साहिलों की जुस्तजू में, कब से भटकता है सफीना
जाता है क़रीबे भंवर, कि कहीं नाख़ुदा तो मिल जाए
स्याही से खींचते हैं कुछ लोग, सेहर की उम्मीद को
उनको भी काश कभी कोई मशाले हुदा तो मिल जाए
ढूढ़ते रहते हैं खुद को हर जा, कहीं हम हैं भी कि नहीं हैं
किसी रोज़ किसी आंसू में, वजूदे गुमशुदा तो मिल जाए
दिल और जुबां में हमआहंगी, अब तो गुज़री हुई बात हुई
इतना भी बहुत है कि हंसते हुए कोई दोस्त जुदा मिल जाए
सफीना = कश्ती
नाखुदा = मांझी
स्याही = अंधेरे
सेहर = सुबह
हुदा = सत्यता
हमआहंगी = एक सा, एक से इरादे, एक राय