गजल:पालने से लेकर कांधों तक

सुजीत द्विवेदी

पालने से लेकर कांधों तक कांपती है ज़िन्दगी,

महज़ वक़्त के इशारों पर नाचती है ज़िन्दगी||

 

मन हुआ पागल क़ि ना जाना चाहे उस छोर तक,

जिस ओर सिर्फ कुछ कदम नापती है ज़िंदगी|

 

मरने को मर जाते हैं कुछ लोग यूं ही, कैसे भी,

पैगाम-ए-मोहब्बत के साथ मरना चाहती है ज़िन्दगी||

 

कसम खुदा की कातिल हो बहुत बेरहम तुम ,

तेरे रहमो करम से अब दूर भागती है ज़िन्दगी||

 

सुजीत ज़िंदगी से मोहब्बत तो बेपनाह कर लेता,

पर बेवफाई की खिड़की से मुस्तकिल झांकती है ज़िन्दगी||

 

 

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