गायत्री जयंती महानता अपनाने का महान पर्व

-गौरीशंकर शर्मा

गायत्री को देवमाता, ज्ञान की गंगोत्री, संस्कृति की जननी एवं आत्मबल अधिष्ठात्री कहा जाता है। सृष्टि के आदि में ब्रह्माजी इसी शक्ति की साधना करके विश्व संचालन के उपयुक्त ज्ञान एवं विज्ञान प्राप्त कर सकने में समर्थ हुए। इसे गुरुमंत्र कहते हैं। यह समस्त भारतीय धर्मानुयायियों की उपास्य है। इसमें वे सभी विशेषताएँ विद्यमान हैं, जिनके आधार पर वह सार्वभौम, सार्वजनीन उपासना योग्य का पद पुन: गगहण कर सके। इसी ज्ञान-विज्ञान की देवी गायत्री का जन्मदिन है- गायत्री जयंती।

इसी दिन भगवती गंगा स्वर्ग से धरती पर अवतरित हुईं। जिस प्रकार स्थूल गंगा भूमि को सींचती, प्राणियों की तृषा मिटाती, मलीनता हरती और शांति देती है, वही सब विशेषताएँ अध्यात्म क्षेत्र में गायत्री रूपी ज्ञान गंगा की हैं। गायत्री महाशक्ति के अवतरण की गंगा अवतरण से संगति भली प्रकार मिल जाती है। एक को सूक्ष्म और दूसरे को स्थूल-एक ही तत्तव की व्याख्या कहा जाए, तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

राजा सगर के साठ हजार पुत्र अपने कुकर्मों के फलस्वरूप अग्नि में जल रहे थे। उनकी कष्ट निवृत्तिा गंगा जल से ही हो सकती थी। सगर के एक वंशज भगीरथ ने निश्चय किया कि वे स्वर्ग से गंगा को धरती पर लायेंगे। इसके लिए कठोर तप-साधना में लगे। इस नि:स्वार्थी परमार्थी का प्रबल पुरुषार्थ देखकर गंगा धरती पर आयीं; पर उन्हें धारण कौन करे, इसके लिए पात्रता चाहिए। इस कठिनाई को शिव ने अपनी जटाओं में गंगा को धारण करके हल कर दिया। गंगा का अवतरण हुआ। सगर पुत्र उसके प्रताप से स्वर्ग को गये और असंख्यों को उसका लाभ मिला। आत्मशक्ति का, गतंभरा-प्रज्ञा का अवतरण ठीक गंगावतरण स्तर का है। उसकी पुनरावृत्तिा की आज अत्यधिक आवश्यकता है।

आज से ठीक 20 बीस पूर्व (गंगा दशहरा, गायत्री जयंती 1990 को) वे 2 जून 1990 को अपनी जीवन लीला का संवरण करते हुए माँ गायत्री की गोद में समाहित हो गए। माता दानपुँगवरि देवी, पिता पं0 रूपकिशोर शर्मा के घर आगरा जिले के ऑंवलखेडा गाँव में जन्मे बालक श्रीराम की प्रारंभिक शिक्षा गाँव में तथा संस्कृत घर पर रहकर ही अपने पिताजी से सीखी। पं0 मदनमोहन मालवीय जी ने नौ वर्ष की आयु में उनका यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न करवाकर विधिवत् गायत्री मंत्र की दीक्षा दी। दीक्षा के दौरान मालवीय जी ने उन्हें बताया था- ‘गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है,’ जिसे बालक श्रीराम शर्मा ने गाँठ बाँध ली।

अपने निश्चल एवं पवित्र प्रेम से सींचकर करोडों भावनाशील लोगों को अपना मानस पुत्र बनाकर विशाल गायत्री परिवार का संगठन खडा किया। धर्मतन्त्र से लोकशिक्षण की प्रक्रिया संपन्न कराने हेतु चार हजार शक्तिपीठों, हजारों प्रज्ञापीठों का निर्माण, गायत्री तपोभूमि मथुरा से लेकर शान्तिकुञ्ज तक की स्थापना, भौतिकता की ओर अन्धी दौड लगाते तथाकथित प्रबुध्दा वर्ग को भटकाव से बचाकर सही राह दिखाने वाला साहित्य रच कर विचार क्रांति अभियान का सूत्रपात तथा जीवन के हर पहलू का समाधान करने वाली तीन हजार पुस्तकें लिखीं।

80 वर्ष के जीवन में उन्होंने 800 वर्षों का कार्य किया। उनकी सामर्थ्य राष्ट्रीय संदर्भ में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होती रही। आचार्य जी अपनी सृजन सामर्थ्य पर विश्वास करके अकेले साधनहीन स्थिति में भी ‘नये राष्ट्र को मैं नयी शक्ति दूँगा’ के उद्धोष के साथ व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण के सृजनात्मक अभियान के सूत्रधार बन गये। उनकी विलक्षणता को जिसने जैसे देखा, अपनी नई अभिव्यक्ति दे दी।

पूज्यवर पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने अपना संपूर्ण जीवन सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय अर्पण करके जिया। अंतिम समय में उनके पास अपना कहने को दो रूपये का डाट पेन एवं चश्मा भर था।

अपने युग की सबसे बडी विडम्बना एक ही है कि साधन तो बढते गये; किन्तु उनका उपयोग करने वाली अंत:चेतना का स्तर ऊँचा उठने के स्थान पर उलटा नीचे गिरता चला गया। फलत: बढी हुई समृध्दिा उत्थान के लिए प्रयुक्त न हो सकी। आन्तरिक भगष्टता ने दुष्टता की प्रवृत्तिायाँ उत्पन्न कीं और उनके फलस्वरूप विपत्तियों की सर्वनाशी घटायें घिर आयीं।

गायत्री में सन्निहित ब्रह्मविद्या का तत्तवज्ञान अंत:करण को प्रभावित करके उसमें श्रद्धा का अभिवर्धन करता है। स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन जैसी भाव संवेदनाओं को छू सकने वाला प्रशिक्षण ही अंतरात्मा को बदलने एवं सुधारने में समर्थ हो सकता है। जीव का ब्रह्म से, आत्मा का परमात्मा से, क्षुद्रता का महानता से संयोग करा देना ही योग है। योग का तात्पर्य है- सामान्य को असामान्य से, व्यवहार को आदर्श से जोड देना।

पं0 आचार्यश्री की ऋषि परशुराम के कार्यों को बढाने के लिए विचार-क्रान्ति अभियान ने गति पकडी, भागीरथ परम्परा का संकल्प इसमें जुडा और व्यास परम्परा में गुरुवर ने स्वयं वेदों उपनिषदों, पुराणों आदि का भाष्य कर मानवता की पीडा का निवारण किया। आचार्यजी ने चरक की आयुर्वेद शोध, पतंजलि का योग अनुसंधान, याज्ञवल्क्य की यज्ञ चिकित्सा के शोध कार्यों को आगे बढाया और नारद परंपरा में संगीत से समाज के दर्द के प्रति टीस पैदा की। जमदग्नि परंपरा में वानप्रस्थ परिव्राजकों के निर्माण हेतु समाज सेवियों के शिक्षण के लिए सन् 1971 में शांतिपुंग गुरुकुल की स्थापना पुंगभ नगरी हरिद्वार में की, जिसे उनकी सहधर्मिणी माता भगवती देवी ने अपने ममत्व से विस्तार दिया। आद्य शंकराचार्य की परंपरा को आगे बढाते हुए धर्मतंत्र से लोकशिक्षण हेतु जन जागरण के लिए 2400 से अधिक गायत्री शक्तिपीठों और हजारों प्रज्ञामण्डलों-महिलामण्डलों के रूप में विचार केन्द्र स्थापित किए।

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