कूड़ा : भारत के ऊपर धब्बा

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अनिल अनूप

नदी के किनारे बने कैफे का मालिक वह नजारा देखकर हैरान रह गया। पहाड़ से गिरने वाली वह छोटी सी नदी हिमाचल के दो बड़े शहरों– राजधानी शिमला और सोलन की प्यास बुझाती थी। लेकिन इस साल, उसमें कुछ और बह रहा था। सैकड़ों किलो प्लास्टिक के थैले, बोतलें, कूड़ा-कबाड़। अपने ठंडे-मीठे पानी के लिए मशहूर यह नदी अब ठोस कचरे की धारा बनकर रह गई थी।

दो हफ्तों बाद 1700 किलोमीटर दूर देश के दक्षिण पश्चिम में, मुंबई के मशहूर मरीन ड्राइव के वाशिंदे जब 14 जुलाई की सुबह सोकर उठे तो उन्हें कुछ ऐसा दिखाई जो उन्होंने आज से पहले कभी नहीं देखा था। अरब सागर की ऊंची-ऊंची लहरों ने मरीन ड्राइव पर 12 टन कचरा उगल दिया था। मरीन ड्राइव जो अपनी खूबसूरती की वजह से क्वींस नेकलेस कहलाता है और दक्षिण मुंबई का सबसे समृद्ध इलाका है। यहां देश के सबसे रईस लोगों के घर और दफ्तर हैं।

इन दोनों घटनाओं के विडियो दुनिया भर के हजारों मोबाइल फोन पर देखे गए, दरअसल ये चेतावनी है इस बात की कि दुनिया भर में हमारे जलस्रोत प्लास्टिक प्रदूषण का शिकार हो चुके हैं। हजारों किलो प्लास्टिक के कचरे से पटी समंदर की तलहटी, सांस लेने को तड़पती, दम तोड़ती व्हेलें, डॉल्फिनें, कछुए और दूसरे समुद्री जीव-जंतुओं के विडियो अब आम हो गए हैं। पर यह संकट कहीं दूर नहीं है… यह लाखों भारतीय नागरिकों की हकीकत बन चुका है।

अगर बिना शोधित किए गए कचरे को इसी दर से फेंका जाता रहा तो भारत को 2050 तक इस कचरे को जमा करने के लिए 88 वर्ग किलोमीटर जमीन की जरूरत पड़ेगी, यह क्षेत्रफल लगभग नई दिल्ली के आकार के बराबर है। ये आंकड़े एसोचैम और प्राइसवॉटरहाउसकूपर्स के 2017 में किए गए एक अध्ययन से मिले हैं।

मुंबई की रहने वाली अलका शर्मा सरकारी अफसर हैं जो कुछ समय पहले ही दिल्ली से यहां आई हैं। मरीन ड्राइव को यों कचरे में सना देखकर उन्हें झटका सा लगा। गांव कनेक्शन से फोन पर बात करते हुए उन्होंने कहा, “मैं हाल ही में मुंबई आई हूं और मेरे लिए मरीन ड्राइव स्वर्ग जैसा है। सारे दिन ऑफिस में बैठे हुए मैं इंतजार करती थी कि कब शाम हो और कब मैं यहां टहलने के लिए आऊं। पर उस सुबह जब मैं वहां से ड्राइव करती हुई गुजरी तो हैरान रह गई। कुछ देर तो मुझे समझ ही नहीं आया कि क्या हो गया। वहां सड़क के बीचोंबीच तक कचरा फैला हुआ था।”

हिमाचल प्रदेश का ज़नाडू कैफे सालोगरा कूड़ाघर से चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हिमाचल प्रदेश और भारत के तमाम शहरों के कूड़ाघरों की तरह यहां भी कूड़ा ओवरफ्लो हो रहा है।

अश्वनी खड्ड नदी शिमला और सोलन शहरों के लिए पीने का पानी मुहैया कराती है। 2016 में शिमला और संजौली में पीलिया की महामारी फैली थी। जांच में पता चला कि इसके लिए अश्वनी खड्ड का प्रदूषित पानी जिम्मेदार था। दरअसल, एक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का गंदा पानी रिस कर अश्वनी खड्ड में मिल रहा था। उस साल पीलिया से कम से कम 10 लोगों की मौत हुई थी।

ज़नाडू कैफे के सीईओ अभय शर्मा का कहना था, “जिस समय कूड़े का सैलाब आया उस समय तो बारिश भी नहीं हो रही थी।” अभय सोलन जिले के मेरी गांव में रहते हैं। उन्होंने ही 2 जुलाई को प्लास्टिक की नदी में तब्दील हो चुकी अश्वनी खड्ड की धारा का विडियो बनाया था। गांव कनेक्शन से फोन पर बात करते हुए अभय बोले, ” नदी के पानी में वह कचरा ढाई घंटे से ज्यादा समय तक आता रहा। यह पहला मौका नहीं था जब मैंने नदी के पानी में इस तरह कूड़ा बहते देखा हो। पहली बार ऐसा जून में हुआ था। उस समय मैं इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। लेकिन जब यह दोबारा हुआ तो मैं कैमरा लेकर तैयार था।”

भारत की कूड़े की समस्या नियंत्रण से बाहर हो चुकी है। देश में हर साल 6.2 करोड़ टन से ज्यादा कचरा पैदा होता है। इसमें सालाना 56 लाख टन प्लास्टिक का कचरा शामिल है।

भारत कुल मिलाकर 4.3 करोड़ टन ठोस अपशिष्ट उत्पन्न करता है इसमें से केवल 22 फीसदी का ही शोधन या ट्रीटमेंट होता है शेष 3.1 करोड़ टन यों ही फेंक दिया जाता है।

उफनते कूड़ाघर

“हिमाचल प्रदेश में अब कूड़ा फेंकने की जगह नहीं बची। कोई भी ग्राम पंचायत अपने गांव के पास कूड़ाघर बनाने के लिए जगह देने को तैयार नहीं है।” प्रदीप सांगवान कहते हैं। प्रदीप गुड़गांव स्थित हीलिंग हिमालयाज़ फाउंडेशन के संस्थापक हैं। यह संस्था कूड़े के निस्तारण के लिए एक व्यापक समाधान खोज रही है। प्रदीप ने गांव कनेक्शन को बताया, “इसलिए मनाली और कुल्लू जैसी जगहों पर जहां कूड़ाघर ऊपर तक ठसा-ठस भरे हैं वहां इनके लिए और जगह नहीं बची है।”

मध्य हिमाचल के मशहूर पर्यटक स्थल कुल्लू के पास स्थित माहौल कूड़ाघर के बारे में नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल ने आदेश दिया है कि इसे यहां से कहीं और ले जाया जाए। सांगवान कहते हैं, “पर उनके पास कहीं दूसरी जगह जमीन नहीं है। इसलिए अब यहां केवल शहरों का कूड़ा डाला जाता है। पर बाकी लोग सीधे नदी में ही कूड़ा फेंकने लगे हैं।”

समाधान: कूड़े से ईंधन

सरकार इस समस्या से निपटने के लिए कुछ कदम उठा रही है। कुल्लू से कुछ कूड़ा बरमाना की सीमेंट फैक्ट्री में भेजा गया है। यहां कूड़े से बिजली बनाई जाती है।

हिमाचल के दूसरे पर्यटक स्थल मनाली में कूड़े से बिजली बनाने वाला प्लांट लगाने का विचार है। यह अपने आखिरी चरण में है। शिमला में भी 150 टन क्षमता का कूड़े से बिजली बनाने वाला प्लांट है। इसे एलिफेंट एनर्जी लिमिटेड ने बनाया था लेकिन फिलहाल ये अपनी आधी क्षमता पर काम कर रहा है।

सांगवान कहते हैं, “कूड़े से बिजली बनाने वाले प्लांट के साथ सबसे बड़ी समस्या है इनकी लोकेशन। दूरदराज के गांवों से शिमला तक कूड़ा लाना बहुत महंगा साबित होता है। शिमला नगर पालिका भरयाल प्लांट तक मुफ्त में कूड़ा ढोकर लाती है। कंपनी से राज्य को 7.9 रुपए प्रति यूनिट पर बिजली मिलती है। लेकिन प्लांट तक केवल 75 टन कूड़ा ही पहुंच रहा है। कूड़े को बरमाना सीमेंट प्लांट तक पहुंचाना भी बहुत महंगा पड़ रहा है।”

स्थानीय स्तर पर है समाधान

प्रदीप सांगवान कहते हैं, “अगर हम कूड़े को संयंत्रों तक लाने में ही अपनी ऊर्जा और पैसा खर्च कर देंगे तो कोई फायदा ही नहीं होगा। इसका हल यह है कि स्थानीय स्तर पर कूड़े से ईंधन बनाने वाले छोटे प्लांट लगाए जाएं। अगर यह संयंत्र गांव में होगा तो किफायती पड़ेगा और लगभग मुफ्त में ही इसका संचालन होगा। इससे स्थानीय लोगों को रोजगार मुहैया होगा और गांव को ऊर्जा भी मिलेगी।”

मुंबई में अलका शर्मा कहती हैं, “समंदर से फेंके गए इस कूड़े को देखकर आंखें खुल गईं। अगर हम समुद्र को कूड़ाघर की तरह इस्तेमाल करेंगे तो एक दिन वह कचरा लौटकर हमारे ही पास तो आएगा।”

कूड़ा: भारत का सरदर्द

देश में हर साल 6.2 करोड़ टन से ज्यादा कचरा तैयार होता है।

इसमें सालाना 56 लाख टन प्लास्टिक का कचरा शामिल है।

भारत कुल मिलाकर 4.3 करोड़ टन ठोस अपशिष्ट उत्पन्न करता है।

केवल 22 फीसदी का ही शोधन या ट्रीटमेंट होता है।

शेष 3.1 करोड़ टन यों ही फेंक दिया जाता है।

मुंबई का कूड़ा

मुंबई में तीन जगह कूड़ा डाला जाता है। यहां हर रोज 9,600 टन कूड़ा फेंका जाता है।

देवनार में कूड़े का पहाड़ छह मंजिला इमारत जितना ऊंचा है।

मुंलुड का कूड़ाघर 25 एकड़ में फैला है अब इसका इससे ज्यादा विस्तार नहीं हो सकता।

नई दिल्ली

रोज 9000 टन कूड़ा गाजीपुर, ओखला और भलस्वा जाता है।

गाजी पुर में 1.2 करोड़ टन कूड़ा 70 एकड़ में फैला हुआ है, इसकी ऊंचाई 50 फीट तक है।

डरावना है भविष्य

एसोचैम और प्राइसवॉटरहाउसकूपर्स के 2017 के आंकड़ों के अनुसार, अगर बिना शोधित किए गए कचरे को इसी दर से फेंका जाता रहा तो भारत को 2050 तक इस कचरे को जमा करने के लिए 88 वर्ग किलोमीटर जमीन की जरूरत पड़ेगी, यह क्षेत्रफल लगभग नई दिल्ली के आकार के बराबर है।

कूड़े से ऊर्जा

2,200 कूड़े से ऊर्जा बनाने वाले प्लांट हैं दुनिया भर में

445 यूरोपियन यूनियन में हैं

150 चीन में हैं

86 अमेरिका में हैं

8 भारत में हैं

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