यूपी में कांगे्रस को आयातित नेताओं का सहारा

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chintan shivir of congressसंजय सक्सेना

2017 में जिन पांच राज्यों (यूपी, पंजाब, गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड) में विधान सभा चुनाव होने हैं उसमें उत्तर प्रदेश और पंजाब प्रमुख है। पंजाब में अकाली दल-बीजेपी की गठबंधन वाली तो यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार है।स्वभाविक रूप से दोंनो ही जगह सत्ता विरोधी माहौल बना हुआ है। पंजाब में नशाखोरी और यूपी में बिगड़ी कानून व्यवस्था को विरोधियों ने सत्तारूढ़ दल के खिलाफ मजबूत सियासी हथियार बना रखा है। पंजाब से कांगे्रस को काफी उम्मीद है तो उत्तर प्रदेश उसके लिये इस लिये महत्वपूर्ण है क्योंकि यूपी को जीते बिना दिल्ली नहीं जीती जा सकती है। इसी लिये दोंनो ही राज्योें में विधान सभा चुनाव को लेकर कांगे्रस की तेजी चैकाने वाली है। पंजाब की सियासी जंग कांगे्रस पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के सहारे फतह करना चाहती है तो यूपी के लड़ाई वह रणनीतिकार प्रशांत किशोर और गुलाम नबी आजाद जैसे आयातित(प्रदेश के बाहर के) नेताओं के सहारे जीतना चाहती है। आलाकमान को यूपी में एक अदद ऐसा चेहरा नहीं मिल रहा है जिसके सहारे विधान सभा चुनाव जीता जा सके। मौके की नजाकत को भांप कर यूपी फतह करने के लिये कांग्रेस आलाकमान ने देश भर के अपने तमाम धुरंधरों को मिशन यूपी पर लगा दिया है।
कांगे्रस से जुड़ी खबरें मीडिया में सबसे अधिक सुर्खिंया बटोर रही हैं। शायद ही कोई ऐसा दिन जाता होगा जब कांग्रेस खेमे से कोई चैका देने वाली खबर न आती हो। चुनावी रणनीतिकार प्रशांत कुमार(पीके)जब से कांगे्रस के साथ आये हैं तब से कांगे्रस मे कुछ अधिक बेचैनी देखने को मिल रही है। इस पर गुलाम नबी आजाद को यूपी का प्रभारी बनाया जाना ‘सोने पर सुहागा’ साबित हो रहा है। उम्मीद है कि देर-सबेर यूपी कांग्रेस को निर्मल खत्री की जगह नया प्रदेश अध्यक्ष भी मिल जायेगा। सब कुछ चुनावी बिसात के लिये किया जा रहा है। कांग्रेसियों की तरफ से माहौल कुछ ऐसे बनाया जा रहा है जैसे वह (कांगे्रस) सत्ता की सबसे बड़ी दावेदार हो। यह स्थिति तब है जबकि उत्तर प्रदेश में कांगे्रस के वादों-दावों को कोई ज्यादा गंभीरता से नहीं लेता है। इसकी वजह पर जाया जाये तो लगता है कि कांगे्रस आलाकमान में निर्णय लेने की क्षमता ही नहीं है। फैसले लेने की प्रक्रिया इतनी लंबी और सुस्त होती है कि जब तक फैसला लिया जाता है तब तक स्थितियां बहुत बदल जाती है। यूपी के प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री को हटाने के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है। निर्मल खत्री जातीय समीकरण के हिसाब से कांगे्रस के लिये फायदेमंद नजर नहीं आ रहे है।कांगे्रस के भीतर इस बात पर सैद्धांतिक सहमति हो जाने के बाद भी दो साल से ज्यादा का वक्त गुजर गया लेकिन नये प्रदेश अध्यक्ष की तलाश अभी तक नहीं पूरी हो पाई है। एक तरफ निर्णय लेने में देरी और उस पर कांग्रेस के पास जनाधर वाले नेताओं की कमी। कांगे्रस के लिये स्थायी समस्या बनती जा रही है। जो नेता बचे भी है, वे आपस में ही सिर फुटव्वल कर है। यूपी में तो कांगे्रस के कई प्रभारियों ने ही जिन्हें पार्टी की दिशा-दशा सुधारने के लिये भेजा गया था, पार्टी के भीतर अपने स्तर पर गुटबाजी की हवा देने का काम किया है तो कुछ प्रभारी पहले से चली आ रही गुटबाजी को खत्म करने में नाकाम रहे है। हाल ही में प्रदेश प्रभारी पद से हटाये गये मिस्त्री इसकी मिसाल थे। नेताओं के अभाव के कारण संगठन भी कमजोर होता जा रहा है। किसी भी संगठन के लिए जो बूथ लेवल स्तर का संगठनात्मक, ढ़ांचा होता है, वह एक तरफ से पार्टी या संगठन की जान होता है। कांग्रेस में यह दम तोड़ा चुका है। आज की तारीख में कांग्रेस के फ्रंटल संगठनों ने भी अपना औचित्य खो दिया है। वे जिस मकसद को लेकर बनाए गए हैं उसके अनुरूप काम ही नहीं कर रहे है। उसका नतीजा यह हुआ है कि वोटर में तब्दील हुआ छात्र वर्ग, युवा और महिलाएं जो अब बड़े वोट बैंक में तब्दील हो चुकी है। उनके बीच कांग्रेस की कोई पहचान ही नहीं दिखती।
करीब तीन दशकों से यूपी की सियासत में हासिये पर चल रही कांग्रेस कभी यूपी की सिरमौर हुआ करती थी। देश को कई प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री देने वाली कांगे्रस ने लम्बे समय तक प्रदेश पर राज किया। परंतु जब से यूपी में मंडल-कमंडल की राजनीति का उद्भाव हुआ तब से कांगे्रस का रूतबा क्षेत्रीय दलों ने हासिल कर लिया। मंडल-कमंडल के दलदल से बड़ा-छोटा कोई नेता बच नहीं पाया। मंडल-कमंडल के अलावा भी 1984 से 1990 के दौरान ऐसे कई सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए जिनकी वजह से कांग्रेस की जमीन खिसकती गई।कांग्रेस ने मंडल-कमंडल की राजनीति में अपने आप को फिट करने की काफी कोशिश की, मगर उसकी सियासी हांडी चढ़ नहीं पाई।
वर्ष 1989 में भारतीय राजनीति में जब नए युग की शुरुआत हुई और कांगे्रस के कमजोर पड़ने और क्षेत्रीय दलों के उभार के बाद केन्द्र और राज्य की राजनीति में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हो गया। मंडल-कमंडल की राजनीति में, मंडल की राजनीति के नायक तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह बने तो मंडल की काट के लिये कमंडल (अयोध्या में भगवान राम के मंदिर का मुद्दा) को हवा देने में भगवा खेमा आगे रहा। सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों के लिए वी पी सिंह ने मंडल आयोग की आरक्षण संबंधित सिफारिशे लागू करके भले ही नौकरियों में नए अवसरों के द्वार खोल दिये थे, परंतु वीपी सिंह के इस कदम की ऊपरी जाति के लोंगो ने तीखी प्रतिक्रिया दी। जगह-जगह माहौल हिंसक होने लगा। आरक्षण विरोधी सड़क पर उतर आये। यही वजह थी बुद्धिजीवी कहने लगा कि सामाजिक न्याय के नाम पर वी पी सिंह ने सिर्फ जाति विभेदों को बढ़ावा दिया। देश भर में छिड़ी आरक्षण की बहस ने पिछड़े वर्ग को अपनी पहचान का एहसास दिलाया। इस पहचान के एहसास ने उन लोगों का काम आसान कर दिया जो इस वर्ग को राजनीति में लाना चाहते थे। पिछड़े वर्ग को अच्छी शिक्षा, रोजगार के वायदे के साथ कई नई नई पार्टियां इस दौर में अस्तित्व में आईं। नीतीश कुमार,मुलायम सिंह यादव,लालू यादव आदि तमाम नेता इसी सियासत की देन थे।
मंडल-कमंडल की सियासत में मंडल और कमंडल दोेनो की ही राजनीति करने वालांे को फायदा हुआ। सिर्फ कांगे्रस को ही नुकसान उठाना पड़ा। उसके पास इस स्थिति से मोर्चा लेने के लिये न तो इंदिरा गांधी मौजूद थी, न संजय और राजीव गांधी। कांगे्रस का वोट बैंक तितर-बितर हो गया। मंडल-कमंडल की काट कर सकंे कांगे्रस में ऐसे नेताओं को आकाल पड़ गया, जिसका खामियाजा कांगे्रस को सत्ता गंवा कर चुकाना पड़ा। जब नेता नहीं बचे तो कार्यकर्ता भी मायूस होकर घरों में बैठ गया। यूपी में कांगे्रस को सबसे अधिक नुकसान हुआ। जिस कांगे्रस के 1980 में 309 और 1985 में 269 विधायक (425 में से) थे 1989 में उनकी संख्या 94 पर सिमट गई। इसके बाद यूपी में कांगे्रस कभी उभर नहीं पाई। आज की तारीख में कांगे्रस के मात्र 28 (403 में से) विधायक हैं। बात वोट प्रतिशत की कि जाये तो 1993 में उत्तर प्रदेश में कांगे्रस को मात्र 15.1, 1996 में 29.1, 2002 में महज 08.9, 2007 में 08.8 और 2012 में 11.6 प्रतिशत मत ही मिले। 2012 मंे कांगे्रस की स्थिति में दो-तीन प्रतिशत का सुधार तब आया था,जबकि राहुल गांधी ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। वह वन मैन आर्मी की तरह सूबे में प्रचार कर रहे थे। उन्ही के इशारे पर चुनावी रणनीति बनाई जा रही थी और उनकी पसंद के मुद्दों को हवा दी जा रही थी।
बहरहाल, अतीत से निकल पर वर्तमान में आया जाये तो कांगे्रस के लिये अभी भी हालात कुछ ज्यादा बदले हुए नजर नहीं आ रहे हैं। सिवाय कुछ मोहरों को इधर से उधर किये जाने के। कांगे्रस आज भी नेतृत्व के अभाव से जूझ रहा है। चुनाव की बेला हो और उसके युवराज राहुल गांधी विदेश सैर करने को निकल जाये ंतो अंदाजा लगाया जा सकता है कि शीर्ष नेतृत्व के प्रति कांगे्रसियों की क्या सोच होगी। राहुल का विदेश दौर इस लिये और भी चर्चा में क्योंकि इससे पहले भी वह कई बार संकट के समय कांगे्रस को मझधार में छोड़ कर विदेश जा चुके हैं। राहुल भले की कांगे्रस के लिये अभी तक ‘मील का पत्थर’ नहीं बन पाये हों लेकिन कांगे्रसियों को हमेशा उनसे काफी उम्मीद रहती है। यह और बात है कि कांगे्रस नेता जयराम रमेश ऐसा नहीं सोचते हैं। कुछ समय पहले कांगेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक इंटरव्यू में कहा था कि अगर हम भ्रम पाल रखा है कि कोई शख्स छूते ही सब कुछ बदल जाएगा तो यह अपने आप को धोखा देना है। उनका इशारा राहुल गांधी को पार्टी की कमान सौंपे जाने की मांग की तरफ था। उनका कहना था कि कांग्रेस को संकट से उबारने के लिए सभी को सामूहिक रूप से, ईमानदारी के साथ, एक ठोस एक्शन प्लान लेकर प्रयास करने होंगे। लेकिन कांग्रेस की मुश्किल यह है कि वहां जयराम रमेश जैसी सोच रखने वाले कम ही लोग है और दस जनपथ के अलावा किसी के पास कोई अधिकार भी नहीं है। इसी लिये कांगे्रस न तो केन्द्र और न प्रदेश की राजनीति मेे उबर पा रही है। लोकसभा चुनाव के दो साल हो गए हैं। यह वक्त किसी भी पार्टी के हार की हताशा से उबर कर मुकाबले की तैयारी के लिये पर्याप्त माना जा सकता हैं, लेकिन कांग्रेस इन दो सालों में संभलने के बजाय और ज्यादा गहरे गड्ढे में गिरती जा रही है। उसका संकट खत्म होने बजाय और बढ़ता ही जा रहा है।
लब्बोलुआब यह है कि कांगे्रस पार्टी मजबूत नेतृत्व के अभाव, निर्णय लेेने की क्षमता में कमी,जनाधार वाले नेताओं के न रहने या हासिये पर कर दिये जाने,संगठनात्मक ढांचा कमजोर होने जैसी समस्याओं से जूझ रही है। इसी के चलते उसे समझ में ही नहीं आता है कि किस मुद्दे को कैसे हैंडिल किया जाये। इन्हीं खामियों की वजह से कांगे्रस हो-हल्ला वाली पार्टी में तब्दील होती जा रही है। कांग्रेस को अपने पुराने दिन लौटाने हैं तो उन्हें दुष्यत कुमार की कविता की दो पक्तियां ,‘ सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलना चाहिए।’ को बार-बार दोहराना होगा। उसे 2002 से आगे बढ़कर और सूटबूट एवं उद्योगपतियों की सरकार जैसे जुमलों को दरकिनार करके आगे की सोचना होगा। इसकी शुरूआत के लिये अगले वर्ष उत्तर प्रदेश में होने वाले विधान सभा चुनाव से बेहतर कोई मौका नहीं हो सकता है।

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संजय सक्‍सेना
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ निवासी संजय कुमार सक्सेना ने पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद मिशन के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत 1990 में लखनऊ से ही प्रकाशित हिन्दी समाचार पत्र 'नवजीवन' से की।यह सफर आगे बढ़ा तो 'दैनिक जागरण' बरेली और मुरादाबाद में बतौर उप-संपादक/रिपोर्टर अगले पड़ाव पर पहुंचा। इसके पश्चात एक बार फिर लेखक को अपनी जन्मस्थली लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र 'स्वतंत्र चेतना' और 'राष्ट्रीय स्वरूप' में काम करने का मौका मिला। इस दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे दैनिक 'आज' 'पंजाब केसरी' 'मिलाप' 'सहारा समय' ' इंडिया न्यूज''नई सदी' 'प्रवक्ता' आदि में समय-समय पर राजनीतिक लेखों के अलावा क्राइम रिपोर्ट पर आधारित पत्रिकाओं 'सत्यकथा ' 'मनोहर कहानियां' 'महानगर कहानियां' में भी स्वतंत्र लेखन का कार्य करता रहा तो ई न्यूज पोर्टल 'प्रभासाक्षी' से जुड़ने का अवसर भी मिला।

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  1. राजनीतिक नेताओं की फसल के लिहाज से तो अब कांग्रेस में सूखा ही पड़ गया है , इसलिए शीला दीक्षित को लाने की सोच रहे हैं , मार्च अप्रैल में होने वाले चुनाव के लिए इस महत्वपूर्ण राज्य के वास्ते जिस समय नीति बनाने की व शीघ्र फैसले लेने की जरूरत है उस समय दल का नेता सैर सपाटे के लिए विदेश में घूमने चला जाए तो अंदाज लगाया जा सकता है कि दल व पार्टी नेतृत्व इस मामले में कितना गम्भीर है रही सही कसर नेताओं की फूट ने पूरी कर रखी है , लगता है पार्टी को अपने हालात का पूर्व अनुमान हो गया है
    पंजाब में अमरिंदर सिंह भी आंतरिक कलह के शिकार हैं इस लिए वहां भी कड़ी मेहनत की जरूरत है व शीघ्र निर्णय की , लेकिन अभी नेतृत्व “रेस्ट मोड ” में है

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