जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे की भारत-यात्रा अन्य विदेशी मेहमानों की यात्राओं के मुकाबले ज्यादा सार्थक मालूम पड़ रही है। वैसे एशिया में भारत और जापान की दोस्ती बिल्कुल स्वाभाविक मानी जानी चाहिए, क्योंकि आचार्य चाणक्य के अनुसार पड़ौसी का पड़ौसी बेहतर दोस्त होता है। चीन हमारा पड़ौसी है और जापान उसके पार रहता है लेकिन जापान के गले में अमेरिका का इतना मोटा पत्थर लटकता रहा कि शीतयुद्ध के काल में वह भारत के साथ दोस्ती की पींगे बढ़ा नहीं सका। जापान अमेरिका के साथ नत्थी रहा और भारत, कमोबेश, सोवियत रुस का समर्थक रहा। जापान ने भारत विरोधी रवैया इसलिए भी अपना लिया था कि भारत ने परमाणु-विस्फोट कर दिया था। जापान सोचता था कि उसके पास भारत से कहीं अधिक परमाणु विशेषज्ञता है, परमाणु भट्टियां हैं, परमाणु-शक्ति है लेकिन हाथ-पांव परमाणु अप्रसार संधि से बंधे हुए हैं जबकि भारत ने उस संधि पर दस्तखत नहीं किए हैं और वह एक परमाणु बमधारी देश बन गया है।
अब जापान का यह ईर्ष्या भाव धीरे-धीरे घट रहा है। भारत की पिछली और वर्तमान सरकारों ने भारत-जापान संबंधों को घनिष्ट बनाने के लिए विशेष प्रयत्न किया है। उसी के परिणाम इस यात्रा के दौरान दिखाई पड़ रहे हैं।
जापान के साथ अभी परमाणु समझौता हुआ नहीं है। अभी उसकी बात हुई है। अभी उसकी कानूनी और तकनीकी बारीकियों का स्पष्टीकरण होना बाकी है। सबसे बड़ी बाधा मुझे यह दिखाई पड़ती है कि जापान ने एक शर्त लगा दी है। वह यह कि यदि भारत अब कोई भी परमाणु-परीक्षण करेगा तो यह समझौता नहीं चल पाएगा याने जापान यह दुस्साहस कर रहा है कि वह भारत की परमाणु-संप्रभुता को गिरवी रख लेगा। यदि मोदी सरकार इस जापानी दुराग्रह के आगे घुटने टेक देगी तो यह देश के लिए बहुत अहितकार होगा। यों दोनों देशों के परमाणु-सहयोग का स्वागत है लेकिन हम यह न भूलें कि जापान हाल ही में खुद परमाणु दुर्घटना का शिकार हो चुका है।
जहां तक अहमदाबाद-मुंबई बुलेट ट्रेन चलाने का प्रश्न है, उस पर 98000 करोड़ रु. खर्च करने की तुक क्या है? उसका फायदा किसे मिलेगा? उसमें कौन यात्रा कर सकेगा? 98000 करोड़ रु. में देश के गांवों में हजारों अस्पताल और स्कूल खोले जा सकते हैं। इतना बड़ा कर्ज देने वाला जापान मूर्ख नहीं है। यह पैसा दुगुना-तिगुना होकर जापान लौटेगा। जापान से यदि भारत कुछ नई तकनीक लाकर नए यंत्र और हथियार आदि बनाए तो वह बेहतर विकल्प है। रक्षा-सौदे के तहत भारत अब जापान से कुछ आधुनिक हथियार भी खरीदेगा और भारत में उन्हें बनाएगा भी।
जापान की मारुति कार अब वह भारत में बनाकर जापान को निर्यात भी करेगा। चीन-जापान के 300 बिलियन डालर के व्यापार में अब मंदी का दौर शुरु हो गया है। इसके अलावा भारत और जापान, दोनों को सुरक्षा परिषद की सदस्यता भी चाहिए। भारत-जापान की घनिष्टता बढ़े, यह स्वागत योग्य है। दोनों देशों ने दबी जुबान से दक्षिण चीनी समुद्र में चीन की नीति का विरोध भी किया है। लेकिन चीन से निपटने के नाम पर हम जापान से ठगाएं नहीं, यह भी उतना ही जरुरी है।
आज विश्व द्वितीय शीत युद्ध और तृतीय विश्व युद्ध के चौखट पर खड़ा है। भारत आज इस स्थिति में है की कोई हमारी उपेक्षा नही कर सकता। हमे सबके साथ परस्पर हितकारी व्यवसायिक एवं तकनीकी सहयोग बढ़ाना चाहिए। आज तकनीकी ज्ञान पर किसी एक देश का एकाधिकार नही रह गया, भारत एक बड़ा बाजार है, लाभ हानी का विश्लेषण करते हुए कई वैकल्पिक श्रोतो से समझौता करने में कोई हर्ज नही है। जापान के साथ परमाणु, द्रुत गति ट्रेन और क्योटो के मॉडल पर वाराणसी के विकास का समझौता हुआ है, जिसे भारत महत्व के साथ देखता है। भारत में जापानी निवेश को भी हम महत्व के साथ देख रहे है। मुझे विश्वास है की आने वाले समय में जापान अमेरिकी सम्बन्ध वैसे नही रहेंगे जैसे आज है।