गज़ल:बेबसी– सत्येंद्र गुप्ता

बात गीता की आकर सुनाते रहे

आईना से वो खुद को बचाते रहे

 

बनते रावण के पुतले हरएक साल में

फिर जलाने को रावण बुलाते रहे

 

मिल्कियत रौशनी की उन्हें अब मिली

जा के घर घर जो दीपक बुझाते रहे

 

मैं तड़पता रहा दर्द किसने दिया

बन के अपना वही मुस्कुराते रहे

 

उँगलियाँ थाम कर के चलाया जिसे

आज मुझको वो चलना सिखाते रहे

 

गर कहूँ सच तो कीमत चुकानी पड़े

न कहूँ तो सदा कसमसाते रहे

 

बेबसी क्या सुमन की जरा सोचना

टूटने पर भी खुशबू लुटाते रहे

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