‘फैक्ट्स एंड फिगर्स’ बता दिए हैं, और दूजे, अगर रैली के लिए पैसे खर्च किए भी गए, तो यह आपवादिक कहां है, सरकार? अपवाद, तो तब होता, अगर रैली बिना पैसे के आयोजित हो जाती। यह रोग संघ, भाजपा, कांग्रेस, कौमी (कम्युनिस्ट), सपा, बसपा आदि-इत्यादि सभी दलों में एक समान है, प्रभु और उसी तरह सहज-स्वीकार्य है, जैसे गुप्त रोग। आपको अगर लगता है कि जेपी और लोहिया की तरह, आज भी नेताओं के बुलावे पर जनता अपने घर से दरी लेकर रैली में आएगी, तो आप अधिक नहीं, चार दशक पीछे जी रहे हैं, कॉमरेड। यह भी याद रखें कि जेपी और लोहिया अपने उत्तराधिकारियों के मामले में बिल्कुल ही ‘फेल्यर’ निकले। जेपी की संपूर्ण क्रांति लालू-नीतीश का कोढ़ लेकर आती है, तो लोहिया का समाजवाद मुलायम सिंह यादव जैसे लोग हाइजैक कर लेते हैं। यह भी ध्यान देने की बात है कि बिहार-यूपी को मिलाकर सबसे अधिक सांसद आते हैं और संसदीय व्यवस्था की सड़ांध के लिए भी कार्य-कारण न्याय से यही दोनों राज्य सबसे अधिक ज़िम्मेदार हैं। यह भी याद दिला दें कि मोदी की रैली के ठीक पहले कौमियों (कम्युनिस्ट) की भी एक रैली उसी गांधी मैदान में हुई थी, और उसकी भीड़ को भी ‘मैनेज’ करने का आरोप लगा था।
बहरहाल, बात निकली तो यहीं नहीं रुकी, दूर तलक गयी। मोदी के भोजपुरी, मैथिली और मगही में बोलने पर भी बुद्धिजीवियों के पेट में दर्द हो गया। अरे भाई, यह कौन सी बड़ी बात है और मोदी तो खासतौर पर यह करते हैं। उनके पहले भी कई नेता ऐसा कर चुके हैं। सुषमा दी से लेकर स्वर्गीय राजीव गांधी तक, जो क्षेत्रीय भाषा में एक-दो वाक्य बोल कर स्थानीय जनता से अपना तार जोड़ना चाहते हैं। अब उसमें आप भाषा और शैली का ऑपरेशन करेंगे, तो आपकी बलिहारी है, भाई। इस बात के लिए तो आपको उस नेता को बधाई देनी चाहिए, जो कुछ लुप्तप्राय परंपराओं को जीवित करने की कोशिश में जुटा है। कभी कुछ ठीक चीजों को सराहना भी सीखो कॉमरेड, सोवियत संघ का अंत हुए तो ज़माना बीत गया है।
मोदी की सभा के ठीक पहले लगातार सात बम धमाके पटना में हुए और सभी रैली-स्थल के दो-ढाई किलोमीटर के इर्द-गिर्द ही हुए। पांच लोगों के मरने और लगभग 70 के घायल होने की ख़बर पुष्ट की जा चुकी है। घायलों में आठ की हालत गंभीर है। इस लेखक के लिए यह सचमुच अबूझ प्रश्न है कि इतने धमाकों के बावजूद रैली क्यों हुई? लोग पूरी गंभीरता से मोदी को कैसे सुनते रहे? और, सबसे बड़ा प्रश्न कि, नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी ने अपने पूरे भाषण में इन धमाकों का जिक्र क्यों नहीं किया?
बहरहाल, इस पर कौमी विद्वानों और स्वनामधन्य चिंतकों की प्रतिक्रिया भी उनके चरित्र के मुताबिक ही है। धमाकों के तुरंत बाद तथाकथित ‘सिकुलर’ विद्वानों ने फतवा दे दिया कि ये संघ-प्रायोजित थे। गोया, संघ के सरसंघचालक ने इन गपोड़ियों को फोन पर या मेल पर यह जानकारी दी हो और इसकी जिम्मेदारी ली हो। मूर्खता की सचमुच कोई हद नहीं होती है।
वैसे, राजनीति को पुंश्चला भी कहा गया है। चाणक्य से लेकर मैकियावेली तक राजनीतिक चिंतकों ने राजनीति का एकमात्र धर्म सत्ता की प्राप्ति कहा है। इसी वजह से अगर आप तार्किक हैं, तो राजनेताओं से बहुत अधिक शुचिता और नैतिकता की उम्मीद आपको नहीं करनी चाहिए। बात बस दांव पड़ने की है, बिहारी भाषा में कहें, तो जिसका ‘लह’ जाए। हां, आवरण के तौर पर भी मोदी एंड कंपनी को यह जवाब तो देना ही पड़ेगा कि धमाकों पर अपने भाषण में उन्होंने कुछ क्यों नहीं कहा? गुजरात-दंगों पर उनकी चुप्पी अब तक उनको ‘हांट’ कर रही है, कहीं यह भी उनको भारी न पड़ जाए। या फिर, नोट्स देखकर बोलने की वजह से तो उनकी रफ्तार मद्धम नहीं पड़ रही। वह पीएम पद के प्रत्याशी हैं, पीएम होने के बाद तो उन्हीं के दल के वाग्मी नेता अटल बिहारी की बोलती भी बंद हो गयी थी। सत्ता की रपटीली राह अभी बाकी है, मोदी के लिए और उनको यह भी याद रखना चाहिए कि इतिहास तो बड़ा क्रूर-निर्मम होता है, वह अपने हिसाब-किताब में किसी को नहीं बख्शता।
भाड़े के “इस लेखक के लिए यह सचमुच अबूझ प्रश्न है कि इतने धमाकों के बावजूद रैली क्यों हुई? लोग पूरी गंभीरता से मोदी को कैसे सुनते रहे? और, सबसे बड़ा प्रश्न कि, नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी ने अपने पूरे भाषण में इन धमाकों का जिक्र क्यों नहीं किया?” व्यालोक भैया, पूरी गम्भीरता से मोदी जी को सुनते लोगों से पूछो कि वे जान हथेली पर रख वहाँ क्योंकर बैठे रहे? उत्तर मिलने पर सोचो कि श्री नरेन्द्रभाई दामोदरदास मोदी जी इतने बड़े जनसमूह को बोलते हुए धमाकों का क्योंकर और कैसे उल्लेख कर पाते? और अब लगे हाथों यह भी बताइये कि इस लेख का अभिप्राय क्या है?
मैं इस बात से सहमत हूँ की अच्छे उम्मेदवार का चयन हो – पहले से प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की घोषणा गलत है – इसका लाभ भी बीजेपी को २००९ या २०१४ में नहीं हुवा था और अभी की उसकी यह घोषणा उसके राष्ट्रिय से स्तर गिर क्षेत्रीयकरण की घोषणा है – ऐसे बड़ी रैला पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए और दलों को चाहिए की एक ही दिन सभी क्षेत्रों मेर जंहा लड़ना हो रैली कर अपनी शक्ति दिख्येन – यद् रखे स्वर्गीय गोलवलकर ने कहा था- ‘बड़े कार्यकरओम से कार्यकर्त्ता टूटते हैं, छोटे से बनते हैं -‘
मैं आपके विचार से तब सहमत हूँ जब मैं यह जानूं कि आप अपने महल की चारदीवारी में शांतिपूर्ण बैठ कोसों दूर गठित रैली का सोचते हैं| स्वर्गीय गोलवलकर का सवरूप लिए आज मोदी जी भारत में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन हेतु भारतीय राजनीति के क्षितिज पर उभर कर आये हैं| यदि आप मोदी जी के सन्देश को समझते हैं तो उन्हें अपना समर्थन दें और अपने क्षेत्र से बाहर दूसरों को भी मोदी जी के आंदोलन से प्रभावित करें|
मोदी या राहुल गांधी के बारे में बात करने वाले लोग सिर्फ गॉसिप ही कर रहे हैं. लोग चुनावों को गम्भीरता से लेते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उपलब्ध पार्टियों एवं कैंडिडेट्स में से ज्यादा उपयुक्त कौन है जिसे चुनना चाहिए. किस रैली में कितने लोग पहुचे इसका मूल्यांकरण करने वाले लोग भी सिर्फ टाइम पास कर रहे हैं. साथ ही किसी भी पक्ष में संख्या बताना पूर्वाग्रह ग्रसित ही लगता है.
देश में इस प्रकार की रैली या रेला का प्रचलन अच्छा नही है- इससे क्या सन्देश कोई दल देना चाहता है ? उसकी लोकप्रियता का अंदाज़ किसी ४ लाख की नहीद से १० करोड के प्रांत में लगाना वेवकूफी है- मैं किसी का समर्थक या विरोधी के नाते यह नहीं लिख रहा -वैसे माइन किसी सी ऍम के पी ऍम बनाये जेन के विरोध के स्टैंड पर अभी भी कायम हूँ जो नीतीश मोदी दोनों पर लागू होता है – नीतीश की अधिकार रैली या मोदी की हुंकार रैली राष्ट्र के संसाधनों की बर्बादी है