गजल- सत्येन्द्र गुप्ता

मन लगा यार फ़कीरी में

क्या रखा दुनियादारी में !

धूल उड़ाता ही गुज़र गया

तो क्या रखा फनकारी में !

वो गुलाब बख्शिश में देते हैं

जब भी मिलते हैं बीमारी में !

फिर हिसाब फूलों का लेते हैं

वो ज़ख्मों की गुलकारी में !

किस किस को समझाओगे

कुछ नहीं रखा लाचारी में !

मैं झुककर सबसे मिलता हूँ

कुछ तो है, मेरी खुददारी में !

 

ख़ुशबू उनकी जाफ़रानी है

चेहरे पर अज़ब नदानी है !

गालों पर दहकते हैं पलाश

शबाब उनका बे बयानी है !

चरचा पहुंचा चाँद पे उनका

लगा चाँद रु ब रु बेमानी है !

शब् ने चाँद से कहा हंसकर

तेरी चांदनी तो ये पुरानी है !

चाँद बोला,मेला दो घडी का है

यह माना रुत बड़ी सुहानी है !

उम्र तो रवानी है मौजो की

नहीं रहती हर पल जवानी है !

शबाब हर रात मेरा नया है

फिर कैसे चांदनी पुरानी है !

ज़ाम हो, शीशा हो या दिल

टूट जाना सबकी कहानी है !

 

अंधों के शहर में आइना न मिलेगा

पत्थरों के शहर में शीशा न मिलेगा !

जितनी भी पीनी है पी ले तू ओक़ से

यहाँ तुझको कोई पैमाना न मिलेगा !

जाने क्या सोचा करता है, हर वक्त

किसी पल भी वो अकेला न मिलेगा !

देख ली तुमने अगर तस्वीर हमारी

दिल कहीं और फिर लगा न मिलेगा !

हाथ थामलूँ या तेरी पेशानी चूमलूं

बार बार ऐसा तो मौका न मिलेगा !

अज़ब आलम है मेरी बेचारगी का

मुझ जैसा कोई बावला न मिलेगा !

मन कर रहा है, तुझे शुक्रिया कहूं

तुझ जैसा शख्स दूसरा न मिलेगा !

जिंदगी के दिन थोड़े से ही बचे हैं

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